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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 190 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 190/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अघमर्षणो माधुच्छन्दसः देवता - भाववृत्तम् छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    सू॒र्या॒च॒न्द्र॒मसौ॑ धा॒ता य॑थापू॒र्वम॑कल्पयत् । दिवं॑ च पृथि॒वीं चा॒न्तरि॑क्ष॒मथो॒ स्व॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सू॒र्या॒च॒न्द्र॒मसौ॑ । धा॒ता । य॒था॒पू॒र्वम् । अ॒क॒ल्प॒य॒त् । दिव॑म् । च॒ । पृ॒थि॒वीम् । च॒ । अ॒न्तरि॑क्षम् । अथो॒ इति॑ । स्वः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् । दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्व: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्याचन्द्रमसौ । धाता । यथापूर्वम् । अकल्पयत् । दिवम् । च । पृथिवीम् । च । अन्तरिक्षम् । अथो इति । स्वः ॥ १०.१९०.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 190; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 48; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (धाता) धारण करनेवाला परमेश्वर (सूर्याचन्द्रमसौ) सूर्य और चन्द्रमा को (यथापूर्वम्) पूर्वसृष्टि में जैसे रचा था, वैसा ही तथा (दिवं च पृथिवीं च-अन्तरिक्षं च) द्युलोक को, पृथिवीलोक को और अन्तरिक्ष-लोक को (अथ) और (स्वः) इनसे भिन्न लोक को (अकल्पयत्) रचा है-या रचता है ॥३॥

    भावार्थ

    संसार को धारण करनेवाले विधाता परमात्मा ने सूर्य चन्द्रमा द्युलोक पृथिवीलोक अन्तरिक्षलोक और अन्य लोक-लोकान्तरों को पूर्व सृष्टि में जैसे रचा था, वैसे ही इस सृष्टि में रचा है, आगे भी रचता रहेगा ॥३॥

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    विषय

    यथा पूर्व सृष्टि का निर्माण

    पदार्थ

    [१] वह (धाता) = सब सृष्टि का निर्माण करनेवाला प्रभु (सूर्याचन्द्रमसौ) = सूर्य व चाँद को (यथापूर्वम्) = जैसा इससे पूर्व की सृष्टि में बनाया था वैसा ही अकल्पयत् बनाता है। इन सूर्य व चन्द्र से ही दिन व रात्रि के विभाग की कल्पना स्पष्ट होती है । [२] (च) = और वे प्रभु (दिवम्) = द्युलोक को (च) = और (पृथिवीम्) = पृथिवी को, (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष लोक को (अथ उ) = और निश्चय से (स्वः) = प्रकाशमय स्वर्गलोक को यथापूर्व ही बनाते हैं। यथापूर्व बनाने की भावना यही है कि उस सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् प्रभु से बनाई गयी सृष्टि में कोई न्यूनता नहीं होती, जिसको कि दूर किया जाए। पूर्ण होने से इसमें परिवर्तन की आवश्यकता ही नहीं होती 'पूर्णमदः पूर्णमिदम्' ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उस प्रभु द्वारा प्रलयानन्तर यथापूर्व सृष्टि का फिर से निर्माण होता है। यह सूक्त नश्वरता के स्मरण से जीवन को निष्पाप बनानेवाला है। यह पवित्र जीवनवाला व्यक्ति प्रभु का स्मरण करता है और मेल-मिलाप से, अविरोध से चलता है। इसका नाम 'संवनन' हो जाता है, उत्तम उपासक [वन संभक्तौ] व उत्तम विजेता [वन् = win ] । यह प्रभु से प्रार्थना करता है कि-

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    भावार्थ

    (धाता यथापूर्वम् अकल्पयत्) विधाता, जगत्-कर्त्ता ने जिस प्रकार पहले बनाया था ठीक उसी प्रकार उसने अब भी (सूर्या-चन्द्रमसौ) सूर्य और चन्द्रमा, (दिवं च पृथिवीं च) आकाश और पृथिवी, (अन्तरिक्षम् अथ स्वः) अन्तरिक्ष और प्रकाश वा समस्त पदार्थ बनाये। इत्यष्टाचत्वारिंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    ‘संवत्सरः’—संवत्सरोपलक्षितः सर्वकालः। सा० ॥ ‘मिषतः’—निमेषादियुक्तस्य। सा०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरघमर्षणो माधुच्छन्दसः। देवता—भाववृत्तम्॥ छन्दः– १ विराडनुष्टुप्। २ अनुष्टुप्। ३ पादनिचृदनुष्टुप्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (धाता सूर्याचन्द्रमसौ यथापूर्वम्-अकल्पयत्) धारयिता परमेश्वरः सूर्यचन्द्रलोकौ पूर्वकल्पे यथा तथा (दिवं च-पृथिवीं च-अन्तरिक्षम्-अथ स्वः-अकल्पयत्) द्युलोकं पृथिवीम्-अन्तरिक्षं तथाऽन्यलोकलोकान्तरं रचितवान् ॥३॥।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The supreme master creator and controller planned the sun and moon, heaven and earth, the middle regions and the regions of bliss as ever before since eternity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    संसार धारण करणाऱ्या विधाता परमेश्वराने सूर्य, चंद्र, द्युलोक, पृथ्वीलोक, अंतरिक्षलोक व इतर लोक लोकांतरांना पूर्व सृष्टीत जसे उत्पन्न केले होते, तसेच या सृष्टीतही निर्माण केले व पुढेही निर्माण करील. ॥३॥

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