ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 158/ मन्त्र 4
चक्षु॑र्नो धेहि॒ चक्षु॑षे॒ चक्षु॑र्वि॒ख्यै त॒नूभ्य॑: । सं चे॒दं वि च॑ पश्येम ॥
स्वर सहित पद पाठचक्षुः॑ । नः॒ । धे॒हि॒ । चक्षु॑षे । चक्षुः॑ । वि॒ऽख्यै । त॒नूभ्यः॑ । सम् । च॒ । इ॒दम् । वि । च॒ । प॒श्ये॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
चक्षुर्नो धेहि चक्षुषे चक्षुर्विख्यै तनूभ्य: । सं चेदं वि च पश्येम ॥
स्वर रहित पद पाठचक्षुः । नः । धेहि । चक्षुषे । चक्षुः । विऽख्यै । तनूभ्यः । सम् । च । इदम् । वि । च । पश्येम ॥ १०.१५८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 158; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(नः चक्षुषे) मेरी आँख के लिये (चक्षुः-धेहिः) दर्शनशक्ति धारण करा (तनूभ्यः-विख्यै) मेरी तनुसम्बन्धी प्राणियों के विशिष्ट दर्शनसाधन के लिये दर्शनशक्ति धारण करा (इदं संपश्येम च विपश्येम च) सब सम्यक् देखें, विशिष्ट देखें ॥४॥
भावार्थ
मानव की आँख में दर्शनशक्ति रहे तथा अन्यों के नेत्रों में भी दर्शनशक्ति रहे, पास भी देखें-दूर भी देखें ॥४॥
विषय
सन्दर्शन- विदर्शन
पदार्थ
[१] (नः) = हमारी (चक्षुषे) = आँख के लिये (चक्षुः धेहि) = प्रकाशक तेज को धारण कीजिये । (विख्यै) = विशेषरूप से प्रकाशन के लिये और (तनूभ्यः) = हमारे शरीरों की शक्ति के विस्तार के लिये (चक्षुः) = प्रकाशक तेज को धारण करिये। [२] हमें वह दृष्टिशक्ति दीजिये जिससे हम (इदम्) = इस जगत् को (संपश्येम) = समुदित रूप में देख सकें, (च) = और (विपश्येम) = इसके अंगों को अलग-अलग भी अच्छी प्रकार देख सकें। हमारा 'सन्दर्शन व विदर्शन' बड़ा ठीक प्रकार से चले ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रकाशक तेज को प्राप्त करके अपनी आँखों से इस संसार को समष्टि व व्यष्टि के रूप में सम्यक् देखनेवाले हों। हम समाज व व्यक्ति दोनों का ध्यान करनेवाले हों। जहाँ लोकहित में प्रवृत्त हों वहां अपना धारण भी ठीक प्रकार से करें ।
विषय
सर्वोत्पादक सविता प्रभु, उससे रक्षा, प्रकाश, चक्षु आदि प्राप्ति की प्रार्थना।
भावार्थ
हे प्रभो ! हे सूर्य ! (नः चक्षुषे चक्षुः घेहि) हमारे नेत्र के लिये प्रकाश दे। (नः तनूभ्यः विख्यै चक्षुः धेहि) तू हमारे शरीरों की विशेष कान्ति या दर्शन के लिये प्रकाश दे। जिससे (इदं) इस जगत् को हम (सं पश्येम च वि पश्येम च) अच्छी प्रकार देखें और विविध प्रकार से देखें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिश्चक्षुः सौर्यः॥ सूर्यो देवता॥ छन्द:- १ आर्ची स्वराड् गायत्री। २ स्वराड् गायत्री। ३ गायत्री। ४ निचृद् गायत्री। ५ विराड़ गायत्री॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(नः-चक्षुषे-चक्षुः-धेहि) परमात्मन् मम “व्यत्ययेन बहुवचनम्” नेत्राय दर्शनशक्तिं धारय (तनूभ्यः-विख्यै चक्षुः) मम तनुसम्बन्धिभ्यो विशिष्टदर्शनसाधनाय नेत्राय दर्शनशक्तिं धारय (इदं संपश्येम च विपश्येम च) वयं सर्वे सम्यक् पश्येम च विशिष्टं पश्येम च ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Give us the light for vision outer and inner, give us the light to see the past and future for ourselves and our children, give us the vision to see this life and the world as a whole as well as in parts integrated in the essence.
मराठी (1)
भावार्थ
मानवी नेत्रात दर्शनशक्ती असावी व इतरांच्या नेत्रातही दर्शनशक्ती असावी. दूर व जवळचेही पाहता यावे. ॥४॥
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