ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 138/ मन्त्र 3
वि सूर्यो॒ मध्ये॑ अमुच॒द्रथं॑ दि॒वो वि॒दद्दा॒साय॑ प्रति॒मान॒मार्य॑: । दृ॒ळ्हानि॒ पिप्रो॒रसु॑रस्य मा॒यिन॒ इन्द्रो॒ व्या॑स्यच्चकृ॒वाँ ऋ॒जिश्व॑ना ॥
स्वर सहित पद पाठवि । सूर्यः॑ । मध्ये॑ । अ॒मु॒च॒त् । रथ॑म् । दि॒वः । वि॒दत् । दा॒साय॑ । प्र॒ति॒ऽमान॑म् । आर्यः॑ । दृ॒ळ्हानि॑ । पिप्रोः॑ । असु॑रस्य । मा॒यिनः॑ । इन्द्रः॑ । वि । आ॒स्य॒त् । च॒कृ॒ऽवान् । ऋ॒जिश्व॑ना ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि सूर्यो मध्ये अमुचद्रथं दिवो विदद्दासाय प्रतिमानमार्य: । दृळ्हानि पिप्रोरसुरस्य मायिन इन्द्रो व्यास्यच्चकृवाँ ऋजिश्वना ॥
स्वर रहित पद पाठवि । सूर्यः । मध्ये । अमुचत् । रथम् । दिवः । विदत् । दासाय । प्रतिऽमानम् । आर्यः । दृळ्हानि । पिप्रोः । असुरस्य । मायिनः । इन्द्रः । वि । आस्यत् । चकृऽवान् । ऋजिश्वना ॥ १०.१३८.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 138; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(दासाय) कर्मों का क्षय करनेवाले मेघ के लिए या दुष्ट शत्रु के लिए (प्रतिमानम्-आर्यः) श्रेष्ठ कार्यविधायक विद्युत् अग्नि या राजा प्रतिकार-प्रहार को (विदत्) प्राप्त करता है-देता है, तब (दिवः-मध्ये) आकाश के मध्य में (सूर्यः-रथम्-वि-अमुचत्) सूर्य अपने रमणमण्डल को स्थापित करता है या ज्ञानसूर्य ज्ञानसदन में ज्ञानप्रवाह को छोड़ता है (पिप्रोः-मायिनः) उदरम्भर-जल से अपने उदर को भरे हुए मेघ के या दूसरे के भोजन से भरे हुए दुष्टजन को (इन्द्रः-ऋजिश्वना) विद्युदग्नि या राजा प्रसिद्ध व्यापनबल से (चकृवान् दृढानि-वि आस्यत्) स्ववश में करता हुआ दृढ़ बलों को विशेषरूप से फेंकता है, उन्हें नि:सत्त्व बनाता है ॥३॥
भावार्थ
कर्मोपक्षय करनेवाले मेघ के लिए या दुष्ट शत्रु के लिए प्रगतिशील विद्युदग्नि या श्रेष्ठ राजा प्रतिकारूप में प्रहार किया करता है, तब सूर्य आकाश में अपने प्रकाशमण्डल को प्रकाशित करता है तथा विद्यासूर्य विद्वान् ज्ञान का प्रसार करता है, जल से भरा मेघ जल बरसाता है, दूसरे के भोजन से भरे पेट दुष्ट मनुष्य का पतन होता है, विद्युत् या राजा मेघ या दुष्टजनों के बलों को नि:सत्त्व कर देता है ॥३॥
विषय
द्युलोक के मध्य में 'सूर्य रथ विमोचन'
पदार्थ
[१] (सूर्य:) = ज्ञान से सूर्य की तरह चमकनेवाला यह पुरुष (दिवः मध्ये) = प्रकाश के मध्य में (रथम्) = अपने इस शरीर रथ को (वि अमुचत्) = खोल देता है । अर्थात् ज्ञान में स्थिर हो जाता है T स्वाध्याय के लिए बैठता है तो सब इन्द्रियों की गतियों को इधर-उधर से रोककर पूर्ण एकाग्रता के साथ वहाँ स्थिर होकर अध्ययन में प्रवृत्त रहता है । इस प्रकार स्वाध्याय में प्रवृत्त (आर्यः) = यह श्रेष्ठ व्यक्ति (दासाय) = अपने नाश करनेवाले वासनारूप शत्रु 'वृत्र' के लिए (प्रतिमानं विदत्) = मुकाबिला करनेवाले योद्धा को प्राप्त करता है ज्ञान की प्रचण्ड रश्मियाँ वृत्त का दहन कर देती हैं। [२] यह (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (पिप्रोः) = अपना ही निरन्तर पूरण करनेवाले, कभी न रजनेवाले [महाशनः ] (असुरस्य) = अपने ही मुख में निरन्तर आहुति देनेवाले (मायिनः) = अत्यन्त मायावी, आकर्षक रूपवाले वासनारूप शत्रु के दृढानि दृढ़भी किलों को (व्यास्यत्) = [ असु क्षेपणे] सुदूर फेंक देता है, विनष्ट कर देता है। इन आसुरभावों को समाप्त करके यह (ऋजिश्वना चकृवान्) = [ऋजुश्वि] ऋजु मार्ग से गतिवाले के साथ ही अपनी मैत्री करता है, अर्थात् यह स्वयं भी अत्यन्त सरल मार्ग से सदा चलनेवाला बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम निरन्तर स्वाध्याय से ज्ञान को बढ़ाकर वासना को विनष्ट करें। सदा सरल मार्ग से चलें।
