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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 183 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 183/ मन्त्र 3
    ऋषिः - प्राजावान्प्राजापत्यः देवता - अन्वृचं यजमानयजमानपत्नीहोत्राशिषः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒हं गर्भ॑मदधा॒मोष॑धीष्व॒हं विश्वे॑षु॒ भुव॑नेष्व॒न्तः । अ॒हं प्र॒जा अ॑जनयं पृथि॒व्याम॒हं जनि॑भ्यो अप॒रीषु॑ पु॒त्रान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । गर्भ॑म् । अ॒द॒धा॒म् । ओष॑धीषु । अ॒हम् । विश्वे॑षु । भुव॑नेषु । अ॒न्तरिति॑ । अ॒हम् । प्र॒ऽजाः । अ॒ज॒न॒य॒म् । पृ॒थि॒व्याम् । अ॒हम् । जनि॑ऽभ्यः । अ॒प॒रीषु॑ पु॒त्रान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहं गर्भमदधामोषधीष्वहं विश्वेषु भुवनेष्वन्तः । अहं प्रजा अजनयं पृथिव्यामहं जनिभ्यो अपरीषु पुत्रान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । गर्भम् । अदधाम् । ओषधीषु । अहम् । विश्वेषु । भुवनेषु । अन्तरिति । अहम् । प्रऽजाः । अजनयम् । पृथिव्याम् । अहम् । जनिऽभ्यः । अपरीषु पुत्रान् ॥ १०.१८३.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 183; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 41; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अहम्) मैं प्रजापति परमेश्वर (ओषधीषु) ओषधियों में (गर्भम्) गर्भसामर्थ्य को (अदधाम्) स्थापित करता हूँ (अहम्) मैं परमेश्वर (विश्वेषु) सारे (भुवनेषु-अन्तः) प्राणियों के अन्दर गर्भसामर्थ्य को संस्थापित करता हूँ (अहम्) मैं परमेश्वर (पृथिव्याम्) प्रथित सृष्टि में (प्रजाम्) प्रजा उत्पन्न वस्तु को (अजनयम्) उत्पन्न करता हूँ (जनिभ्यः) जननयोग्य (अपरीषु) अन्य योनियों में (पुत्रान्) पुत्रों को जन्म देता हूँ ॥३॥

    भावार्थ

    ओषधियों, प्राणियों, अन्य योनियों की सृष्टि में जो भी उत्पन्न होता है, परमेश्वर ही उत्पन्न करता है, वह ही सर्वोत्पादक है, उसे मानना चाहिए ॥३॥

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    विषय

    होता की इच्छायें

    पदार्थ

    [१] (अहम्) = मैं (ओषधीषु) = ओषधियों में (गर्भं अदधाम्) = गर्भ को स्थापित करता हूँ । अर्थात् ओषधियाँ का सेवन करता हुआ, उनसे उत्पन्न शक्ति के द्वारा सन्तान को जन्म देता हूँ। इस प्रकार ये सन्तानें सात्त्विकि वृत्तिवाली होती हुई परस्पर प्रेम से चलनेवाली होती हैं । [२] (अहम्) = मैं (विश्वेषु भुवनेषु अन्त:) = मैं सब भुवनों में इन सन्तानों को जन्म देता हूँ । अर्थात् सब लोकों का हित करनेवाली सन्तानों को जन्म देता हूँ । उन सन्तानों को, जो कि अपने को विश्व का नागरिक अनुभव करती हैं। देशभक्ति उन्हें अन्य देशों से घृणा करनेवाला नहीं बनाती। [३] (अहम्)= मैं (पृथिव्याम्) = पृथिवी में (प्रजाः) = प्रजाओं को (अजनयम्) = उत्पन्न करता हूँ। ऐसी सन्तानों को जन्म देता हूँ जो कि पृथिवी पर चलती हैं। आकाश में नहीं उड़ती-फिरती, हवाई किले नहीं बनाती रहतीं। [४] (अहम्) = मैं (अपरीषु) = न परायी स्त्रियों में (जनिभ्यः) = माताओं के लिये पुत्रान् पुत्रों को जन्म देता हूँ। अपनी पत्नी में ही सन्तान को जन्म देना है और उस सन्तान को माता के लिये ही सौंपना है । वस्तुतः माता ने ही तो सन्तान के चरित्र का निर्माण करना होता है। 'बच्चा कुछ भी माँगे', उसे यही कहना कि 'माता जी से कहो'। बस ऐसा होने पर बच्चा माता के पूरे शासन में होगा और सुन्दर जीवनवाला बनेगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उत्तम सन्तान के लिये वानस्पतिक भोजन आवश्यक है सन्तान ऐसे हों जो कि [क] अपने को विश्व का नागरिक समझें, [ख] हवाई किले न बनायें, [ग] माता के शासन में चलें यह उत्तम सन्तान का निर्माण करनेवाला 'त्वष्टा' है, यही 'गर्भकर्ता' है। इस के लिये कहते हैं कि-

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    विषय

    पति का सन्तानोत्पत्ति का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (अहम्) मैं कृषक तुल्य होकर (ओषधीषु) ओषधि, वनस्पतियों के बीच वायुवत् (गर्भम् अदधाम्) गर्भ को धारण कराऊं। (विश्वेषु भुवनेषु अन्तः) समस्त भुवनों के बीच में सूर्य के तुल्यवीर्यधारक दाराओं में गर्भ धारण कराऊं। (अहं पृथिव्याम्) मैं पृथिवी में मेघ या जल के तुल्य अपनी पृथिवी रूप जाया में (प्रजाः अजनयम्) सन्ततिएं उत्पन्न करूं। और (अहं) मैं (जनिभ्यः) सन्तान उत्पन्न करने वाली धर्म-दाराओं से और (अपरीषु) जो पर की न हों, अपनी हों, उनमें ही (पुत्रान् अजनयम्) पुत्रों को उत्पन्न करूं। आदरार्थ बहुवचन। इत्येकचत्वारिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः प्रजावान्प्राजापत्यः॥ अन्वृचं यजमानपत्नीहोत्रा शिषो देवताः॥ छन्द:-१ त्रिष्टुप्। २, ३ विराट् त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अहम्) अहं युवाभ्यां भिन्नः प्रजापतिः परमेश्वरः (ओषधीषु गर्भम्-अदधाम्) ओषधिषु गर्भं गर्भसामर्थ्यं धारयामि (अहम्) अहं परमेश्वरः (विश्वेषु भुवनेषु-अन्तः) सर्वेषु प्राणिषु खल्वन्तर्गर्भसामर्थ्यं संस्थापयामि (अहम्) अहं परमेश्वरः (पृथिव्यां प्रजाम् अजनयम्) प्रथितायां सृष्टौ प्रजामुत्पादयामि (जनिभ्यः) जननयोग्यासु “सप्तम्यर्थे चतुर्थी छान्दसी व्यत्ययेन” (अपरीषु पुत्रान्) अन्यासु योनिषु पुत्रान् जनयामि ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I plant the seed in herbs and plants. I plant the seed of life in all regions of the world. I engender the forms of life on the earth, and I would generate progeny for all others, women who love to be mothers for fulfilment.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    औषधी, प्राणी इतर योनीत सृष्टीतही जे उत्पन्न होते ते परमेश्वरच उत्पन्न करतो. तोच सर्वोत्पारक आहे. त्याला मानले पाहिजे. ॥३॥

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