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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 176/ मन्त्र 4
अ॒यम॒ग्निरु॑रुष्यत्य॒मृता॑दिव॒ जन्म॑नः । सह॑सश्चि॒त्सही॑यान्दे॒वो जी॒वात॑वे कृ॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । अ॒ग्निः । उ॒रु॒ष्य॒ति॒ । अ॒मृता॑त्ऽइव । जन्म॑नः । सह॑सः । चि॒त् । सही॑यान् । दे॒वः । जी॒वात॑वे । कृ॒तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमग्निरुरुष्यत्यमृतादिव जन्मनः । सहसश्चित्सहीयान्देवो जीवातवे कृतः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । अग्निः । उरुष्यति । अमृतात्ऽइव । जन्मनः । सहसः । चित् । सहीयान् । देवः । जीवातवे । कृतः ॥ १०.१७६.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 176; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अयम्-अग्निः) यह अग्रणेता परमेश्वर या सूर्य (अमृतात्-इव जन्मनः) अमृतजन्म मोक्ष से-मोक्ष प्रदान करके (उरुष्यति) हमारी रक्षा करता है (सहसः-चित्) बल का भी (सहीयान् देवः) अतिशय बलवान् देव परमेश्वर या सूर्य (जीवातवे कृतः) स्वकीय अमर जीवन पाने के लिए हमारे द्वारा स्वीकृत किया-आक्षित या उपासित या सेवित किया गया ॥४॥
भावार्थ
परमात्मा मोक्ष प्रदान करके आत्मा को अमर बनाता है, वह सब बलवानों का बलवान् है, उससे अमर जीवन पाने के लिए उसकी उपासना करनी चाहिए तथा सूर्य भी बड़ा बलवान् है, उसका सेवन भी दीर्घ जीवन प्रदान करता है ॥४॥
विषय
प्रभु का रक्षण
पदार्थ
[१] (अयम्) = यह (अग्निः) = अग्रेणी प्रभु (अमृतात् इव) = जैसे अमृतत्व की प्राप्ति के हेतु से उसी प्रकार (जन्मनः) = शक्तियों के विकास के हेतु से (उरुष्यति) = रक्षण करते हैं । प्रभु के रक्षण के प्राप्त होने पर मनुष्य अपनी शक्तियों का विकास करता हुआ अन्ततः अमृतत्व को, मोक्ष को प्राप्त करता है। यहाँ सायणाचार्य के अनुसार 'अमृतात्' का अर्थ 'देवों से' तथा 'जन्मनः' का अर्थ 'प्राणियों से' है। उसका भाव यह है कि प्रभु का रक्षण हमें आधिदैविक व आधिभौतिक आपत्तियों से बचाता है। [२] वे (देवः) = प्रकाशमय प्रभु (सहसः चित्) = बलवान् से भी (सहीयान्) = बलवत्तर हैं । वे प्रभु (जीवातवे) = जीवनौषध के लिये (कृतः) = किये जाते हैं । अर्थात् जो प्रभु का धारण करता है, वह अपने जीवन को नीरोग बना पाता है । प्रभु-भक्त का जीवन शरीर के दृष्टिकोण से नीरोग होता है और मन के दृष्टिकोण से वासनाशून्य व निर्मल ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमारे रक्षक हैं। प्रभु के हृदय में धारण करने से जीवन नीरोग व निर्मल बनता है । यह सूक्त प्रभु - दर्शन के साधनों व लाभों का वर्णन करता है। इन साधनों का प्रयोग करनेवाला व्यक्ति उस प्रजापति परमात्मा को प्राप्त करने से 'प्राजापत्य' होता है, यह नाना योनियों में गति करता हुआ प्रभु को प्राप्त करने से 'पतङ्ग' है [पतन् गच्छति] । यह 'पतङ्ग प्राजापत्य' अगले सूक्त का ऋषि है। चित्रण करते हुए कहते हैं कि-
विषय
वेदज्ञ विद्वान् का अग्नि के समान वर्णन।
भावार्थ
(अयम् अग्निः) यह अग्नि, तेजस्वी, ज्ञानवान्, गुरु (अमृतात् इव) अविनाशी प्रभु से उत्पन्न भय से और उसी प्रकार (जन्मनः) जन्मवान् प्राणि से उत्पन्न भय से भी (उरुष्यति) हमारी रक्षा करता है। वह (सहसः चित् सहीयान्) बलवान् से भी बलवान् (देवः) ज्ञान का दाता (जीवातवे कृतः) जीव के जीवन दान के लिये बनाया है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः सुनुरार्भवः॥ देवता—१ ऋभवः। २-४ अग्निः॥ छन्द:– १, ४ विराडनुष्टुप। ३ अनुष्टुप्। २ निचृद्गायत्री। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अयम्-अग्निः) एषोऽग्रणेता परमेश्वरः सूर्यो वा (अमृतात्-इव जन्मनः) न मृतं मरणं भवति तस्माज्जन्मतः-अमरजन्मतः-अमरजन्म मोक्षं प्रदाय “ल्यब्लोपे पञ्चम्युपसंख्यानम्” (उरुष्यति) अस्मान् रक्षति “सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति” [मुण्डको० १।२।११] (सहसः-चित् सहीयान् देवः) बलवतोऽपि खल्वतिशयेन बलवान् देवः परमेश्वरः सूर्यो वा (जीवातवे कृतः) स्वकीयामरजीवनायास्माभिरङ्गीकृतः-आश्रित उपासितः सेवितो वा ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
This Agni, self-refulgent power manifest in existence, saves and protects us as mortals born or reborn of immortal existence. Mightier than the mightiest, this divine power is kindled, honoured and adored for the victory of life over suffering and death.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा मोक्ष प्रदान करून आत्म्याला अमर करतो. तो सर्व बलवानामध्ये बलवान आहे. त्याच्याकडून अमर जीवन प्राप्त करण्यासाठी त्याची उपासना केली पाहिजे. व सूर्य ही मोठा बलवान आहे. त्याचे ग्रहण करण्याने ही तो दीर्घ जीवन प्रदान करतो. ॥४॥
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