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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 168/ मन्त्र 4
आ॒त्मा दे॒वानां॒ भुव॑नस्य॒ गर्भो॑ यथाव॒शं च॑रति दे॒व ए॒षः । घोषा॒ इद॑स्य शृण्विरे॒ न रू॒पं तस्मै॒ वाता॑य ह॒विषा॑ विधेम ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒त्मा । दे॒वाना॑म् । भुव॑नस्य । गर्भः॑ । य॒था॒ऽव॒शम् । च॒र॒ति॒ । दे॒वः । ए॒षः । घोषाः॑ । इत् । अ॒स्य॒ । शृ॒ण्वि॒रे॒ । न । रू॒पम् । तस्मै॑ । वाता॑य । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आत्मा देवानां भुवनस्य गर्भो यथावशं चरति देव एषः । घोषा इदस्य शृण्विरे न रूपं तस्मै वाताय हविषा विधेम ॥
स्वर रहित पद पाठआत्मा । देवानाम् । भुवनस्य । गर्भः । यथाऽवशम् । चरति । देवः । एषः । घोषाः । इत् । अस्य । शृण्विरे । न । रूपम् । तस्मै । वाताय । हविषा । विधेम ॥ १०.१६८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 168; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
पदार्थ
(देवानाम्-आत्मा) पृथिवी, जल, अग्नि, वायु का मिश्रण-स्वरूप (भुवनस्य गर्भः) जल का गर्भ जन्मदाता (एषः-देवः) यह वात देव (यथावशं चरति) आश्रय के अनुसार चलता है (अस्य घोषाः-इत्-शृण्विरे) इसके घोष नाद ही सुनाई पड़ते हैं (न रूपम्) रूप दिखलाई नहीं देता है (तस्मै वाताय) उस प्रचण्ड वायु के लिए (हविषा विधेम) होम से अनुकूल आचरण करें ॥४॥
भावार्थ
प्रचण्ड वात के अन्दर पृथिवी, जल, अग्नि, वायु के कण होते हैं, वह जलों का जन्म देनेवाला और आश्रय के अनुसार गति करनेवाला होता है, इस चलते हुए के शब्द सुनाई पड़ते हैं, रूप नहीं दिखाई देता है, इसे हवन के द्वारा अनुकूल बनाना चाहिये ॥४॥
विषय
आत्मा देवानाम्
पदार्थ
[१] यह प्राण (देवानां आत्मा) = सब इन्द्रियों का आत्मा है । सब इन्द्रियों में इस प्राण की ही शक्ति कार्य कर रही है (भुवनस्य गर्भ:) = प्राणिमात्र का यह गर्भ है, सब के अन्दर होनेवाला है। इसके बिना किसी प्राणी के जीवन का सम्भव नहीं । (एषः देवः) = यह प्रकाशमय प्राण (यथावशं चरति) = वश के अनुसार चलता है, जितना-जितना इसे काबू कर पाते हैं उतना उतना यह दीर्घकाल तक चलनेवाला होता है । [२] (अस्य) = इस प्राण के (घोषाः इत्) = शब्द ही (शृणिवरे) = सुनाई पड़ते हैं, रूपं न इस प्राण का रूप दिखाई नहीं पड़ता । (तस्मै वाताय) = इस प्राण के लिये हम (हविषा) = त्यागपूर्वक अदन से (विधेम) = पूजा करते हैं । प्राणसाधक के लिये मिताहार अत्यन्त आवश्यक है।
भावार्थ
भावार्थ- सब इन्द्रियों को प्राण से ही शक्ति प्राप्त होती है। इस प्राणसाधना के लिये मिताहार आवश्यक है। सम्पूर्ण सूक्त प्राणसाधना के महत्त्व को सुव्यक्त कर रहा है। इस प्राणसाधक के लिये गो दुग्ध के महत्त्व को अगले सूक्त में कहते हैं । इन गौवों को खुली वायु में चरानेवाला वनविहारी 'शबर' अगले सूक्त का ऋषि है। यह प्रतिक्षण कमर कसे तैयार होने से 'काक्षीवत' है । इसकी प्रार्थना इस प्रकार है-
विषय
प्राणात्मा का वर्णन। परमेश्वर के पक्ष में योजना का स्पष्टीकरण।
भावार्थ
