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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 168 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 168/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अनिलो वातायनः देवता - वायु: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒न्तरि॑क्षे प॒थिभि॒रीय॑मानो॒ न नि वि॑शते कत॒मच्च॒नाह॑: । अ॒पां सखा॑ प्रथम॒जा ऋ॒तावा॒ क्व॑ स्विज्जा॒तः कुत॒ आ ब॑भूव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्तरि॑क्षे । प॒थिऽभिः । ईय॑मानः । न । नि । वि॒श॒ते॒ । क॒त॒मत् । च॒न । अह॒रिति॑ । अ॒पाम् । सखा॑ । प्र॒थ॒म॒ऽजाः । ऋ॒तऽवा॑ । क्व॑ । स्वि॒त् । जा॒तः । कुतः॑ । आ । ब॒भू॒व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्तरिक्षे पथिभिरीयमानो न नि विशते कतमच्चनाह: । अपां सखा प्रथमजा ऋतावा क्व स्विज्जातः कुत आ बभूव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्तरिक्षे । पथिऽभिः । ईयमानः । न । नि । विशते । कतमत् । चन । अहरिति । अपाम् । सखा । प्रथमऽजाः । ऋतऽवा । क्व । स्वित् । जातः । कुतः । आ । बभूव ॥ १०.१६८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 168; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (अन्तरिक्षे) आकाश में वर्त्तमान (पथिभिः) मार्गों से (ईयानः) गति करता हुआ (कतमत्-चनः-अहः) किसी दिन भी (न निविशते) नहीं ठहरता है (अपां सखा) आकाशीय सूक्ष्म जलों का साथी (प्रथमजाः) प्रथम प्रसिद्ध (ऋतावा) जलमय-जलगर्भित (क्व स्वित्-जातः) कहीं भी दूर स्थान में प्रसिद्ध हुआ (कुतः-आबभूव) किसी भी देश से फैला हुआ आता है ॥३॥

    भावार्थ

    वात-प्रचण्ड वायु या अन्धड़ आकाश में गतिमार्गों से गति करता हुआ कभी नहीं ठहरता है, चलता रहता है, उसके साथ जलवर्षा होती है, यह कहीं से उठता है और कहीं-कहीं होकर घूमता है, यह वर्षा के लिए हितकर है ॥३॥

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    विषय

    रहस्यमय प्राण

    पदार्थ

    [१] द्युलोक शरीर में मस्तिष्क है, पृथिवी यह स्थूल शरीर है। इनके बीच में हृदयान्तरिक्ष है । इस (अन्तरिक्षे) = हृदयान्तरिक्ष में (पथिभिः) = विविध नाड़ी रूप मार्गों से (ईयमानः) - गति करता हुआ यह प्राण (कतमच्चन अहः) = किसी भी दिन (न निविशते) = गति से उपराम नहीं होता। यह सदा चलता ही है । अन्य इन्द्रियाँ श्रान्त हो जाती हैं, पर यह कभी श्रान्त नहीं होता। [२] (अपां सखा) = [आप: रेतो भूत्वा ] यह रेतः कणरूप जलों का मित्र है, रेतःकणों की ऊर्ध्वगति इस प्राण के ही कारण होती है । (प्रथमजाः) = यह सब से प्रथम उत्पन्न होता है, 'स प्राणमसृजत्' इन प्रश्नोपनिषद् के शब्दों में सब से प्रथम कला प्राण ही है। (ऋतावा) = यह ऋत का अवन [रक्षण] करनेवाला है, सब ठीक चीजें प्राण के ही कारण होती हैं । प्राणशक्ति की कमी शरीर में सब विकृतियों का कारण बनती है । [३] यह प्राण (क्वस्वित् जातः) = कहाँ प्रादुर्भूत हो गया व (कुतः आबभूव) = कहाँ से प्रकट हो गया ? इसे सामान्यतः कोई जानता नहीं। 'यह शरीर में है' बस इतना ही स्पष्ट है । इस प्राण की महिमा दुर्ज्ञेय ही है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राण सतत गतिवाला है। रेतःकणों की ऊर्ध्वगति का साधक है शरीर में सब व्यवस्थाओं को ठीक रखता है । है रहस्यमय ।

