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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 138 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 138/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अङ्ग औरवः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    ए॒ता त्या ते॒ श्रुत्या॑नि॒ केव॑ला॒ यदेक॒ एक॒मकृ॑णोरय॒ज्ञम् । मा॒सां वि॒धान॑मदधा॒ अधि॒ द्यवि॒ त्वया॒ विभि॑न्नं भरति प्र॒धिं पि॒ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ता । त्या । ते॒ । श्रुत्या॑नि । केव॑ला । यत् । एकः॑ । एक॑म् । अकृ॑णोः । अ॒य॒ज्ञम् । मा॒साम् । वि॒ऽधान॑म् । अ॒द॒धाः॒ । अधि॑ । द्यवि॑ । त्वया॑ । विऽभि॑न्नम् । भ॒र॒ति॒ । प्र॒ऽघि॑म् । पि॒ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एता त्या ते श्रुत्यानि केवला यदेक एकमकृणोरयज्ञम् । मासां विधानमदधा अधि द्यवि त्वया विभिन्नं भरति प्रधिं पिता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एता । त्या । ते । श्रुत्यानि । केवला । यत् । एकः । एकम् । अकृणोः । अयज्ञम् । मासाम् । विऽधानम् । अदधाः । अधि । द्यवि । त्वया । विऽभिन्नम् । भरति । प्रऽघिम् । पिता ॥ १०.१३८.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 138; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ते) हे राजन् ! तेरे (एता त्या) ये वे (श्रुत्यानि केवला) श्रोतव्य यश केवल है (यत्) कि (एकः) एक होता हुआ (एकम्-अयज्ञम्) एक यज्ञहीन नास्तिक को (अकृणोः) हिंसित करता है-मारता है, यह कार्य (मासां विधानम्) मासों के विधान निमित्त-मासों के बनानेवाले सूर्य की भाँति (द्यवि-अधि) द्युलोक में (अदधाः) अपने यश को धारण करता है (त्वया-विभिन्नं प्रधिम्) तुझसे विभिन्न प्रधान पिण्ड सूर्य को (पिता भरति) परमात्मा धारण करता है ॥६॥

    भावार्थ

    राजा का बड़ा यश होता है, जो दुष्ट नास्तिक शत्रु को मारता है, मानो राजा उस अपने यश को सूर्य के द्युलोक में स्थापित करता है, जिस सूर्य को परमात्मा द्युलोक में धारण करता है ॥६॥

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    विषय

    प्रभु के तीन महत्त्वपूर्ण कार्य

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (एता) = ये (त्या) = वे (ते) = आपके श्रुत्यानि अत्यन्त प्रसिद्ध कर्म हैं । केवला ये कर्म आपके ही हैं, दूसरे की शक्ति से होनेवाले ये कर्म नहीं। प्रथम तो यह (यत्) = कि (एकः) = अकेले ही आप (एकम्) = इस अद्वितीय शक्तिशाली (अयज्ञम्) = यज्ञ की भावना से शून्य आसुरभाव को [= वासना को ] (अकृणोः) = हिंसित करते हैं । प्रभु कृपा से ही कामवासना नष्ट होती है, वह कामवासना जो कि अत्यन्त प्रबल है तथा यज्ञादि सब उत्तम कर्मों को नष्ट करनेवाली है [महाशन: महापाप्मा] । [२] आप (अधिद्यवि) = हमारे मस्तिष्क रूप द्युलोक में उस ज्ञान सूर्य को (अदधाः) = स्थापित करते हैं जो कि (मासाम्) = ameesheenents का, माप-तोल का (विधानम्) = करनेवाला है । अर्थात् आप उस ज्ञान को देते हैं जिससे कि हम सब कार्यों को माप-तोलकर करनेवाले होते हैं। [३] (त्वया) = आपकी सहायता से (विभिन्नम्) = टूटी हुई (प्रधिम्) = परिधि व मर्यादा को (पिता) = रक्षण की वृत्तिवाला पुरुष भरति फिर से ठीक कर लेता है। प्रभु का उपासक टूटी हुई मर्यादाओं का पुनः दृढ़ता से पालन करने का ध्यान करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के तीन महत्त्वपूर्ण कार्य हैं- [क] प्रबल वासना को दग्ध करना, [ख] ज्ञान को देना जिससे कि हम युक्तचेष्ट बनें, [ग] टूटी हुई मर्यादाओं को फिर से ठीक पालन करने की शक्ति देना । इस प्रकार 'वासनाओं को दग्ध करनेवाला, युक्तचेष्ट, मर्यादित जीवनवाला पुरुष' 'विश्वावसु' बनते हैं, सब तरह से उत्कृष्ट जीवनवाला। यह 'देवगन्धर्व' होता है, दिव्यवृत्तिवाला ज्ञानी। इसका चित्रण करते हुए कहते हैं कि-