विषय
भौतिक जगत् में सूर्य और विद्युत् के अनेक कर्म। तत्सदृश तेजस्वी पुरुष के कर्त्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
(सूर्यः) सूर्य (दिवः मध्ये) आकाश के मध्य में (रथम् वि अमुचत्) अपने रमणीय तेज को विविध प्रकार से छोड़ता है। वह (आर्यः) श्रेष्ठ, तेजस्वी वा सञ्चालक वायु (दासाय) सेवकवत् जलदाता मेघ को (प्रति-मानं विदत्) अपना बल प्राप्त कराता है। और (इन्द्रः) मेघ के जल को छिन्न भिन्न करने वाली विद्युत् (ऋजिश्वना) सरल मार्ग में जाने वाले वायु सहित (चकृवान्) कार्य करता हुआ, (पिप्रोः) जल से भरे (मायिनः) कुहरे की सीमा वाले (असुरस्य) प्रकाश से रहित वा प्राणिमात्र को प्राण देने वाले मेघ के (दृढानि) दृढ़, कठिन हुए जलांशों को (वि आस्यत्) विविध प्रकार से भूमि पर फेंकता है। इसी प्रकार, (सूर्यः) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष, (दिवः मध्ये रथं अमुचत्) पृथिवी के बीच अपना रथ, या वेगवान् अश्व छोड़े और (दासाय प्रतिमानम् अविदत्) नाशकारी दुष्ट शत्रु के लिये पूरा प्रतिकार, प्रतिद्वन्द्वी बल का प्रयोग करे, (ऋजिश्वना चकृवान्) ऋजु, उत्तम रीति से सधे अश्वों वाले सैन्य से विजय करता हुआ (मायिनः पिप्रोः असुरस्य) मायावी, बली शत्रु के (दृढानि वि आस्यन्) दृढ़ दुर्गों को भी तोड़े वा (ऋजिश्वना पिप्रोः दृढानि चकृवान्) सधे सैन्य से शत्रु के दृढ़ स्थानों को नाश करता हुआ उसको विविध प्रकार से नाश करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरंग औरवः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ४, ६ पादनिचृज्जगती। २ निचृज्जगती। ३, ५ विराड् जगती। षडृच सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(दासाय प्रतिमानम्-आर्यः-विदत्) यदा दासाय कर्मोपक्षयित्रे मेघाय, दुष्टाय शत्रवे वा-आर्यः-श्रेष्ठकार्यविधायको विद्युदग्निः-राजा वा प्रतीकारं निपातनप्रहारं प्रापयत्-प्रापयति ददासीत्यर्थः “अन्तर्गतणिजर्थः’ तदा (दिवः-मध्ये सूर्यः-रथं वि-अमुचत्) आकाशस्य मध्ये सूर्यः स्वरमणमण्डलं विशिष्टतया प्रकाशते-स्थापयति, उच्चज्ञानसदने ज्ञानसूर्यः प्रकाशते वा (पिप्रोः-मायिनः-असुरस्य दृढानि) उदरम्भरस्य जलेन स्वोदरम्भरस्य मेघस्य-अन्यस्य भोजनेनोदरम्भरस्य दुष्टजनस्य वा “पिप्रुम्-उदरम्भरम्” [ऋ० १।१०१।२ दयानन्दः] ‘पृ धातोरौणादिकः कुः प्रत्ययः सन्वच्च’ मायामयस्य मेघस्य दुष्टस्य वा (इन्द्रः-ऋजिश्वना चकृवान्-दृढानि वि आस्यत्) विद्युदग्निः-राजा वा प्रसिद्धव्यापनबलेन स्ववशं कुर्वन् दृढानि बलानि निक्षपति निःसत्त्वानि करोति ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The sun in the midst of the regions of light releases the energy flood of its rays, creating thereby a complementary adversary for the mighty cloud which holds the wealth of vapours. Thus does Indra, omnipotent performer, controller of cosmic dynamics, break the formidable concentrations of the wondrous mighty collector’s hoard of living showers by the strike of the catalytic operation of its natural law.
मराठी (1)
भावार्थ
कर्मांचा क्षय करणाऱ्या मेघासाठी किंवा दुष्ट शत्रूसाठी प्रगतिशील विद्युत अग्नी किंवा श्रेष्ठ राजा प्रतिकार रूपात प्रहार करतो. तेव्हा सूर्य आकाशात आपल्या प्रकाशमंडलाला प्रकाशित करतो व विद्यासूर्य विद्वान ज्ञानाचा प्रसार करतो. जलाने भरलेला मेघ जलवर्षाव करतो. दुसऱ्याच्या जीवावर पोट भरणाऱ्या दुष्टाचे पतन होते. विद्युत किंवा राजा मेघ किंवा दुष्ट जनांचे बल नि:सत्त्व करतो.
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