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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 26/ मन्त्र 6
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - पूषा छन्दः - पादनिचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ॒धीष॑माणाया॒: पति॑: शु॒चाया॑श्च शु॒चस्य॑ च । वा॒सो॒वा॒योऽवी॑ना॒मा वासां॑सि॒ मर्मृ॑जत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽधीष॑माणायाः । पतिः॑ । शु॒चायाः॑ । च॒ । शु॒चस्य॑ । च॒ । वा॒सः॒ऽवा॒यः । अवी॑नाम् । आ । वासां॑सि । मर्मृ॑जत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आधीषमाणाया: पति: शुचायाश्च शुचस्य च । वासोवायोऽवीनामा वासांसि मर्मृजत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽधीषमाणायाः । पतिः । शुचायाः । च । शुचस्य । च । वासःऽवायः । अवीनाम् । आ । वासांसि । मर्मृजत् ॥ १०.२६.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 26; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (शुचायाः-आधीषमाणायाः) प्रकाशमान भली-भाँति धारण करने योग्य उषा का (शुचस्य च) तथा प्रकाशमान प्रकाशक सूर्य का (पतिः) स्वामी व पोषक परमात्मा (वासः-वायः) वस्त्र बुननेवाले तन्तुवाय के समान (अवीनाम्) पृथ्वी आदि पिण्डों के (वासांसि) आच्छादन-मण्डलों आवरणों को (आ मर्मृजत्) उषा और सूर्य के द्वारा भली-भाँति शोभता है ॥६॥

    भावार्थ

    उषा और सूर्य का स्वामी परमात्मा समस्त पृथिव्यादी पिण्डों के वस्त्ररूप मण्डलों आवरणों को उषा और सूर्य के द्वारा शोभन करता है ॥६॥

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    विषय

    मार्जन [पत्नी संतति व पति]

    पदार्थ

    [१] वे प्रभु एक घर में (आधीषमाणायाः) = [आत्मार्थं धीयमानायाः सा० ] आत्म प्राप्ति के लिये अपना पूरण करनेवाली [धी = To accomplish ] (च) = और अतएव (शुचायाः) = पवित्र जीवनवाली गृहिणी का (पतिः) = रक्षक है । (च) = और इसी प्रकार (शुचस्य) = पवित्र आचरणवाले गृहपति का वह रक्षक है। प्रस्तुत मन्त्र में 'आधीषमाणाया: ' से पत्नी का, 'शुचाया: ' से सन्तति का और 'शुचस्य' से पति का भी ग्रहण किया जा सकता है। पत्नी आत्म प्राप्ति के लिये अपने कर्तव्य कर्मों में सदा लगी रहती है। इन कर्मों से ही वह आत्म-दर्शन की अधिकारिणी बनती है। इसके कर्त्तव्यपालन से ही सन्तति, शुचि व पवित्र बनती है। इसका व्यवहार ही पति को भी 'शुच' पवित्र बना देता है। जिन पत्नियों का व्यवहार सुन्दर नहीं होता, उनके पति कुञ्ज में आनन्द की तलाश करते फिरते हैं और एक विचित्र - सा अस्वाभाविक जीवन बिताने के लिये विवश होते हैं वहाँ पवित्रता की सम्भावना नहीं रहती। [२] और तो और वह तो (अवीनाम्) = भेड़ों के भी (वासोवायः) = बच्चों का विस्तार करनेवाला है, बुननेवाला है । भेड़ों के भी वस्त्रों का जो ध्यान करता है, वह प्रभु ही (वासांसि) = हमारे इन पञ्चकोश रूप वस्त्रों को (आमर्मृजत्) = पूर्ण शुद्ध बना देता है । अन्नमयकोश के रोगरूप मालिन्य को दूर करता है, तो प्राणमय के नैर्बल्य रूप मल को । मनोमयकोश से 'ईर्ष्या, क्रोध, द्वेष' आदि को हटाता है और विज्ञानमयकोश की कुण्ठता को दूर भगाता है। ये प्रभु ही आनन्दमयकोश को निर्मल बनाकर उसे 'सहस्' से पूर्ण करते हैं एवं इस प्रभु की कृपा से ही हमारा जीवन शुद्ध होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- पवित्र जीवनवाले पति-पत्नी ही प्रभु रक्षा के पात्र होते हैं । वे प्रभु भेड़ों का भी पालन करते हैं तो हमारा पालन क्यों न करेंगे ?

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    विषय

    प्रकृत्यादि का स्वामी।

    भावार्थ

    (आ-धीषमाणायाः) सब प्रकार से धारण पोषण की गई (शुचायाः च) अत्यन्त शुद्ध, वा सत्व गुण से युक्त, कान्तिमती प्रकृति का और (शुचस्य च) शुद्ध, कान्तियुक्त, ‘स्वप्रकाश’ आत्मा का भी (पतिः) पुत्र और पत्नी के गृहस्वामिवत् पालक है। और जिस प्रकार (वासः-वायः अवीनां वासांसि मर्मृजत्) वस्त्र बुनने वाला तन्तुवाय भेड़ की ऊनों के नाना वस्त्र स्वच्छ रूप में बनाता है उसी प्रकार वह प्रभु भी (वासः-वायः) समस्त प्राणियों के रहने योग्य लोक-परम्परा रूप जगत्-पट का बनाने वाला (अवीनाम्) अरक्षित जीवों के नाना (वासांसि आ मर्मृजत्) आच्छादक देह वा वसने योग्य नाना लोक, भूमि, सूर्यादि बनाता है। इसी प्रकार वह (अवीनां वासांसि आ मर्मृजत्) सूर्य, भूमियों और सूर्यों के वास रूप आवरणों को भी शुद्ध करता, प्रकाशित करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक ऋषिः। पूषा देवता॥ छन्दः- १ उष्णिक् ४ आर्षी निचृदुष्णिक्। ३ ककुम्मत्यनुष्टुप्। ५-८ पादनिचदनुष्टुप्। ९ आर्षी विराडनुष्टुप्। २ आर्ची स्वराडनुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (शुचायाः-आधीषमाणायाः) प्रकाशमानायाः-आ समन्ताद् धार्यमाणायाः उषसः (च) तथा (शुचस्य च) प्रकाशमानस्य प्रकाशकस्य सूर्यस्य च (पतिः) स्वामी स पोषयिता परमात्मा (वासः-वायः) “अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः” वस्त्रवायस्तन्तुवाय इव (अवीनाम्) पृथिव्यादीनां पिण्डानाम् “इयं पृथिव्यविः” [श० ६।१।२।३३]  (वासांसि) आच्छादनानि तद्गतिमण्डलानि (आ मर्मृजत्) उषसा सूर्येण समन्तात्-शोधयसि ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Pusha is the sustainer of immaculate Prakrti and of the pure intelligent soul, and just as the weaver weaves a cloth of wool, so does he weave out the structure and texture of the physical web of the world and create the bodies of form and adorns them with beauty.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उषा व सूर्याचा स्वामी परमात्मा संपूर्ण पृथ्वी इत्यादी पिंडांना वस्त्र विणणाऱ्या तन्तुप्रमाणे आच्छादन मंडल आवरणाला उषा व सूर्याद्वारे शोभिवन्त करतो. ॥६॥

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