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    विषय

    शत्रुनाश के कार्य में सेनापति के कर्त्तव्य। पक्षान्तर में परमेश्वर के महान् कार्य।

    भावार्थ

    हे सेनापते ! स्वामिन् ! (एता) ये (त्या) नाना (केवला) केवल, विशुद्ध (ते) तेरे (श्रुत्या) श्रवण करने योग्य कर्म हैं (यत्) कि तू (एकः) एक अकेला अद्वितीय होकर भी (एकम् अयज्ञम्) दान, सत्संगादि से रहित, न कर देने, न सन्धि करने वाले एक एक शत्रु को (अकृणोः) विनाश कर। (अधि द्यवि) पृथिवी पर (मासाम् विधानम्) मासों का विधान (अदधाः) कर, वर्ष के समस्त मासों की नियत व्यवस्था कर। और (विभिन्नं प्रधिम्) विच्छिन्न या टूटे हुए चक्र को भी (पिता) प्रजा का पालक जन (त्वया भरति) तेरे बल से धारण करता और चलाता है। (२) इसी प्रकार परमेश्वर के ये महान् कार्य श्रुति, वेद द्वारा विहित हैं कि वह (एकः) एक अद्वितीय होकर भी (अयज्ञम्) असम्बद्ध जगत् को (एकम् अकृणोः) एक, सुसम्बद्ध करता है। वह (द्यवि) आकाश में (मासां विधानम् अदधाः) मासों के कर्त्ता सूर्य और चन्द्र को बनाता है, धारण करता है, उसके बल से ही सूर्य (भिन्नं) भिन्न २ (प्रधिम्) क्रान्तिवृत्त पर (वि भरति = विहरति) विचरता है। इसी से अयन, ऋतु आदि करता है। इति षड्विंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरंग औरवः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ४, ६ पादनिचृज्जगती। २ निचृज्जगती। ३, ५ विराड् जगती। षडृच सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ते) हे राजन् ! तव (एता त्या श्रुत्यानि केवला) इमानि तानि श्रोतव्यानि यशस्यानि कर्माणि केवलानि सन्ति (यत्) यत् (एकः) त्वमेकः सन् (एकम्-अयज्ञम्-अकृणोः) अन्यं यज्ञहीनं नास्तिकं शत्रुं हंसि (मासां विधानम्) मासानाम् “पद्दन्नोमास्” [अष्टा० ६।१।६१] विधाननिमित्तं सूर्यमिव (द्यवि-अधि) द्युलोके (अदधाः) स्वयशो धारयसि (त्वया विभिन्नं प्रधिम्) त्वत्तः “पञ्चमीस्थाने तृतीया व्यत्ययेन” विभिन्नं प्रधानं पिण्डं सूर्यं (पिता भरति) पालकः परमात्मा धारयति ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, these are the celebrated deeds of yours, lord absolute, who alone by yourself fix every selfish uncreative power. You hold and sustain the sun in heaven, and the sun, inspirer and promoter of life on earth, regulates the months and seasons of the year and abides by the path carved out by you in space.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    दुष्ट शत्रूला (नास्तिक) मारणे हे राजाचे मोठे यश असते. जणू राजा त्या आपल्या यशाला सूर्याच्या द्युलोकात स्थापित करतो. त्या सूर्याला परमात्मा द्युलोकात धारण करतो. ॥६॥

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