वह प्राणात्मा वा जिसका पूर्व मन्त्रों में वर्णन है, वह (देवानाम् आत्मा) देवों, विद्वानों, ज्ञानवान् जीवों वा इन्द्रियों का आत्मा, है। वह (भुवनस्य गर्भः) उत्पन्न देह का ग्रहण करने वाला है। (एषः देवः) वह प्रकाशस्वरूप और अन्यों का प्रकाशक होकर (यथा-वशम् चरति) अपनी इच्छानुसार विचरता और फलों का भोग करता है। वायु के समान (अस्य घोषाः इत् शृण्विरे) इसके ये घोष, नाद ही सुनाई देते हैं। इसके सम्बन्ध की ही सर्वत्र स्तुति सुनाई देती है। (न रूपम्) इसका रूप दिखाई नहीं देता। (तस्मै वाताय) उस व्यापक, जीवन-स्वरूप प्राणात्मा की हम (हविषा) अन्न, आदि द्वारा उत्तम रूप से सेवा करते हैं। इसी प्रकार देहस्थ जीव के समान ही महान् ब्रह्माण्ड में परमेश्वर व्यापक होने से ‘वात’ है। (१) वही जगत् का संहार करता है, नाना मेघ गर्जाता, सूर्यादि को तपाता, और बनाता है, (२) नाना लोकों को चलाता, सब शक्तियां उसे प्राप्त हैं, वह संसार का राजा है। (३) वह सर्वत्र व्यापक है, सब जीवों का मित्र, सबसे प्रथम, सत्-प्रकृति का स्वामी है, वह न कहीं पैदा हुआ, न किसी कारण से उत्पन्न हो सकता है। (४) समस्त सूर्यादि का आत्मा, सबका वशीकर्त्ता, सब में व्यापक, सबको वशकारिणी शक्ति से व्यापता है। इसकी ही सब स्तुतियां हैं, वह अरूप है, उस की हम भक्ति से सेवा करें। इति षड्विंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरनिलो वातायनः॥ वायुर्देवता॥ छन्द:- १, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४ त्रिष्टुप्॥
मन्त्रार्थ
(देवानाम् आत्मा) अनेक देवों का स्वरूप है अर्थात् पृथिवी जल अग्नि वायु आदि देवों का मिश्रण रूप है (भुवनस्य गर्भः) जल का गर्भ है-जल को जन्म देने वाला है "भुवनम्-उदकनाम" [निघ० १।१२] (एषः-देवः-यथावशं चरति) यह देव यथाश्रय जैसा जैसा चलने का प्रवाह हुआ वैसा वैसा अर्थात् बिना रोक टोक चलता है (अस्य-इत्-घोषः शृरिवरे) इसके घोष ही सुने जाते हैं (न रूपम्) रूप इसका नहीं दीखता है (तस्मै वाताय) उस वात के लिये (हविषा विधेम) होम से सेवन करें-ऐसे समय होम करने से लाभ होता है ॥४॥
टिप्पणी
“क्व देशे जात उत्पन्नः कुतः कस्माद् देशान्निष्क्रम्य आबभूव न केनापि ज्ञातुं शक्यते" (सायणः) इत्ययौक्तिकोऽर्थः। "देवानामिन्द्रादीनामपि आत्मा जीवरूपेण तेष्ववस्थानात्' (सायणः) इति मन्त्रस्य समग्रार्थोऽनुपयुक्तः ।
विशेष
ऋषिः-अनिलो वातायन: (अन-प्राण को यथेष्ट प्रेरित करनेवाला प्राणायामाभ्यासी वात ज्ञान का अयन आश्रय है जिसका ऐसा वैज्ञानिक अभ्यासी) देवता-वातः (अन्धड)
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देवानाम्-आत्मा) पृथिवीजलाग्निवायूनां मिश्रणस्वरूपः (भुवनस्य गर्भः) जलस्य गर्भः-जन्मदाता “भुवनम्-उदकनाम” [निघ० १।१२] (एषः-देवः-यथावशं चरति) अयं देवो वातो यथाश्रयं चलति (अस्य घोषाः-इत्-शृण्विरे) अस्य नादाः खल्वेव श्रूयन्ते (न रूपम्) न रूपं दृश्यते (तस्मै वाताय हविषा विधेम) तस्मै वाताय होमेनाकूल्यमाचरेम ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Energy and identity of the divine forces of nature, sustainer of the universe, this divine wind roams around at will freely. We have heard the roar of it but we have not seen its form. To that divine Vayu, we offer homage and adoration with oblations of havi to develop energy.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रचंड वातात पृथ्वी, जल, अग्नी, वायूचे कण असतात. तो जलाला उत्पन्न करणारा व आश्रयानुसार गती करणारा असतो. तो वाहतो तेव्हा शब्द ऐकू येतात. रूप दिसून येत नाही. त्याला हवनाद्वारे अनुकूल बनविले पाहिजे. ॥४॥
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