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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 38/ मन्त्र 2
    ऋषिः - इन्द्रो मुष्कवान् देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    स न॑: क्षु॒मन्तं॒ सद॑ने॒ व्यू॑र्णुहि॒ गोअ॑र्णसं र॒यिमि॑न्द्र श्र॒वाय्य॑म् । स्याम॑ ते॒ जय॑तः शक्र मे॒दिनो॒ यथा॑ व॒यमु॒श्मसि॒ तद्व॑सो कृधि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । नः॒ । क्षु॒ऽमन्त॑म् । सद॑ने । वि । ऊ॒र्णु॒हि॒ । गोऽअ॑र्णसम् । र॒यिम् । इ॒न्द्र॒ । श्र॒वाय्य॑म् । स्याम॑ । ते॒ । जय॑तः । श॒क्र॒ । मे॒दिनः॑ । यथा॑ । व॒यम् । उ॒श्मसि॑ । तत् । व॒सो॒ इति॑ । कृ॒धि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स न: क्षुमन्तं सदने व्यूर्णुहि गोअर्णसं रयिमिन्द्र श्रवाय्यम् । स्याम ते जयतः शक्र मेदिनो यथा वयमुश्मसि तद्वसो कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । नः । क्षुऽमन्तम् । सदने । वि । ऊर्णुहि । गोऽअर्णसम् । रयिम् । इन्द्र । श्रवाय्यम् । स्याम । ते । जयतः । शक्र । मेदिनः । यथा । वयम् । उश्मसि । तत् । वसो इति । कृधि ॥ १०.३८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 38; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः) वह तू (इन्द्र) राजन् ! (नः) हमारे (सदने) घर में या घरसमान राष्ट्र में (क्षुमन्तम्) अन्नवाले (गो-अर्णसम्) भूमि, जल, कृषि करने के लिए पर्याप्त जिसमें हों, ऐसे (श्रवाय्यं रयिं वि ऊर्णुहि) प्रशंसनीय पुष्टराज्यस्वरूप धन को सुरक्षित कर (शक्र) हे सब कुछ करने में सामर्थ्यवाले राजन् ! (जयतः-ते) संग्राम में जय करते हुए तेरे (मेदिनः स्नेही) हम स्नेही हों (वसो यथा वयम्-उश्मसि तत् कृधि) हे बसानेवाले राजन् ! जैसे हम कामना करें, वैसे तू हमारी कामना को पूरा कर ॥२॥

    भावार्थ

    राजा को चाहिए कि राष्ट्र में खेती करने के लिए पर्याप्त भूमि और जल का प्रबन्ध रखे। राष्ट्र की समृद्धि के लिए पूर्ण समर्थ रहे। आपात युद्ध में विजय करता हुआ अपनी स्नेही प्रजाओं की कामना को पूरा करता रहे ॥२॥

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    विषय

    पर्याप्त व प्रशंसनीय धन

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = शत्रुओं के संहार करनेवाले इन्द्र ! (स) = वह आप (नः) = हमारे सदने घर में (रयिम्) = धन को (व्यूर्णुहि) = विविधरूप से आच्छादित करिये। अर्थात् हमारे घर को धन से भर दीजिये। उस धन से जो - [क] (क्षुमन्तम्) = अन्नवाला है, [ख] गो (अर्णसम्) = [गाव: गोदुग्धानि अर्णः उदकमिव यस्मिन्] पानी की तरह सुलभ दूधवाला है तथा [ग] (श्रवाय्यम्) = श्रवणीय कीर्ति से युक्त है। ऐसे उत्तम धनों से हमारा घर भरपूर हो । [२] हे शक्त शत्रुओं को जीतने में समर्थ प्रभो! (जयतः ते) = हमारे शत्रुओं को जीतते हुए आपके हम (मेदिनः) = स्नेहवाले [ ञिमिदा स्नेहने] अथवा मेदस्वाले, अर्थात् बलवान् (स्याम) = हों । आपके सम्पर्क से हमारे में भी आपकी शक्ति का संचार हो । [३] हे (वसो) = उत्तम निवास को देनेवाले प्रभो ! (यथा) = जैसे (वयम्) = हम (उश्मसि) = चाहते हैं और चमक उठते हैं, [वश् to shine ] (तद् कृधि) = आप वैसा ही करने की कृपा करिये। आपकी कृपा से हमारी कामनाएँ पूर्ण हों हम चमक उठें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें खाने-पीने के लिये पर्याप्त अन्न व दुग्ध को प्राप्त करानेवाला प्रशंसनीय धन प्राप्त हो। हम उस विजय को प्राप्त करानेवाले प्रभु के प्रिय हों । प्रभु कृपा से हमारी कामनाएँ पूर्ण होती है, प्रभु ही हमारे जीवनों को दीप्त करते हैं ।

