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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 50/ मन्त्र 4
    ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    भुव॒स्त्वमि॑न्द्र॒ ब्रह्म॑णा म॒हान्भुवो॒ विश्वे॑षु॒ सव॑नेषु य॒ज्ञिय॑: । भुवो॒ नॄँश्च्यौ॒त्नो विश्व॑स्मि॒न्भरे॒ ज्येष्ठ॑श्च॒ मन्त्रो॑ विश्वचर्षणे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भुवः॑ । त्वम् । इ॒न्द्र॒ । ब्रह्म॑णा । म॒हान् । भुवः॑ । विश्वे॑षु । सव॑नेषु । य॒ज्ञियः॑ । भुवः॑ । नॄन् । च्यौ॒त्नः । विश्व॑स्मिन् । भरे॑ । ज्येष्ठः॑ । च॒ । मन्त्रः॑ । वि॒श्व॒ऽच॒र्ष॒णे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भुवस्त्वमिन्द्र ब्रह्मणा महान्भुवो विश्वेषु सवनेषु यज्ञिय: । भुवो नॄँश्च्यौत्नो विश्वस्मिन्भरे ज्येष्ठश्च मन्त्रो विश्वचर्षणे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भुवः । त्वम् । इन्द्र । ब्रह्मणा । महान् । भुवः । विश्वेषु । सवनेषु । यज्ञियः । भुवः । नॄन् । च्यौत्नः । विश्वस्मिन् । भरे । ज्येष्ठः । च । मन्त्रः । विश्वऽचर्षणे ॥ १०.५०.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 50; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (त्वम्) तू (ब्रह्मणा महान् भुवः) वेदज्ञान से महान् है (विश्वेषु सवनेषु यज्ञियः-भुवः) सब सम्पादनीय ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, संन्यास आश्रमों में सङ्गमनीय है (नॄन्-च्यौत्नः-भुवः) मुमुक्षों के प्रति रागादियों को हटानेवाला बलवान् है (विश्वचर्षणे) हे सर्वद्रष्टा परमात्मन् ! (विश्वस्मिन् भरे ज्येष्ठः-मन्त्रः-च) सम्पूर्ण भरणीय-धारणीय-निर्वाह करने योग्य वस्तुओं में तू ज्येष्ठ मन्त्रप्रद और ज्ञानप्रद है ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा महान् ज्ञानवान् है। सब आश्रमियों के समागम योग्य है। मुमुक्षुओं के अन्दर से रागादि दोषों को हटानेवाला है ।समस्त भरण करनेवाले पदार्थों में ज्येष्ठ और ज्ञानप्रद है ॥४॥

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    विषय

    सर्वपूज्य, सर्वद्रष्टा, सर्वश्रेष्ठ, सर्वप्रेरक

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (त्वं ब्रह्मणा महान् भुवः) तू अपने महान् सामर्थ्य से महान् है। तू (विश्वेषु सवनेषु यज्ञियः भुवः) समस्त ऐश्वर्यों और अधिकारों पर पूजनीय है। तू (विश्वस्मिन् भरे) समस्त पालनीय जगत् में (नॄन् च्यौत्नः) समस्त, नायकों को भी चलाने वाला है। तू (ज्येष्ठः च) सब से ज्येष्ठ है, और हे (विश्व-चर्षणे) समस्त विश्व के द्रष्टः ! तू सब के लिये (मन्त्रः च) मनन करने योग्य है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रो वैकुण्ठ ऋषिः। देवता—इन्द्रो वैकुण्ठः॥ छन्द:- १ निचृज्जगती। २ आर्ची स्वराड् जगती। ६, ७ पादनिचृज्जगती। ३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५ त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु का स्तवन

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = ज्ञान रूप परमैश्वर्यवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (ब्रह्मणा) = ज्ञान के दृष्टिकोण से (महान्) = सबसे बड़े (भुवः) = हैं, आपका ज्ञान निरतिशय है, ज्ञान की आप चरमसीमा ही हैं। [२] (विश्वेषु सवनेषु) = सब यज्ञों के अन्दर आप ही (यज्ञियः) = पूजनीय होते हैं। आपकी कृपा से ही यज्ञ परिपूर्ण होते हैं । वस्तुतः आप ही सब यज्ञों के होता हैं । [३] (विश्वस्मिन् भरे) = सब संग्रामों में (नृन्) = शत्रुओं के नेतृ पुरुषों को आप ही (च्यौत्न:) = स्वस्थन से विचलित करनेवाले बल से युक्त हैं। आपकी शक्ति से शक्ति सम्पन्न होकर ही हम शत्रुओं का पराजय कर पाया करते हैं । [४] हे (विश्वचर्षणे) = सर्वद्रष्टः = सबका ध्यान करनेवाले प्रभो ! (च) = और आप ही (ज्येष्ठ मन्त्रः) = सर्वश्रेष्ठ मन्त्र हैं। [क] कार्यों की सिद्धि के लिये अन्य मन्त्र तो पता नहीं कि सफलता प्राप्त कराते हैं या नहीं, यह प्रभु का स्मरण मनुष्य को अवश्य सफल बनाता है। [ख] अथवा आप ही सर्वश्रेष्ठ मननीय वस्तु हो । प्रकृति व जीव का ज्ञान भी आवश्यक है, परन्तु आपका मनन सर्वोपरि है। प्रकृति व जीव का ज्ञान हमें धन प्राप्त कराता है, तो आपका मनन हमें उस धन से धन्य बनाता है, अन्यथा यही धन हमारे निधन का कारण हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु सर्वज्ञ हैं, सब यज्ञों के होता हैं, संग्रामों में विजय प्राप्त करानेवाले हैं, सब सफलताओं के मन्त्र हैं । अथवा वे प्रभु सर्वोपरि मन्तव्य सत्ता हैं ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (त्वम्) (ब्रह्मणा महान् भुवः) ज्ञानेन वेदज्ञानेन महान् भवसि (विश्वेषु सवनेषु यज्ञियः-भुवः) सर्वेषु सम्पादनीयेषु ब्रह्मचर्यगृहस्थवानप्रस्थसंन्यासाश्रमेषु सङ्गमनीयो भवसि (नॄन्-च्यौत्नः-भुवः) मुमुक्षून् प्रति रागादीन् च्योतयिता बलवान् भवसि (विश्वचर्षणे) हे सर्वद्रष्टः परमात्मन् ! (विश्वस्मिन् भरे ज्येष्ठः-मन्त्रः-च) सर्वस्मिन् भरणीये धारणीये निर्वाहके त्वं ज्येष्ठः श्रेष्ठो मन्त्रयिता मन्त्रप्रदः-ज्ञानप्रदो भवसि ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, you are great by virtue of your infinity and eternity of Being and the eternal Word of Being and Divinity. In all holy works of creativity in the world, you are adorable. In all struggles of existence, you are the power and inspiration of humanity. And you are the first, highest and the most sacred chant of human consciousness of divinity, O lord all watching and inspiring for the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा महाज्ञानी आहे. सर्व आश्रमवासीयांच्या समागमायोग्य आहे. मुमुक्षूतील राग इत्यादी दोष दूर करणारा आहे. संपूर्ण निर्वाह करण्यायोग्य पदार्थांमध्ये ज्येष्ठ व ज्ञानप्रद आहे. ॥४॥

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