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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 174 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 174/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अभीवर्तः देवता - राज्ञःस्तुतिः छन्दः - पादनिचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    येनेन्द्रो॑ ह॒विषा॑ कृ॒त्व्यभ॑वद्द्यु॒म्न्यु॑त्त॒मः । इ॒दं तद॑क्रि देवा असप॒त्नः किला॑भुवम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । इन्द्रः॑ । ह॒विषा॑ । कृ॒त्वी । अभ॑वत् । द्यु॒म्नी । उ॒त्ऽत॒मः । इ॒दम् । तत् । अ॒क्रि॒ । दे॒वाः॒ । अ॒स॒प॒त्नः । किल॑ । अ॒भु॒व॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येनेन्द्रो हविषा कृत्व्यभवद्द्युम्न्युत्तमः । इदं तदक्रि देवा असपत्नः किलाभुवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । इन्द्रः । हविषा । कृत्वी । अभवत् । द्युम्नी । उत्ऽतमः । इदम् । तत् । अक्रि । देवाः । असपत्नः । किल । अभुवम् ॥ १०.१७४.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 174; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 32; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (येन हविषा) जिस विषगन्धकयुक्त धूम से (कृत्वी) उस प्रयोग को करके (उत्तमः) श्रेष्ठ (द्युम्नी) यशस्वी और अन्नवान् स्वराष्ट्र में (अभवत्) हो जाता है (देवाः) विजयेच्छुक सैनिक (तत्-इदम्-अक्रि) उस इस हविर्मय प्रयोग को किया है (असपत्नः किल-अभुवम्) मैं निश्चय शत्रुरहित हो गया हूँ ॥४॥

    भावार्थ

    विषगन्धकयुक्त प्रयोग धुँआ देनेवाला बड़ा प्रभावकारी है, इस प्रयोग को करके राजा यशस्वी अन्न धन सम्पत्तिवाला बन जाता है और शत्रुरहित हो जाता है ॥४॥

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    विषय

    कृत्वी - द्युम्नी

    पदार्थ

    [१] (येन हविषा) = जिस कर रूप में दिये गये धन से (इन्द्रः) = शत्रु विद्रावक राजा (कृत्वी अभवत्) = शत्रु-वध रूप कर्म को करनेवाला होता है तथा (उत्तमः द्युम्नी) = उत्तम यशवाला होता है, हे (देवा:) = देवो! तद् (अक्रि) = वह कर तुम्हारे से किया जाए, हे व्यवहारी पुरुषो! [दिव् व्यवहारे] तुम उस कर के देनेवाले होवो । [२] इस कर से प्राप्त धन से ही सब व्यवस्था करके मैं (किल) = निश्चय से (असपत्नः) = शत्रुरहित (अभुवम्) = होता हूँ । प्रजा यदि कर को ठीक से नहीं देती तो राष्ट्र की रक्षा व उन्नति का सम्भव नहीं होता।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रजा कर को ठीक प्रकार से दे जिससे राजा ठीक व्यवस्था करके शत्रुधादि कर्मों को करनेवाला हो और यशस्वी बन सके।

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    विषय

    शत्रु-रहित ऐश्वर्य होने का साधन।

    भावार्थ

    (येन हविषा) जिस ग्राह्य, उपादेय साधन से (इन्द्रः) तेजस्वी, शत्रुहन्ता जन (द्युम्नी) धनवान् और यशस्वी और (उत्तमः) सर्वेश्रेष्ठ तथा (कृत्वी) कार्य साधने हारा (अभवत्) हो जाता है, हे (देवाः) विजयाभिलाषी जनो ! (इदं तत् अक्रि) वह साधन इस प्रकार किया जाय, जिससे मैं (असपत्नः किल अभवम्) शत्रु-रहित हो जाऊं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरभीवर्तः। देवता—राज्ञः स्तुतिः॥ छन्दः- १, ५ निचृदनुष्टुप्। २, ३ विराडनुष्टुप्। ४ पादनिचृदनुष्टुप॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (येन हविषा) येन विषगन्धकप्रयुक्तधूमेन (कृत्वी) तं प्रयोगं कृत्वा (उत्तमः-द्युम्नी-अभवत्) उत्कृष्टो यशस्वी-अन्नवांश्च भवति स्वराष्ट्रे (देवाः) हे विजयैषिणः सैनिकाः (तत्-इदम्-अक्रि) तदिदं हविर्मया कृतम् (असपत्नः किल-अभुवम्) अहं शत्रुरहितोऽवश्यं भवामि ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That input of vision, knowledge and action, that homage of faith and havi into Rashtra yajna by which Indra becomes a great performer, glorious, best and highest, that homage, O devas, brilliancies of nature and humanity, I have done so that I may become free from rivals, adversaries and enemies.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    धूर देणारा विषगंधयुक्त प्रयोग अत्यंत प्रभावी आहे. या प्रयोगाने राजा यशस्वी, अन्न, धन संपत्तिवान बनतो. शत्रूरहित होतो. ॥४॥

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