ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 50/ मन्त्र 5
ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः
देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अवा॒ नु कं॒ ज्याया॑न्य॒ज्ञव॑नसो म॒हीं त॒ ओमा॑त्रां कृ॒ष्टयो॑ विदुः । असो॒ नु क॑म॒जरो॒ वर्धा॑श्च॒ विश्वेदे॒ता सव॑ना तूतु॒मा कृ॑षे ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । नु । क॒म् । ज्याया॑न् । य॒ज्ञऽव॑नसः । म॒हीम् । ते॒ । ओमा॑त्राम् । कृ॒ष्टयः॑ । वि॒दुः॒ । असः॑ । नु । क॒म् । अ॒जरः॑ । वर्धाः॑ । च॒ । विश्वा॑ । इत् । ए॒ता । सव॑ना । तू॒तु॒मा । कृ॒षे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अवा नु कं ज्यायान्यज्ञवनसो महीं त ओमात्रां कृष्टयो विदुः । असो नु कमजरो वर्धाश्च विश्वेदेता सवना तूतुमा कृषे ॥
स्वर रहित पद पाठअव । नु । कम् । ज्यायान् । यज्ञऽवनसः । महीम् । ते । ओमात्राम् । कृष्टयः । विदुः । असः । नु । कम् । अजरः । वर्धाः । च । विश्वा । इत् । एता । सवना । तूतुमा । कृषे ॥ १०.५०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 50; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ज्यायान्) हे इन्द्र ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! तू महान् है (यज्ञवनसः-नु कम्-अव) अध्यात्मयज्ञ को जो सेवन करते हैं, उनकी शीघ्र रक्षा कर (ते महीम्-ओमात्रां कृष्टयः-विदुः) तेरी महती रक्षा को मनुष्य जानते हैं (अजरः-नु कम्-असः-च वर्धाः) तू अजर-जरारहित है, शीघ्र हमें बढ़ा (विश्वा-एता सवना-इत्-तूतुमा-कृषे) सारी इन निष्पादन करने योग्य स्तुति-प्रार्थना-उपासनाओं को शीघ्र स्वीकार करता है, ये भी जानते हैं ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा महान् है, उसकी रक्षणशक्ति भी महती है। वह अध्यात्मयाजी जनों की पूरी रक्षा करता है। उसकी स्तुति, प्रार्थना, उपासनाओं को अवश्य शीघ्र स्वीकार करता है ॥५॥
विषय
अविनाशी प्रभु से रक्षा की याचना।
भावार्थ
हे प्रभो ! (नुक्रम्) अवश्य तू (यज्ञ-वनसः) सर्वोपास्य प्रभु के भजन करने वालों की (अव) रक्षा कर। (कृष्टयः) समस्त मनुष्य ही (ते) तेरी (ओमात्रां महीं विदुः) बड़ी भारी रक्षण-शक्ति को जानते हैं, वा जानें। तू (नु कम् अजरः असः) निश्चय ही अजर है, तू कभी न बूढ़ा होता, न नाश को प्राप्त होता है। (विश्वा इत् च वर्धाः) तू सब को बढ़ा। तू (तूतुमा सवना एता कृषे) अति शीघ्र ही सब ऐश्वर्यों को उत्पन्न करता है। आ तू ही शीघ्र ही इन सब उत्पन्न होने वाले लोकों और चराचर प्राणियों को उत्पन्न करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इन्द्रो वैकुण्ठ ऋषिः। देवता—इन्द्रो वैकुण्ठः॥ छन्द:- १ निचृज्जगती। २ आर्ची स्वराड् जगती। ६, ७ पादनिचृज्जगती। ३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५ त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
सर्वरक्षक प्रभु
पदार्थ
[१] हे प्रभो! (नु) = अब (कम्) = सुखस्वरूप आप (ज्यायान्) = सर्वमहान् हैं और (यज्ञवनसः) = यज्ञों का सेवन करनेवालों को (अवा) = रक्षित करते हैं। यज्ञशील पुरुषों का रक्षण प्रभु ही करते हैं, वस्तुतः प्रभु से रक्षित होकर ही वे अपने यज्ञों का रक्षण कर पाते हैं । [२] (कृष्टयः) = कृष्टि करनेवाले श्रमशील व्यक्ति ही (ते) = आपकी (महीम्) = महनीय-आदरणीय व शक्ति सम्पन्न (ओमात्राम्) = रक्षा को (विदुः) = प्राप्त करते हैं। श्रमशील पुरुषों का ही आप रक्षण करते हैं। [३] (नु) = अब (कम्) = आनन्दस्वरूप आप (अजरः अस:) = कभी जीर्ण न होनेवाले हैं (च) = और (वर्धा:) = [वर्धस्व] वृद्धि को प्राप्त हो, सदा वृद्ध हो । प्रभु कभी जीर्ण नहीं होते हैं और सदा बढ़े हुए रहते हैं । [४] हे प्रभो ! आप ही (इत्) = सचमुच (विश्वा एता सवना) = इन सब यज्ञों को (तूतुमा) = [ तूर्णानि ] शीघ्रता से होनेवाला कृषे करते हैं । आपकी कृपा से यज्ञ शीघ्रता से पूर्ण होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु यज्ञों व यज्ञशील पुरुषों का रक्षण करते हैं ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ज्यायान्) हे इन्द्र-ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! त्वं महान्-असि (यज्ञवनसः-नु कम्-अव) ये-अध्यात्मयज्ञं वनन्ति सम्भजन्ति-अध्यात्मयज्ञस्यानुष्ठातारस्तान् शीघ्रं रक्ष (ते महीम्-ओमात्रां कृष्टयः-विदुः) तव महतीं रक्षाम् “अव रक्षणे” [भ्वादिः] ‘मात्रन् प्रत्ययो बाहुलकादौणादिकः, ऊठ् च बाहुलादेव’ मनुष्या जानन्ति (अजरः नु कम्-असः-च वर्धाः) त्वं खल्वजरो जरारहितो भवसि शीघ्रं वर्धय (विश्वा-एता सवना-इत्-तूतुमा-कृषे) सर्वाणि-एतानि सवनानि निष्पाद्यानि स्तुतिप्रार्थनोपासनानि शीघ्रं स्वीकरोषि, इत्यपि जानन्ति ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, you are great, pray protect and promote the lovers and performers of the divine yajna of faith and creativity. People know the grandeur and greatness of your power of protection. Unaging and imperishable you are, pray promote life and all. Indeed, ultimately, it is you who effect all these acts of creation and progress with strength and speed.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा महान असून, त्याची रक्षणशक्तीही महान आहे. तो अध्यात्मयाजीचे पूर्ण रक्षण करतो व त्यांच्या स्तुती, प्रार्थना, उपासनेचा तात्काळ स्वीकार करतो. ॥५॥
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