ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 174/ मन्त्र 2
ऋषिः - अभीवर्तः
देवता - राज्ञःस्तुतिः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
अ॒भि॒वृत्य॑ स॒पत्ना॑न॒भि या नो॒ अरा॑तयः । अ॒भि पृ॑त॒न्यन्तं॑ तिष्ठा॒भि यो न॑ इर॒स्यति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि॒ऽवृत्य॑ । स॒ऽपत्ना॑न् । अ॒भि । याः । नः॒ । अरा॑तयः । अ॒भि । पृ॒त॒न्यन्त॑म् । ति॒ष्ठ॒ । अ॒भि । यः । नः॒ । इ॒र॒स्यति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभिवृत्य सपत्नानभि या नो अरातयः । अभि पृतन्यन्तं तिष्ठाभि यो न इरस्यति ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽवृत्य । सऽपत्नान् । अभि । याः । नः । अरातयः । अभि । पृतन्यन्तम् । तिष्ठ । अभि । यः । नः । इरस्यति ॥ १०.१७४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 174; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सपत्नान्) शत्रुओं पर (अभिवृत्य) आक्रमण करके (नः) हमारे (याः-अरातयः) जो शत्रुता करनेवाली-हमारी धन सम्पत्ति का हरण करनेवाली जो शत्रुसेना है, उस पर आक्रमण करके (पृतन्यन्तम्) हमारे साथ संग्राम करते हुए शत्रुगण पर (अभि०) आक्रमण करके तथा (यः) जो (नः) हम पर (इरस्यति) ईर्ष्या करता है, उस पर (अभि तिष्ठ) आक्रमण करके स्वाधीन कर, स्ववश कर ॥२॥
भावार्थ
राजा को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि शत्रु कौन है, परसेना क्या-क्या अपहरण कर रही है और संग्राम करता हुआ शत्रुगण कितना है और कौन-कौन राष्ट्र के अन्दर इर्ष्या करनेवाले हैं, उन सबको अपने अधीन करे ॥२॥
विषय
शत्रुओं [सपत्नों, अरातियों, पृतन्यन् व इरस्यन् व्यक्तियों] से राज्य का रक्षण
पदार्थ
[१] राष्ट्र के अन्दर जो राजा को हटाकर स्वयं आसन सम्भालना चाहते हैं वे 'सपत्न' कहलाते हैं। प्रजावर्ग में जो अदानवृत्तिवाले हैं, जो कर आदि को बचाने का प्रयत्न करते हैं, वे ' अराति' हैं। राजा को चाहिये कि इन दोनों को पहले समाप्त करे। इनको समाप्त करके ही वह बाह्य शत्रुओं पर आक्रमण में सफल होगा। [२] सपत्नान् गद्दी के दावेदार अन्य शत्रुभूत व्यक्तियों को अभिवृत्य = घेरकर अथवा उनपर आक्रमण करके और याः = जो नः = हमारे में से अरातयः = कर आदि को ठीक रूप से न देने की वृत्तिवाले हैं उनको घेरकर, कैद करके पृतन्यन्तम् = फौज के द्वारा आक्रमण करनेवाले का अभितिष्ठ - मुकाबिला कर, उनके आक्रमण से देश की रक्षा कर । [२] वस्तुतः राष्ट्र के अन्दर की स्थिति ठीक होने पर ही बाह्य शत्रुओं से युद्ध किया जा सकता है। उसका भी तो अभि [तिष्ठ] = मुकाबिला कर यः = जो नः इरस्यति - हमारे साथ ईर्ष्या करता है। ईर्ष्या के कारण राष्ट्र को हानि पहुँचानेवाला भी तेरे लिये आक्रमणीय है।
भावार्थ
भावार्थ- सपत्नों व अरातियों को कैद में डालकर ही बाह्य शत्रुओं के साथ युद्ध प्रारम्भ करना चाहिये ।
विषय
उनके है कर्त्तव्य, प्रयाण।
भावार्थ
(सपत्नान् अभिवृत्य) शत्रुओं को प्राप्त होकर, चारों ओर से घेर कर, हे राजन् ! सेनापते ! (नः याः अरातयः) हमारी जो शत्रु सेनाएं हैं उनको और (यः नः इरस्यति) जो हम से ईर्ष्या करता,जलता है उस (पृतन्यन्तं अभि) सेना संग्रह करने के उद्योगी शत्रु पर (अभि तिष्ठ) चढ़ाई कर, उसे पराजित कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरभीवर्तः। देवता—राज्ञः स्तुतिः॥ छन्दः- १, ५ निचृदनुष्टुप्। २, ३ विराडनुष्टुप्। ४ पादनिचृदनुष्टुप॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सपत्नान्) शत्रून् (अभिवृत्य) आक्रम्य (नः याः-अरातयः) अस्माकं या खलु अदानवृत्तिकाः, अपि तु हरणकर्त्र्यः परसेनाः (अभि०) अभिवृत्य-आक्रम्य (पृतन्यन्तम्) संङ्ग्रामं कुर्वन्तं गणम् (अभि०) अभिवृत्य आक्रम्य (यः-नः) योऽस्मान् (इरस्यति) ईर्ष्यति “इरस् ईर्ष्यायाम्” [कण्ड्वादि०] तम् (अभितिष्ठं) स्वाधीनी कुरु ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O ruler commander of the nation, having surrounded and cornered the adversaries, our selfish exploiters, whoever want to wage war against us, or who hate and envy to down us, break down their force and rule over them.
मराठी (1)
भावार्थ
राजाने या गोष्टीचे लक्ष ठेवले पाहिजे, की शत्रू कोण आहे? दुसरी सेना अपहरण करत आहे काय? युद्ध करणारे शत्रू किती आहेत? राष्ट्रात कोण-कोण ईर्ष्या करणार आहेत? त्या सर्वांना आपल्या अधीन करावे. ॥२॥
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