ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 147/ मन्त्र 2
ऋषिः - सुवेदाः शैरीषिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिगार्चीजगती
स्वरः - निषादः
त्वं मा॒याभि॑रनवद्य मा॒यिनं॑ श्रवस्य॒ता मन॑सा वृ॒त्रम॑र्दयः । त्वामिन्नरो॑ वृणते॒ गवि॑ष्टिषु॒ त्वां विश्वा॑सु॒ हव्या॒स्विष्टि॑षु ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । मा॒याभिः॑ । अ॒न॒व॒द्य॒ । मा॒यिन॑म् । श्र॒व॒स्य॒ता । मन॑सा । वृ॒त्रम् । अ॒र्द॒य॒ । त्वाम् । इत् । नरः॑ । वृ॒ण॒ते॒ । गवि॑ष्टिषु । त्वाम् । विश्वा॑सु । हव्या॑सु । इष्टि॑षु ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं मायाभिरनवद्य मायिनं श्रवस्यता मनसा वृत्रमर्दयः । त्वामिन्नरो वृणते गविष्टिषु त्वां विश्वासु हव्यास्विष्टिषु ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । मायाभिः । अनवद्य । मायिनम् । श्रवस्यता । मनसा । वृत्रम् । अर्दय । त्वाम् । इत् । नरः । वृणते । गविष्टिषु । त्वाम् । विश्वासु । हव्यासु । इष्टिषु ॥ १०.१४७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 147; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अनवद्य) हे अनिन्दनीय परमात्मन् ! (त्वम्) तू (मायिनं वृत्रम्) अन्धकार से सूर्य को छिपानेवाले मेघ को (श्रवस्यता मनसा) प्राणियों के लिए अन्न की इच्छा रखते हुए मन से (मायाभिः) बुद्धि-प्रक्रिया विद्युत् के द्वारा (अर्दयः) नष्ट करता है (त्वाम्-इत्) तुझे ही (नरः) मनुष्य (गविष्टिषु) सुखविशेष की इच्छा के प्रसङ्गों में तथा (त्वाम्) तुझे (विश्वासु हव्यासु-इष्टिषु) सारी होतव्य-होमने योग्य यजनक्रियाओं में (वृणते) स्तुति करते हैं-स्तुति में लाते हैं ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा अनिन्दनीय है, उसके प्रति नास्तिकभाव नहीं रखना चाहिये, वह प्राणियों के लिए अन्न की उत्पत्ति हो, वृद्धि हो, इसलिए मेघ का हनन करता है जल बरसाने के लिए, वह अध्यात्मसुखविशेष की प्राप्ति की इच्छावाले अध्यात्मप्रसङ्गों में तथा होमने योग्य जनव्यवहारों में मनुष्य उसकी स्तुति करते हैं या मनुष्यों को उसकी स्तुति करनी चाहिये ॥२॥
विषय
प्रभु का वरण
पदार्थ
[२] हे (अनवद्य) = सब अप्रशस्तों से रहित, पूर्ण शुद्ध परमात्मन् ! (त्वम्) = आप (मायाभिः) = प्रज्ञानों के द्वारा (मायिनं वृत्रम्) = इस प्रबल माया [अवञ्चन] वाले कामदेव को, ज्ञान की आवरणभूत वासना को (श्रवस्यता मनसा) = ज्ञान की कामनावाले मन के द्वारा (अर्दयः) = पीड़ित करते हैं । प्रभु हमें 'ज्ञान की कामनावाला मन' देते हैं तथा वेद के शब्दों में ज्ञानों को प्राप्त कराते हैं। इस प्रकार प्रभु हमारी वासना का विनाश करते हैं। धर्म के दस लक्षणों में 'श्रवस्यन् मन' 'धी' शब्द से कहा गया है और 'माया' के लिये वहाँ ज्ञान शब्द का प्रयोग हुआ है। इस धी और ज्ञान का मेल होने पर वासना का विनाश निश्चित है । [२] (नरः) = वासना को विनष्ट करके आगे बढ़नेवाले ये लोग (इत्) = निश्चय से (गविष्टिषु) = ज्ञानयज्ञों में (त्वां वृणते) = आपका वरण करते हैं । (विश्वासु) = सब (हव्यासु इष्टिषु) = आहूत्य प्रार्थनीय याग क्रियाओं में (त्वाम्) = आपका ही वरण करते हैं । ज्ञानयज्ञों में तथा अग्निहोत्रादि देवयज्ञों में लगनेवाले पुरुष प्रभु प्राप्ति के अधिकारी बनते हैं। प्रकृति का वरण करनेवाले पुरुषों के लिये ये ज्ञानयज्ञ व देवयज्ञ रुचिकर नहीं होते ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमें बुद्धि व विद्या प्राप्त कराके वासना से दूर करते हैं। ज्ञान यज्ञों व देव यज्ञों में प्रवृत्त होकर हम प्रभु का वरण करते हैं, प्रकृति में नहीं फँसते ।
