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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 177 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 177/ मन्त्र 3
    ऋषिः - पतङ्गः प्राजापत्यः देवता - मायाभेदः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अप॑श्यं गो॒पामनि॑पद्यमान॒मा च॒ परा॑ च प॒थिभि॒श्चर॑न्तम् । स स॒ध्रीची॒: स विषू॑ची॒र्वसा॑न॒ आ व॑रीवर्ति॒ भुव॑नेष्व॒न्तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑श्यम् । गो॒पाम् । अनि॑ऽपद्यमानम् । आ । च॒ । परा॑ । च॒ । प॒थिऽभिः॑ । चर॑न्तम् । सः । स॒ध्रीचीः॑ । सः । विषू॑चीः । वसा॑नः । आ । व॒री॒व॒र्ति॒ । भुव॑नेषु । अ॒न्तरिति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम् । स सध्रीची: स विषूचीर्वसान आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्तः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपश्यम् । गोपाम् । अनिऽपद्यमानम् । आ । च । परा । च । पथिऽभिः । चरन्तम् । सः । सध्रीचीः । सः । विषूचीः । वसानः । आ । वरीवर्ति । भुवनेषु । अन्तरिति ॥ १०.१७७.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 177; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 35; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पथिभिः) रश्मिमार्गों से (आचरन्तं च) शरीर में आते हुए को तथा (परा च) और शरीर से पृथक् होते हुए को मोक्ष में जाते हुए को (अनिपद्यमानम्) अविनश्वर नित्य, (गोपाम्) इन्द्रियस्वामी जीवात्मा को (अपश्यम्) मैं जानता हूँ (सः) वह (सध्रीचीः) सहयोगिनी पुण्यवासनाओं को (सः) वह (विषूचीः) विरुद्ध वासनाओं को पापवासनाओं को (वसानः) अपने ऊपर आच्छादित करता हुआ (भुवनेषु-अन्तः) लोकों, जन्मों, योनियों के अन्दर (आवरीवर्ति) पुनः-पुनः आवर्तन करता रहता है-आता जाता रहता है ॥३॥

    भावार्थ

    आत्मा इन्द्रियों का स्वामी नित्य है तथापि अच्छी बुरी वासनाओं के वश शरीर में आता है और जाता है तथा मोक्ष तक पहुँचता है, लोकों के जन्मों में योनियों में बार-बार जन्मधारण करता रहता है, जब तक कि यह मुक्त न हो जावे ॥३॥

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    विषय

    'गोप' प्रभु

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार ऋत के पालन के द्वारा वेदज्ञान को प्राप्त करनेवाला प्रभु का दर्शन करते हुए कहता है कि मैं उस (गोपाम्) = जीवरूप गौओं के रक्षक ग्वाले के रूप में उस प्रभु को (अपश्यम्) = देखता हूँ । ये प्रभु (अनिपद्यमानम्) = कभी नीचे नहीं जाते अथवा विनष्ट नहीं होते। (आ च परा च) = चारों ओर दूर-दूर तक (पथिभिः चरन्तम्) = ये प्रभु मार्गों से चल रहे हैं। प्रभु की क्रिया सर्वत्र है । [२] (सः) = वे प्रभु (सध्रीची:) = मिलकर चलनेवाली तथा (विषूची:) = अलग-अलग गति करनेवाली सब प्रजाओं को (वसानः) = आच्छादित कर रहे हैं। सामान्यतः मांसाहारी प्राणी अलग-अलग रहते हैं और शाकाहारी संघ में। इन सबको प्रभु अपने अन्दर लिये हुए हैं। ये प्रभु (भुवनेषु अन्तः) = सब भुवनों में व सब प्राणियों के अन्दर आवरीवर्ति समन्तात् वर्तमान हैं। प्रभु की सत्ता सर्वत्र है, कोई भी प्राणी प्रभु की सत्ता के बिना नहीं है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञान के मार्ग पर चलनेवाला सर्वत्र प्रभु की सत्ता को देखता है। प्रभु की सत्ता को देखता हुआ यह गतिशील बनता है, गतिशीलता के कारण 'तार्क्ष्य' नामवाला होता है। इस गति में यह नेमि परिधि का हिंसन नहीं करता, सो 'अरिष्टनेमि' होता है, मर्यादित जीवनवाला। अगले सूक्त का ऋषि यह 'अरिष्टनेमि तार्क्ष्य' ही है। यह प्रभु का स्मरण इस प्रकार करता है-

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    विषय

    रक्षक प्रभु वा आत्मा का दर्शन।

    भावार्थ

    मैं (गोपाम्) वाणी के पालन करने वाले, प्राणवत् रक्षक को (अनि-पद्यमानम्) कभी न नाश होता हुआ, नीचे जाता हुआ (अपश्यं) देखता हूं। और उसको (आ च परा च) पास और दूर (पथिभिः) मार्गों से (चरन्तं) कर्मफल भोग करते हुए देखता हूं। (सः) वह (सध्रीचीः) साथ रहने वाली और (विचीः) चारों ओर फैलने वाली इन्द्रिय शक्तियों को (वसानः) धारण करता हुआ, (भुवनेषु अन्तः) देहों के बीच (आ वरीवर्त्ति) विद्यमान रहता है। इति पञ्चत्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः पतङ्गः प्राजापत्यः॥ देवता—मायाभेदः॥ छन्द:- १ जगती। २ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पथिभिः-आचरन्तं च परा च ) मार्गै रश्मिमार्गैः-आचरन्तं शरीरे खल्वागच्छन्तं तथा परा चरन्तं शरीरात् पृथग्भवन्तं मोक्षे गच्छन्तं च (अनिपद्यमानं गोपाम्-अपश्यम्) अविनश्वरं नित्यमिन्द्रियस्वामिनमात्मानमहं जानामि (सः-सध्रीचीः-सः-विषूचीः-वसानः) स आत्मा सहाञ्चतीः सहयोगिनीः पुण्यरूपाः धर्म्यवासनास्तथा विरुद्धाञ्चतीः-विपरीतवासना अधर्म्यवासनाः स्वोपरि खल्वाच्छादयन् (भुवनेषु-अन्तः-आवरीवर्ति) लोकेषु जन्मसु योनिषु पुनः पुनरावर्तते ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I see this retainer of the divine Voice and its senses and mind, the soul ranging over different paths around here and far off. Shining, wearing different forms, moving in the right central as well as various directions, it goes round and round in the worlds of existence.$(This verse can also be interpreted in continuation of the second verse: I see this eternal infallible master of the eternal Voice, existential and transcendental both, the Spirit that vibrates and manifests constantly in all directions, in all worlds of the universe.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आत्मा इंद्रियांचा नित्य स्वामी आहे तरीही चांगल्या-वाईट वासनांना वश होऊन शरीरात येतो व जातो आणि मोक्षापर्यंतही पोचतो. जोपर्यंत तो मुक्त होत नाही तोपर्यंत लोकांमध्ये, जन्मामध्ये, योनीमध्ये वारंवार जन्म धारण करतो. ॥३॥

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