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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 177/ मन्त्र 2
ऋषिः - पतङ्गः प्राजापत्यः
देवता - मायाभेदः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प॒तं॒गो वाचं॒ मन॑सा बिभर्ति॒ तां ग॑न्ध॒र्वो॑ऽवद॒द्गर्भे॑ अ॒न्तः । तां द्योत॑मानां स्व॒र्यं॑ मनी॒षामृ॒तस्य॑ प॒दे क॒वयो॒ नि पा॑न्ति ॥
स्वर सहित पद पाठप॒त॒ङ्गः । वाच॑म् । मन॑सा । बि॒भ॒र्ति॒ । तान् । ग॒न्ध॒र्वः॑ । अ॒व॒द॒त् । गर्भे॑ । अ॒न्तरिति॑ । ताम् । द्योत॑मानाम् । स्व॒र्य॑म् । म॒नी॒षाम् । ऋ॒तस्य॑ । प॒दे । क॒वयः॑ । नि । पा॒न्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पतंगो वाचं मनसा बिभर्ति तां गन्धर्वोऽवदद्गर्भे अन्तः । तां द्योतमानां स्वर्यं मनीषामृतस्य पदे कवयो नि पान्ति ॥
स्वर रहित पद पाठपतङ्गः । वाचम् । मनसा । बिभर्ति । तान् । गन्धर्वः । अवदत् । गर्भे । अन्तरिति । ताम् । द्योतमानाम् । स्वर्यम् । मनीषाम् । ऋतस्य । पदे । कवयः । नि । पान्ति ॥ १०.१७७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 177; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पतङ्ग) जीवात्मा (वाचम्) वाणी को (मनसा) मन से मननवृत्ति से (बिभर्ति) धारण करता है (ताम्) उस वाणी को (गन्धर्वः) प्राणवायु (गर्भे-अन्तः) अपने अन्दर (अवदत्) बोलता है (तां द्योतमानाम्) उस प्रकट होती हुई को (मनीषाम्) मनोगत को (कवयः) मेधावी जन (ऋतस्य पदे स्वर्यम्) ज्ञान के स्वरवाले प्राप्तव्य पद पर (नि पान्ति) नियत रखते हैं ॥२॥
भावार्थ
जीवात्मा अपनी मननशक्ति से वाणी को धारण करता है, ध्यान में लाता है, पुनः प्राण वायु उसका अन्दर से उत्थान करता है, जब यह बाहर प्रकट होती है, तो मेधावी जन ज्ञान से स्वरवाले पद पर उसे सुरक्षित रखते हैं अर्थात् ज्ञान के उपयोग में लाते हैं ॥२॥
विषय
ऋत का पालन व वेदज्ञान की प्राप्ति
पदार्थ
[१] (पतङ्गः) = कर्मों को करता हुआ और अतएव विविध योनियों में जानेवाला यह जीव जब (मनसा) = मनन शक्ति के द्वारा (वाचम्) = ज्ञान की वाणी को (बिभर्ति) = धारण करता है तो (ताम्) = उस ज्ञान की वाणी को (गर्भे अन्तः) = अन्दर ही हृदय में स्थित हुआ हुआ (गन्धर्वः) = [गां धारयति] ज्ञान की वाणियों को धारण करनेवाला प्रभु (अवदत्) = उच्चारित करता है । [२] (ताम्) = उस (द्योतमानाम्) = देदीप्यमान (स्वर्यम्) = प्रकाश को प्राप्त करानेवाली (मनीषाम्) = [मनसः ईशिनीम् ] मन का शासन करनेवाली वेदवाणी को (कवयः) = ज्ञानी लोग (ऋतस्य पदे) = सत्य के मार्ग में (निपान्ति) = नितरां रक्षित करते हैं। ऋत के मार्ग पर चलते हुए इस ज्ञान की वाणी को अपने में धारण करते हैं। ऋत का पालन उस उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्ति का साधन है ।
भावार्थ
भावार्थ- हृदयस्थ प्रभु ज्ञान की वाणी का उच्चारण करते हैं । ऋत का पालन करनेवाले इस वाणी को प्राप्त करते हैं।
विषय
आत्मा का वर्णन। उसका गुरु द्वारा शिष्य को उपदेश।
भावार्थ
(पतङ्गः) आत्मा (वाचं) वाणी को (मनसा) संकल्प-विकल्प द्वारा ज्ञान करने वाले अन्तःकरण से (बिभर्त्ति) धारण करता है (गन्धर्वः) वाणी को धारण करने वाला, विद्वान् गुरु (ताम्) उसको (गर्भे अन्तः) गर्भ में ही विद्यमान शिष्य के प्रति उसका उपदेश करता है। (ताम्) उस (द्योतमानाम्) अर्थ का प्रकाश करने वाली (स्वर्यम्) सुख-जनक, एक शब्द या ध्वनि से युक्त (मनीषाम्) स्तुति, या मन पर अधिकार करने वाली वाणी को (कवयः) क्रान्तदर्शी विद्वान (ऋतस्य पदे) सत्य, ज्ञानमय, वेद वा यज्ञ के (पदे) रूप में (नि पान्ति) अच्छी प्रकार सुरक्षित करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः पतङ्गः प्राजापत्यः॥ देवता—मायाभेदः॥ छन्द:- १ जगती। २ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पतङ्गः-वाचं मनसा बिभर्ति) जीवात्मा वाचं मनसा मननवृत्त्या धारयति (तां गन्धर्वः-गर्भे-अन्तः-अवदत्) तां वाचं प्राणवायुः “प्राणो वै गन्धर्वः” [जै० उ० ३।६।८।३] स्वमध्ये वदति “मारुतस्तूरसि चरन् मन्द्रं जनयति स्वरम्” [पाणिनीय शिक्षा० ७] (तां द्योतमानां-मनीषाम्) तां प्रकाशमानां मनोवशाम् (कवयः-ऋतस्य पदे स्वर्यं नि पान्ति) मेधाविनो जना ज्ञानस्य प्राप्तव्ये स्वर्ये पदे “स्वर्यमिति सप्तम्यां द्वितीया छान्दसी” नियतं रक्षन्ति ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Patanga, the soul flying in various forms, bears the eternal Vak, divine Word, at the depth of its mind. Vak is the voice which Parameshvara, sustainer of the voice and the universe, speaks to the soul at the heart of existence. That same resonant and refulgent voice and its awareness, wise visionaries retain, hear and enjoy in the state of samadhi communion at the centre of the ultimate truth of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
जीवात्मा आपल्या मननशक्तीने वाणी धारण करतो. ध्यानात ठेवतो. पुन्हा प्राणवायू आतून उत्थान करतो. जेव्हा वाणी बाहेर प्रकट होते तेव्हा मेधावी लोक ज्ञानाच्या स्तरावर तिला सुरक्षित ठेवतात. अर्थात, उपयोगात आणतात. ॥२॥
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