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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 161 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 161/ मन्त्र 5
    ऋषिः - यक्ष्मनाशनः प्राजापत्यः देवता - राजयक्ष्मघ्नम् छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आहा॑र्षं॒ त्वावि॑दं त्वा॒ पुन॒रागा॑: पुनर्नव । सर्वा॑ङ्ग॒ सर्वं॑ ते॒ चक्षु॒: सर्व॒मायु॑श्च तेऽविदम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒हा॒र्ष॒म् । त्वा॒ । अवि॑दम् । त्वा॒ । पुनः॑ । आ । अ॒गाः॒ । पु॒नः॒ऽन॒व॒ । सर्व॑ऽअङ्ग । सर्व॑म् । ते॒ । चक्षुः॑ । सर्व॑म् । आयुः॑ । च॒ । ते॒ । अ॒वि॒द॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आहार्षं त्वाविदं त्वा पुनरागा: पुनर्नव । सर्वाङ्ग सर्वं ते चक्षु: सर्वमायुश्च तेऽविदम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अहार्षम् । त्वा । अविदम् । त्वा । पुनः । आ । अगाः । पुनःऽनव । सर्वऽअङ्ग । सर्वम् । ते । चक्षुः । सर्वम् । आयुः । च । ते । अविदम् ॥ १०.१६१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 161; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (त्वा-आहार्षम्) हे रोगी ! तुझे रोग से छुड़ा लाया हूँ (त्वा-अविदम्) तुझे स्वास्थ्य के लिये प्राप्त कर लिया है (पुनः आगाः) फिर जीवन को प्राप्त कर (पुनर्नव सर्वाङ्ग) पुनर्नव जीवनवाले सर्वाङ्गोंवाले ! (ते चक्षुः सर्वम्) तेरी आँख सब ठीक है (च) और (सर्वम्-आयुः-ते अविदम्) तेरी सब-पूर्ण आयु प्राप्त कर लिया है युक्त चिकित्सक ने ॥५॥

    भावार्थ

    रोगी अच्छे वैद्य द्वारा चिकित्सा होने पर रोग से मुक्त होकर नवजीवन सर्वाङ्गपूर्ण हो पूरी आयु को प्राप्त हो जाता है ॥५॥

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    विषय

    सर्वाङ्ग [पूर्ण स्वस्थ]

    पदार्थ

    [१] रोगी को सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि (त्वा आहार्षम्) = तुझे रोग से बाहिर ले आता हूँ और इस प्रकार (त्वा अविदम्) = तुझे प्राप्त करता हूँ । (पुनः आगा:) = तू फिर से हमें प्राप्त हो । [२] हे (पुनर्नव) = फिर से स्वस्थ होकर नवीन जीवन को प्राप्त हुए हुए पुरुष ! सर्वाङ्ग हे सम्पूर्ण अंगोंवाले पुरुष ! (ते) = तेरे लिये (सर्वं चक्षुः) = पूर्ण स्वस्थ (दृष्टि च) = और (ते) = तेरे लिये (सर्वं आयुः) = पूर्ण जीवन (अविदम्) = मैंने प्राप्त कराया है।

    भावार्थ

    भावार्थ-हम नीरोग होकर ठीक दृष्टि को व स्वस्थ अविकृत अंगों को प्राप्त करते हुए पूर्ण जीवन को प्राप्त करें । अग्निहोत्र में आहुत हविर्द्रव्यों के द्वारा नीरोगता प्राप्ति का सूक्त में वर्णन है । वे रोगकृमि अपने रमण के लिये हमारा क्षय करने से 'रक्षस्' हैं। इनको नष्ट करनेवाला 'रक्षोहा' अगले सूक्त का ऋषि है। यह सब रोगों व राक्षसीभावों से ऊपर उठने के कारण ब्रह्म को प्राप्त होता है, सो 'ब्राह्मः कहलाता है । इसकी प्रार्थना है-

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    विषय

    रोगी को रोगमोचन, दीर्घ जीवन दान को प्राप्त कराने का उपदेश, वैद्य के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे रोगी ! (त्वा आहार्षम्) तुझे मैं रोग से दूर करूं। (त्वा अविदं) तुझे मैं प्राप्त करूं। (पुनः आगाः) तू पुनः आजा। हे (पुनः-नव) पुन नये जीवन को धारण करने वाले ! हे (सर्व-अंग) समस्त अंगों से युक्त ! (ते सर्व चक्षुः) तेरे समस्त ज्ञान देखने वाली आंख आदि इन्द्रियें, और (सर्वं च आयुः) सम्पूर्ण आयु (ते अविदम्) तुझे प्राप्त कराऊं। इत्येकोनविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्यक्ष्मनाशनः प्राजापत्यः ॥ देवता—राजयक्ष्मध्नम्॥ छन्द:- १, ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। २ त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप। ५ निचृदनुष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (त्वा-आहार्षम्) हे रुग्ण ! त्वां रोगादानयामि (त्वा-अविदम्) त्वां स्वास्थ्याय प्राप्नोमि (पुनः आगाः) पुनरागच्छ (पुनः-नव) हे पुनर्नवजीवन्युक्तो (सर्वाङ्ग) सर्वाङ्ग  !  (ते चक्षुः सर्वम्) तव चक्षुः सर्वं तथैवास्तु (च) तथा (सर्वम्-आयुः-ते-अविदम्) तव सर्वमायुरपि प्राप्नोमि ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I have delivered you from death and disease, brought you back to life. Live life again, renewed, refreshed again, healthy over all in all limbs, organs and systems function. I have brought back your vision and understanding in full, your life and age in full.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    चांगल्या वैद्याकडून चिकित्सा झाल्यास रोगी रोगमुक्त होऊन सर्वाङ्ग नवजीवन प्राप्त करून संपूर्ण आयू प्राप्त करतो. ॥५॥

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