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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 147 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 147/ मन्त्र 5
    ऋषिः - सुवेदाः शैरीषिः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वं शर्धा॑य महि॒ना गृ॑णा॒न उ॒रु कृ॑धि मघवञ्छ॒ग्धि रा॒यः । त्वं नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो॒ न मा॒यी पि॒त्वो न द॑स्म दयसे विभ॒क्ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । शर्धा॑य । म॒हि॒ना । गृ॒णा॒नः । उ॒रु । कृ॒धि॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । श॒ग्धि । रा॒यः । त्वम् । नः॒ । मि॒त्रः । वरु॑णः । न । मा॒यी । पि॒त्वः । न । द॒स्म॒ । द॒य॒से॒ । वि॒ऽभ॒क्ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं शर्धाय महिना गृणान उरु कृधि मघवञ्छग्धि रायः । त्वं नो मित्रो वरुणो न मायी पित्वो न दस्म दयसे विभक्ता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । शर्धाय । महिना । गृणानः । उरु । कृधि । मघऽवन् । शग्धि । रायः । त्वम् । नः । मित्रः । वरुणः । न । मायी । पित्वः । न । दस्म । दयसे । विऽभक्ता ॥ १०.१४७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 147; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (दस्म) हे दर्शनीय (मघवन्) ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (त्वम्) तू (महिना) महान् स्तुतिसमूह से (गृणानः) स्तुत किया जाता हुआ-स्तुति में लाया जाता हुआ (शर्धाय) बल को हमारे में (उरु कृधि) बहुत कर (रायः) धनों को (शग्धि) दे (त्वम्) तू (नः) हमारा (न) सम्प्रति-इस समय (मित्रः) प्रेरक प्रेरणा करनेवाला (वरुणः) वरनेवाला-अपनानेवाला (मायी) प्रज्ञावान् है (पित्वः) अन्न का (विभक्ता) बाँटनेवाला (न दयसे) सम्प्रति देता है ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा दर्शनीय है और ऐश्वर्यशाली है, बहुत स्तुति करने योग्य है, बलदायक है, धनों को प्रदान करनेवाला है, संसार में कर्म करने के लिए प्रेरणा करनेवाला और मोक्ष के लिए वरनेवाला यथायोग्य भोज्य पदार्थ को देनेवाला है ॥५॥

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    विषय

    शक्ति-धन- अन्न

    पदार्थ

    [१] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यवन् प्रभो ! (महिना गृणानः त्वम्) = खूब ही स्तुति किये जाते हुए आप (शर्धाय) = बल के लिये हमें (उरु) = खूब (कृधि) = करिये। अर्थात् हम खूब ही आपका स्तवन करें और खूब ही शक्ति को प्राप्त करें। आप (रायः शग्धि) = हमारे लिये धनों को भी दीजिये । [२] हे (दस्म) = हमारे सब कष्टों का उपक्षय करनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (नः) = हमारे लिये (मित्रः वरुणः न) = मित्र और वरुम के समान होते हुए, अर्थात् हमें मृत्यु व रोगों से बचाते हुए [प्रमीते: त्रायते इति मित्रः ] तथा हमारे से द्वेषादि को दूर करते हुए [वारयति इति वरुणः ], (मायी) = सम्पूर्ण माया के स्वामी होते हुए, (न) = [ संप्रति सा० ] अब (विभक्ता) = सब धनों का उचित विभाग करनेवाले होते हुए (पित्व: दयसे) = पालक अन्न को देते हैं। आपकी कृपा से हमें उन अन्नों की प्राप्ति होती है, जो कि हमारे रक्षण के लिये आवश्यक हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- उपासित प्रभु हमें शक्ति देते हैं, धन देते हैं तथा शरीर रक्षा के लिये आवश्यक अन्नों को प्राप्त कराते हैं। सम्पूर्ण सूक्त इस भावना पर बल देता है कि हम श्रद्धापूर्वक प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमें सब आवश्यक चीजें प्राप्त करायेंगे। प्रभु की उपासना से अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाला यह 'पृथु' बनता है [प्रथ विस्तारे] । गतिशील, विचारशील व उपासना की वृत्तिवाला होने से 'वैन्य' कहलाता है [वेन् to go, to reflect, to worship] । यह कहता है-

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    विषय

    ऐश्वर्यवान् पुरुष के कर्त्तव्यों का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! (त्वं) तू (शर्धाय) बल के प्राप्त करने के लिये (महिना गृणानः) बड़े भारी ज्ञानवान् पुरुष से उपदेश या वर्णन किया जाकर (उरु कृधि) बहुत धन उत्पन्न कर और हमें (रायः शग्धि) अनेक धन देने में समर्थ हो। (त्वं नः मित्रः) तू हमारा मित्र, स्नेही, तू हमें मरण से बचाने वाला है, (वरुणः न मायी), तु ही सर्वश्रेष्ठ, ज्ञान और बुद्धि से युक्त होकर हे (दस्म) दुःखों संकटों के काटने हारे ! हे (दस्म) दर्शनीय ! हे कर्मशक्तियुक्त ! तू (नः पित्वः सं भक्ता) हमें अन्नों का देने वाला होकर (दयसे) हमारी रक्षा करता, हम पर कृपा करता है। इति पञ्चमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः सुवेदाः शैरीशिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १ विराट् जगती। २ आर्ची भुरिग् जगती। ३ जगती। ४ पादनिचृज्जगती। ५ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (दस्म मघवन्) हे दर्शनीय ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (त्वं महिना गृणानः) त्वं महता स्तुतिसमूहेन स्तूयमानः, ‘कर्मणि कर्तृप्रत्ययः’ (शर्धाय-उरु कृधि) शर्धं-बलम् “शर्धो बलनाम” [निघ० २।९] ‘द्वितीयार्थे चतुर्थी व्यत्ययेन’ अस्मासु बलं बहु कुरु (रायः-शग्धि) धनानि दत्स्व “शग्धि-देहि” [ऋ० ४।२१।१० दयानन्दः] (त्वं नः) त्वमस्माकं (न मित्रः-वरुणः) सम्प्रति प्रेरयिता वरयिता (मायी) प्रज्ञावान् चासि (पित्वः-विभक्ता न दयसे) अन्नस्य वितरणकर्त्ता-सम्प्रति-अन्नं ददासि ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord giver and creator of glory, pray let us rise and expand in the field of knowledge and action. Give us wealth and power of a high order of nobility. You are Mitra and Varuna for us, friend and just guide, giver and commander of wondrous capability, noble and blissful, and one with us, you give us food for body, mind and soul for the individual and the human community.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा दर्शनीय व ऐश्वर्यशाली आहे. अत्यंत स्तुती करण्यायोग्य आहे, बलदायक आहे. धन प्रदान करणारा आहे. जगात कर्म करण्यासाठी प्रेरणा देणारा व मोक्षासाठी वरणारा यथायोग्य भोग्य पदार्थ देणारा आहे. ॥५॥

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