ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 54/ मन्त्र 2
ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यदच॑रस्त॒न्वा॑ वावृधा॒नो बला॑नीन्द्र प्रब्रुवा॒णो जने॑षु । मा॒येत्सा ते॒ यानि॑ यु॒द्धान्या॒हुर्नाद्य शत्रुं॑ न॒नु पु॒रा वि॑वित्से ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अच॑रः । त॒न्वा॑ । व॒वृ॒धा॒नः । बला॑नि । इ॒न्द्र॒ । प्र॒ऽब्रु॒वा॒णः । जने॑षु । मा॒या । इत् । सा । ते॒ । यानि॑ । यु॒द्धानि॑ । आ॒हुः । न । अ॒द्य । शत्रु॑म् । न॒नु । पु॒रा । वि॒वि॒त्से॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदचरस्तन्वा वावृधानो बलानीन्द्र प्रब्रुवाणो जनेषु । मायेत्सा ते यानि युद्धान्याहुर्नाद्य शत्रुं ननु पुरा विवित्से ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अचरः । तन्वा । ववृधानः । बलानि । इन्द्र । प्रऽब्रुवाणः । जनेषु । माया । इत् । सा । ते । यानि । युद्धानि । आहुः । न । अद्य । शत्रुम् । ननु । पुरा । विवित्से ॥ १०.५४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 54; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (यत् तन्वा बलानि वावृधानः) जब स्वात्मस्वरूप से या अपनी व्याप्ति से अपने गुण वीर्यों को बढ़ाता हुआ (जनेषु प्रब्रुवाणः) मनुष्यों में प्रवचन करता हुआ (अचरः) तू प्राप्त होता है (ते यानि युद्धानि-आहुः) तेरे जो उपासकों के काम आदि दोष सम्बन्धी प्रहारक कर्म तेरे उपासक कहते हैं (सा माया-इत्) वह तेरी माया-सहजशक्ति ही है (न-अद्य पुरा शत्रुं ननु विवित्से) तू न इस कल्प में न पुरा कल्प में शत्रु को प्राप्त होता है ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा वेदज्ञान द्वारा जब अपने गुण वीर्यों का ऋषियों के अन्दर प्रवचन करता है, उनके कामादि शत्रुओं पर प्रहार करनेवाले अपने प्रभावों को प्रदर्शित करता है, वह उसकी सहजशक्ति है। उस परमात्मा का न इस कल्प में कोई शत्रु है न पहले कोई था। केवल मनुष्यों के आन्तरिक शत्रुओं पर प्रहार करना लक्ष्य है ॥२॥
विषय
राष्ट्रपति के कर्त्तव्य, ज्ञानप्रसार और पराक्रम।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (यत्) जो तू (बलानि) अपने बलों, सैन्यों को (वा वृधानः) बढ़ाता हुआ, (तन्वा) बड़ी भारी सेना के साथ (अचरः) विचरता और भारी राष्ट्र का भोग करता है, और जो तू (जनेषु प्रब्रुवाणः अचरः) मनुष्यों को भी उत्तम उपदेश करता हुआ विचरता है और लोग जो (ते यानि युद्धानि आहुः) तेरे नाना युद्धों का वर्णन करते हैं (सा ते माया इत्) वह सब तेरी बुद्धि और निर्मात्री वा शत्रु विनाशकारिणी, संहारक शक्ति ही है, तू (न अद्य शत्रुं विवित्से) न आज शत्रु को पाता है (न नु पुरा विवित्से) न पहले ही तू किसी को अपना शत्रु प्राप्त कर सका। तेरी महती शक्ति से भयभीत होकर, तेरी बुद्धि से चकित होकर तेरा शत्रु न पहले रहा, न अब है। वे युद्धादि वर्णन भी तेरे बुद्धि-कौशलों का ही आविष्कार रहा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहदुक्थो वामदेव्यः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ६ त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु का युद्ध-वर्णन माया - मात्र है