विषय
प्रभु के मेघ और विद्युत् के तुल्य कृपालु और उग्ररूप।
भावार्थ
हे प्रभो ! हे (अनवद्य) कभी निन्दा न करने योग्य, हे सर्वदा सर्वस्तुत्य ! (त्वं) तू (श्रवस्यता मनसा) अन्न को उत्पन्न करने की इच्छा वाले मन से, ज्ञान से वा बल से, (मायिनं वृत्रम्) गर्जना करते हुए मेघ को (मायाभिः) गर्जना करने वाली नाना विद्युतों से (अर्दयः) ताड़ित करता है। (नरः) समस्त मनुष्य (गविष्टिषु) भूमियों और किरणों के प्राप्त करने के लिये (त्वाम् इत् वृणते) तुझ से ही याचना करते हैं। (हव्यासु विश्वासु इष्टिषु) समस्त आहुति देने योग्य यज्ञों में और अन्नोपयोगी या अन्नप्रद कामनाओं, विधि-विधानों, या कार्यों में भी (त्वां) मेघ सूर्यवत् तुझको (वृणते) वरण करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः सुवेदाः शैरीशिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १ विराट् जगती। २ आर्ची भुरिग् जगती। ३ जगती। ४ पादनिचृज्जगती। ५ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अनवद्य त्वम्) हे अनिन्दनीय परमात्मन् ! त्वं (मायिनं वृत्रम्) माया-अन्धकारः-सूर्यप्रकाशाच्छादकं कर्म वा विद्यते यस्य तं मायिनं मेघम् “मायाः-अन्धकाराद्या इव” [ऋ० १।३२।४ दयानन्दः] “मायिनाम्-येषां....सूर्यप्रकाशाच्छादकं बहुविधं कर्म विद्यते तेषाम्” [ऋ० १।३२।४ दयानन्दः] (श्रवस्यता मनसा) प्राणिभ्योऽन्नमिच्छता मनसा “श्रवः-अन्ननाम” [निघ० २।७] इच्छार्थे क्यच् ‘छान्दसः परेच्छायां च’ (मायाभिः) प्रज्ञा-प्रक्रियाविद्युद्भिः (अर्दयः) अर्दयसि नाशयसि “अर्द हिंसायाम्” [चुरादि०] (त्वाम्-इत्) त्वामेव (नरः) मनुष्याः (गविष्टिषु) सुखविशेषेच्छाप्रसङ्गेषु “गविष्टौ गोः सुखविशेषस्येष्टाविच्छायां सत्याम्” [यजु० ३४।२३ दयानन्दः] त्वां विश्वासु (हव्यासु-इष्टिषु) त्वां सर्वासु होतव्यासु यजनक्रियासु (वृणते) सम्भजन्ते ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Irreproachable power, with your mind and desire to produce more food and energy, by your mighty forces you break open the treasure-holds of mysterious hidden energies of nature. Leading lights of humanity take to you in their search for rays of light, and in all their cherished programmes of common good they honour you as the source of success.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा अनिंदनीय आहे. त्याच्याबद्दल नास्तिक भाव ठेवता कामा नये. प्राण्यांसाठी अन्नाची उत्पत्ती व्हावी, वृद्धी व्हावी, जलवृष्टी व्हावी यासाठी तो मेघाचे हनन करतो. अध्यात्मसुख विशेष प्राप्तीची इच्छा करणाऱ्या अध्यात्मप्रसंगी व होम करण्यायोग्य व्यवहारात माणसे त्याची स्तुती करतात किंवा माणसांनी त्याची स्तुती केली पाहिजे. ॥२॥
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