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    विषय

    वायुवत् तेजस्वी राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    वायु जिस प्रकार (अन्तरिक्षे पथिभिः ईयते) अन्तरिक्ष में नाना मार्गों से जाता है, (कतमत् चन अहः न नि विशते) किसी दिन भी वह निश्चल होकर नहीं बैठता, वह (प्रथम-जाः) प्रथम प्रकट होकर (अपां सखा) मेघादि जलों का मित्र और (ऋता-वा) अन्न वा तेज से युक्त होकर (क्व स्वित् जातः) कहीं प्रकट होता है और (कुतः आ बभूव) कहीं से भी आता प्रतीत होता है। ठीक इसी प्रकार तेजस्वी राजा अन्तरिक्ष में नाना मार्गों से जावे किसी दिन निश्चल नहीं बैठे, (अपां सखा) आप्त विद्वानों, प्रजाओं का मित्र, (ऋतावा) तेजस्वी होता है वह किसी कुल में उत्पन्न होता है, कही २ से आकर प्रकट होता है। इसी प्रकार प्राणात्मा भी (अपां सखा) अन्य प्राणों का मित्र (ऋतावा) जल-अन्न का भोक्ता, वह कहां से उत्पन्न होता, कहां आता है यह अज्ञात है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरनिलो वातायनः॥ वायुर्देवता॥ छन्द:- १, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४ त्रिष्टुप्॥

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    मन्त्रार्थ

    (अन्तरिक्षे) आकाश में वर्तमान (पथिभिः) मार्गों से (ईयमानः) गति करता हुआ वात-अन्धड वायु (कतमत् चन-अहः) किसी एक दिन भी (न निविशते) नहीं ठहरता है (अपां सखा) आकाश में व्यापने वाले जलों का सखा है मित्र है - सहयोगी है- वृष्टिजलों को साथ लाने वाला है (प्रथमजाः-ऋतवा) आकाश में प्रथम प्रसिद्ध होने वाला जलवाला है- जलगर्भित "ऋतमुदकनाम" [निघ० १।१२] (क्व स्वित्-जातः) कहीं दूर स्थान में भी प्रसिद्ध हो जाता है (कुतः- आबभूव) कहां से कहीं से भी समय पर फैल जाता है ं ॥३॥

    टिप्पणी

    "समनं संग्राममिव एनं वायुं योषाः-अश्वयोषितो वडवा आगच्छन्ति” (सायणः) इत्यन्यथार्थः काल्पनिकः। "सत्यवान् यशवान् वा" (सायणः)

    विशेष

    ऋषिः-अनिलो वातायन: (अन-प्राण को यथेष्ट प्रेरित करनेवाला प्राणायामाभ्यासी वात ज्ञान का अयन आश्रय है जिसका ऐसा वैज्ञानिक अभ्यासी) देवता-वातः (अन्धड)

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अन्तरिक्षे) आकाशे वर्तमानः (पथिभिः) मार्गैः (ईयानः) गच्छन् (कतमत्-चन-अहः) कतमद्दिनमपि (न निविशते) न तिष्ठति (अपां सखा आकाशीयसूक्ष्मजलानां सखा (प्रथमजाः-ऋतावा) प्रथमः प्रसिद्धो जलमयो जलगर्भितः “ऋतमुदकनाम” [निघ० १।१२] (क्व स्वित्-जातः) कुत्रापि दूरस्थाने प्रसिद्धो भवसि (कुतः-आबभूव) कुतोऽपि प्रसृतो भवति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ever on the move by its own paths in the sky, the wind energy does not relent even for an instant. Friend and comrade of the waters, first born of nature after space, observing the divine laws of existence, where was it born? Where and whence emerged?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वात - प्रचंड वायू किंवा वादळ आकाशात गती मार्गातून गती करत कधी थांबत नाही. वाहत राहतो. त्याच्याबरोबर जलवर्षा होते. तो इकडेतिकडे फिरत राहतो. वृष्टीसाठी हितकर आहे. ॥३॥

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