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यत्) = जो (तन्वा) = शरीर से (वावृधान:) = सब प्रकार से हमारा वर्धन करते हुए आप (अचर:) = गति करते हो। और (जनेषु) = लोगों में बलानि शक्तियों को (प्रब्रुवाणः) = उपदिष्ट करते हुए चलते हैं । (सा) = वह सब (ते) = आपकी (इत्) = ही (माया) = माया है । (माया) = दया है [fity comprssion]। प्रभु ने हमें शरीर देकर तथा शक्तियों का उपदेश देकर हमारे पर सचमुच दया की है। [२] लोग जो नासमझी के कारण (ते) = आपके (यानि युद्धानि) = जिन दस्युओं [satan] से होनेवाले युद्धों का (आहुः) = कहते हैं (सा) = वह (इत्) = भी (माया) = आपकी माया ही है, प्रतीति मात्र है, आपके साथ युद्ध किसने करना ? आप (न अद्य) न तो आज और (न नु पुरा) = नांही पहले भी निश्चय से (शत्रुम्) = शत्रु को (विवित्से) = प्राप्त करते हैं । आपका शत्रु बन ही कौन सकता है ? आपकी कोई विरोधी शक्ति नहीं है। संसार में आपकी व्यवस्था से ही सब कार्य हो रहे हैं। शक्ति व बुद्धि को देकर जीव को स्वयं चलने की जो आपने स्वतन्त्रता दी है उसी के कारण वह गिरता है तो कष्ट भी उठाता है । स्वतन्त्रता देनी भी आवश्यक है, उसके अभाव में तो वह किसी भी प्रकार से उन्नति न कर पाता। संसार के दुःख ईश-विरोधी शक्ति शैतान के कारण नहीं है। नांही प्रभु के इन विरोधियों के साथ कोई युद्ध ही होते हैं ?
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें उन्नति के साधन प्राप्त कराते हैं । उन साधनों का स्वतन्त्रता से प्रयोग करते हुए हमें गलतियों के कारण कष्ट भी होते हैं । ईश के विरोधी के कारण ये कष्ट नहीं हैं।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (यत्-तन्वा बलानि वावृधानः) स्वात्मस्वरूपेण “आत्मा वै तनूः” [श० ६।७।२।६] स्वव्याप्त्या वा “तनूः-व्याप्तिः” [ऋ० ४।१०।६ दयानन्दः] स्वगुणवीर्याणि वर्धयन् (जनेषु प्रब्रुवाणः) मनुष्येषु प्रवचनं कुर्वन् (अचरः) प्राप्नोषि (ते यानि युद्धानि-आहुः) तत्र यानि-उपासकानां कामादिदोषप्रहारकर्माणि ते खलूपासकाः कथयन्ति (सा माया-इत्) सा तव माया हि सहजशक्तिरेव (न-अद्य शत्रुं ननु पुरा विवित्से) त्वं न-अस्मिन्-कल्पे न हि पुराकल्पे शत्रुं प्राप्नोषि ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
As you pervade among people, self-exalting by the power of your presence, and thereby manifest your own glory, and as poets and sages sing and celebrate your battles against evils within and without in the world of humanity, all this glory is but your own essential divine potential, and that is why you have had no enemy ever before nor do you have any even now.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा वेदज्ञानाद्वारे जेव्हा आपल्या गुण व बलाने ऋषींमध्ये ज्ञान प्रकट करतो. त्यांच्या काम इत्यादी शत्रूंवर प्रहार करून आपला प्रभाव दर्शवितो. ती त्याची सहजशक्ती आहे. त्या परमात्म्याचा या कल्पात कोणी शत्रू नाही किंवा पूर्वीही कोणी नव्हता. केवळ माणसांच्या आंतरिक शत्रूंवर प्रहार करणे हे लक्ष्य आहे. ॥२॥
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