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    विषय

    सूर्य के तुल्य राजा प्रजा में ज्ञान ऐश्वर्य की वृद्धि करे।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! सत्य-ज्ञान के दर्शन करने कराने हारे ! जिस प्रकार सूर्य (क्षुमन्तं गो-अर्णसं रयिम् वि ऊर्णोति) अन्नयुक्त भूमि के धनरूप ऐश्वर्य को प्रकट करता है उसी प्रकार (सः) वह तू (नः सदने) हमारे गृह, भवन, आश्रम में (क्षुमन्तम्) शब्द-उपदेश से युक्त, (श्रवाय्यम्) श्रवण करने योग्य (गो-अर्णसम्) वेदवाणी और भूमि रूप धन से सम्पन्न (रयिम्) ज्ञानैश्वर्य को (वि ऊर्णुहि) विविध प्रकार से प्रकट कर। (जयतः ते) तेरे विजय करते हुए हे (शक्र) शक्तिशालिन् ! हम (मेदिनः स्याम) परस्पर स्नेही, बलवान् योद्धा हों। हे (वसो) सब को बसाने वाले ! सब में बसने वाले प्रभो ! स्वामिन् ! (यथा वयम् उष्मसि) हम जिस प्रकार कामना करें तू (तत् कृधि) वह कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रो मुष्कवान् ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:-१, ५ निचृज्जगती। २ पाद निचृज्जगती। ३, ४, विराड् जगती॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सः) स त्वम् (इन्द्र) राजन् ! (नः) अस्माकम् (सदने) गृहे गृहवद्राष्ट्रे वा (क्षुमन्तम्) अन्नवन्तम् “क्षु-अन्ननाम” [निघं० २।२] (गो-अर्णसम्) गौर्भूमिरर्णसश्च कृषिकरणाय जलं च प्राचुर्येण यस्मिन् तथाभूतम् “अर्त्तेः-उदके नुट् च’ असुन्” [उणादि ४।१९७] “गो-अर्णसः-गोः पृथिव्या जलं च” “विभाषा गोरिति प्रकृतिभावः” [ ऋ० १।११२।१८ दयानन्दः] (श्रवाय्यं रयिं व्यूर्णुहि) प्रशंसनीयं पुष्टराज्यरूपं धनम् “रयिं चक्रवर्तिराज्यसिद्धं धनम्” [ऋ० १।३४।१२ दयानन्दः] विशिष्टमाच्छादय-सुरक्षितं कुरु (शक्र) हे शक्त ! सर्वं कर्त्तुं सामर्थ्यवन् ! राजन् ! (जयतः ते) संग्रामे जयं कुर्वतः तव (मेदिनः स्याम) स्नेहिनो वयं भवेम (वसो यथा वयम्-उश्मसि तत् कृधि) हे वासयितः ! राजन् ! यथा-यत्खलु वयं वाञ्छामः, तत् तथा त्वमस्माकं कामं सम्पादय ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, O lord of power and glory, in this house of the social order abundant in food, water and the wealth of lands and cows, cover, protect and promote the honoured wealth of the nation. O mighty victorious lord, let us be your friends, allies and admirers and, O lord giver of peace, settlement and a good home, pray do as we would wish to fulfil our aspirations.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने राष्ट्रात शेती करण्यासाठी पुरेशी भूमी व जलाची व्यवस्था करावी. राष्ट्राच्या समृद्धीसाठी पूर्ण समर्थ राहावे. संकटकाळी युद्धात विजय मिळवून आपल्या प्रजेच्या कामना पूर्ण कराव्यात. ॥२॥

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