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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
    ऋषिः - त्रितः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यो भा॒नुभि॑र्वि॒भावा॑ वि॒भात्य॒ग्निर्दे॒वेभि॑ॠ॒तावाज॑स्रः । आ यो वि॒वाय॑ स॒ख्या सखि॒भ्योऽप॑रिह्वृतो॒ अत्यो॒ न सप्ति॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । भा॒नुऽभिः॑ । वि॒भाऽवा॑ । वि॒ऽभाति॑ । अ॒ग्निः । दे॒वेभिः॑ । ऋ॒तऽवा॑ । अज॑स्रः । आ । यः । वि॒वाय॑ । स॒ख्या । सखि॑ऽभ्यः । प॒रि॒ऽह्वृतः॑ । अत्यः॑ । न । सप्तिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो भानुभिर्विभावा विभात्यग्निर्देवेभिॠतावाजस्रः । आ यो विवाय सख्या सखिभ्योऽपरिह्वृतो अत्यो न सप्ति: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । भानुऽभिः । विभाऽवा । विऽभाति । अग्निः । देवेभिः । ऋतऽवा । अजस्रः । आ । यः । विवाय । सख्या । सखिऽभ्यः । परिऽह्वृतः । अत्यः । न । सप्तिः ॥ १०.६.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः-अग्निः-विभावा) जो परमात्मा विशेष प्रकाशमान (भानुभिः-देवेभिः-विभाति) अपने प्रकाशों द्वारा मुक्त आत्माओं के साथ तथा सूर्य ग्रहों के साथ विशेष प्रकाशमान हो रहा है (ऋतावा- अजस्रः) सत्यनियमवाला और एकरस अविनाशी (यः सखिभ्यः सख्या-आविवाय) जो समान खयानवाले उपासक आत्माओं के लिये समान खयान मित्र भाव से तथा सूर्य ग्रहों के लिये समानस्थान भाव से विशेष प्राप्त होता है (अपरिह्वृतः-न अत्यः सप्तिः) सरलगामी सततगतिशील घोड़े के समान ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा अपने प्रकाश से मुक्तात्माओं के साथ रहता है, वह सत्यज्ञानवान् एकरस है, उपासक आत्माओं का मित्र है, उन्हें सरलरूप से प्राप्त होता है। ऐसे ही सूर्य भी आकाश में वर्तमान हुआ अपने प्रकाश से ग्रहों के साथ मित्र सा बना रहता है ॥२॥

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    विषय

    ज्ञानदीप्ति व क्रियाशीलता

    पदार्थ

    'गत मन्त्र के अनुसार जो व्यक्ति प्रभु के रक्षण में चलता है वह कैसा बनता है ?' इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि (यः) = जो (भानुभिः) = ज्ञान की दीप्तियों से (विभाव) = विशेष रूप से ही दीप्तिमान् होता है, (अग्निः) = गतिशील होता हुआ (देवेभिः) = सब दिव्यगुणों से (विभाति) = सुभूषित जीवनवाला होता है । (ऋतावा) = यह सदा ऋत का रक्षण व पालन करता है, इसका कोई भी कार्य अनृत को लिये हुए नहीं होता। (अजस्त्र:) = यह सतत कार्यों को करनेवाला होता है, 'निरग्नि व अक्रिय' नहीं हो जाता, क्रियाशील बना रहता है। वह जो सख्या उस सखिभूत परमात्मा के साथ (आविवाय) = अपने कर्त्तव्यों की ओर जानेवाला होता है। प्रभु का स्मरण करता है और कर्मशील होता है। अपने लिये इसे कुछ करने को नहीं भी होता तो भी (सखिभ्यः) = अपने मित्रों के कार्यों के लिये यह (अपरिहृतः) = अपरिहिंसित व अपरिकान्त होता है । उनके हितसाधन को करता हुआ यह थक नहीं जाता। अनथक रूप से कार्य में उसी प्रकार सदा प्रवृत्त रहता है जैसे कि उसका पिता प्रभु 'स्वाभाविक क्रिया' वाला है। यह इस प्रकार क्रियाशील होता है (न) = जैसे (अत्यः) = एतत गमनशील (सप्तिः) = घोड़ा। घोड़ा खूब गतिशील है, 'अनध्वा वाजिनां जरा' मार्ग पर न चलना पड़े तो घोड़ा शीघ्र बूढ़ा हो जाता है। इसी प्रकार इस प्रभु-भक्त को भी (अ) = क्रिया निर्बल करती प्रतीत होती है, वह क्रिया में ही शक्ति का अनुभव करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - उत्कृष्ट ज्ञान की तेजस्विता व क्रियाशीलता ही मनुष्य के जीवन को आदर्श बनाती है।

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    विषय

    प्रकाश से भानुवत् सबको धर्म का शिक्षक गुरु।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (भानुभिः) प्रकाशों से (अग्निः) अग्नि प्रकाशक होकर (वि भाति) विशेष रूप से चमकता और प्रकाश करता है उसी प्रकार (यः) जो (अजस्रः) न नाश होने वाला, (ऋतावा) सत्य ज्ञानवान्, यज्ञवान् पुरुष भी (देवेभिः) अपने उत्तम गुणों और उत्तम विद्वानों, विजयी वीरों से (वि-भाति) चमकता है ओर (यः) जो (सखिभ्यः) मित्रों के लिये (सख्या आ विवाय) सख्य भाव से प्राप्त होता है वह (सप्तिः न अत्यः) वेगवान् अश्व के समान (अपरिह्वृतः) कभी कुटिल मार्गगामी नहीं होता।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। २ विराट् पंक्ति। ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् पंक्तिः। ६ पंक्तिः। ७ पादनिचृदत्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यः-अग्निः-विभावा) यः परमात्मा सूर्यो वा विशिष्टप्रकाशमानः (भानुभिः-देवेभिः-विभाति) स्वप्रकाशैर्विशिष्टं प्रकाशते तथा सूर्योऽन्यान् लोकांश्च प्रकाशयति (ऋतावा) सत्यनियमवान् (अजस्रः) अनुपक्षीणः-अबाध्यः-एकरसः (यः सखिभ्यः सख्या-आविवाय) यः परमात्मा मुमुक्षुजीवात्मभ्यः समानख्यानेन “द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया” [ऋ० १।१६४।२०] उक्तत्वात्, तथा द्युस्थानकेभ्यश्च समानस्थानभावेन विशिष्टं प्राप्नोति (अपरिह्वृतः-न अत्यः सप्तिः) अकुटिलः सरलगतिकः सततगमनशीलोऽश्व इव ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni who, self-refulgent and gracious, shines along with the light of divinities and light of cosmic stars, keeps the eternal laws and values of life and nature, and who, ever true, inviolable and unviolated, goes on with love and friendship with the friends and celebrants of divinity like energy itself, constantly.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा आपल्या प्रकाशाने मुक्तात्म्याबरोबर राहतो. तो सत्यज्ञानी व एकरस आहे. तो उपासक आत्म्यांचा मित्र आहे. त्यांना सहजतेने प्राप्त होतो, तसेच सूर्यही आकाशात वर्तमान असून, आपल्या प्रकाशाने ग्रहांबरोबर मित्रासारखा राहतो. ॥२॥

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