ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 3
ईशे॒ यो विश्व॑स्या दे॒ववी॑ते॒रीशे॑ वि॒श्वायु॑रु॒षसो॒ व्यु॑ष्टौ । आ यस्मि॑न्म॒ना ह॒वींष्य॒ग्नावरि॑ष्टरथः स्क॒भ्नाति॑ शू॒षैः ॥
स्वर सहित पद पाठईशे॑ । यः । विश्व॑स्याः । दे॒वऽवी॑तेः । ईशे॑ । वि॒श्वऽआ॑युः । उ॒षसः॑ । विऽउ॑ष्टौ । आ । यस्मि॑न् । म॒ना । ह॒वींषि॑ । अ॒ग्नौ । अरि॑ष्टऽरथः । स्क॒भ्नाति॑ । शू॒षैः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ईशे यो विश्वस्या देववीतेरीशे विश्वायुरुषसो व्युष्टौ । आ यस्मिन्मना हवींष्यग्नावरिष्टरथः स्कभ्नाति शूषैः ॥
स्वर रहित पद पाठईशे । यः । विश्वस्याः । देवऽवीतेः । ईशे । विश्वऽआयुः । उषसः । विऽउष्टौ । आ । यस्मिन् । मना । हवींषि । अग्नौ । अरिष्टऽरथः । स्कभ्नाति । शूषैः ॥ १०.६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः-विश्वस्याः-देववीतेः-ईशे) जो अग्रणायक परमात्मा सकल दिव्यभोगप्राप्ति का स्वामित्व करता (विश्वायुः-व्युष्टौ-उषसः-ईशे) पूर्ण आयु जिससे-जिसकी शरण से स्तुति प्रार्थना उपासना द्वारा प्राप्त होती है, ऐसा वह परमात्मा बुद्धि के विकास में स्वामी है (यस्मिन्-अग्नौ) जिस परमात्मा में (मना-हवींषि) मननीय या मन से स्तुति प्रार्थनोपासनारूप वचन भेंट किये जाते हैं, ऐसा वह परमात्मा (अरिष्टरथः) उपासकों का अहिंसनीय रमणाधार है (शूषैः-आस्कभ्नाति) अपने बलों से दिव्यभोगों, उँची बुद्धि और जगत् को अपने में आश्रय देता है ॥३॥
भावार्थ
अग्रणायक परमात्मा उपासकों के लिये दिव्यभोगों और प्रकाशमय बुद्धि को प्रदान करने में समर्थ है, उसकी स्तुति प्रार्थना उपासना करनेवालों को वह पूर्ण आयु देता है ॥३॥
विषय
अरिष्ट-रथ
पदार्थ
भगत मन्त्र के ही प्रकरण को ही आगे कहते हैं कि प्रभु की शरण में रहनेवाला वह है (यः) = जो (विश्वस्या:) = सम्पूर्ण (देववीतेः) = दिव्यगुणों की प्राप्ति का (ईशे) = ईश होता है, अर्थात् सब दिव्यगुणों को प्राप्त करने में समर्थ होता है । (उषसः व्युष्टौ) = उषः काल के उदित होने पर (विश्वायुः) = पूर्ण जीवनवाला बना हुआ यह 'त्रित' [मन्त्र का ऋषि] (ईशे) = उन दिव्यगुणों की प्राप्ति के लिए सामर्थ्यवान् होता है। वस्तुतः यह त्रित उष:काल में अवश्य प्रबुद्ध होकर, पवित्र भावना से प्रभु के स्वागत के लिए उद्यत होता है। ये प्रभु प्रातः आते हैं और जब हम इनका स्वागत करते हैं तो ये हमें द्युमत्तम रयि = अत्यन्त ज्योतिर्मय धनों को प्राप्त कराते हैं । (यस्मिन् अग्नौ) = जिस प्रगतिशील व्यक्ति के जीवन में (मना) = मननीय, ज्ञान को बढ़ानेवाली, बुद्धि की मननशक्ति को दी करनेवाली (हवींषि आ) [हुतानि] = हवियाँ आहुत होती हैं, अर्थात् जो सदा त्याग पूर्वक उपभोग करता है, दूसरे शब्दों में अमृत [यज्ञशेष] का सेवन करता है वह (अरिष्टरथः) = अहिंसित शरीर वाला होता हुआ (शूषैः) = शत्रुओं के शोषक बलों से स्कभ्नाति= सब अशुभ वासनाओं के आक्रमणों को रोक देता है । अर्थात् सात्त्विक अन्न के सेवन से तथा यज्ञशेष के रूप में भोजन करने से इसकी बुद्धि व मनोवृत्ति भी बड़ी सात्त्विक बनी रहती हैं और यह वासनाओं से आक्रान्त नहीं होता ।
भावार्थ
भावार्थ - सात्त्विक यज्ञशिष्ट भोजन हमें सब दिव्यगुणों की प्राप्ति के योग्य बनाता है ।
विषय
प्रभु और सेनापति का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो (विश्वस्याः देववीतेः) समस्त संसार के प्रकाशमान सूर्यादि लोकों के प्रकाश करने में (ईशे) समर्थ है, और जो (विश्वायुः) सर्वव्यापक, सबका जीवनदाता होकर (उषसः) प्रभात के (वि-उष्टौ ईशे) प्रकाशित करने में सूर्यवत् समर्थ है। (यस्मिन् अग्नौ) जिस अग्निवत् प्रकाशस्वरूप ज्ञानमय में (मना हवींषि) समस्त विचार योग्य ज्ञान ही अग्नि में हवि के समान हैं, वह (अरिष्ट-रथः) अति मंगलकारक रमणीय स्वरूप वाला प्रभु (शूषैः स्कभ्नाति) अपने बलों से समस्त जगत् को थामता है। (२) इसी प्रकार जो सब वीरों के भोजन देने में समर्थ है, जो सबका जीवन रक्षक, (उषसः) कामना करने और शत्रु को भस्म करने वाली प्रजा वा सेना को तीक्षण करने में समर्थ है जिस में सब स्तुति और देने योग्य भेदें, करादि प्राप्त हों वह अनष्ट रथ वाला अपने बलों से राष्ट्र को दृढ़ करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। २ विराट् पंक्ति। ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् पंक्तिः। ६ पंक्तिः। ७ पादनिचृदत्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यः-विश्वस्याः-देववीतेः-ईशे) योऽग्निरग्रणायकः परमात्मा सकलाया दिव्यभोगप्राप्तेः “देववीतये दिव्यानां भोगानां प्राप्तये” [यजु० १।२२ दयानन्दः] ईष्टे स्वामित्वं करोति-स्वामी खल्वस्ति (विश्वायुः-व्युष्टौ-उषसः-ईशे) विश्वं पूर्णमायुर्यस्मात् सः परमात्मा “विश्वमायुर्यस्मात् सः” [यजु० १।२२ दयानन्दः] तथा बुद्धेर्विकासे च स परमात्मा स्वामी खल्वस्ति (यस्मिन्-अग्नौ) यस्मिन्नग्रणायके परमात्मनि (मना-हवींषि) मननीयानि स्तुतिप्रार्थनोपासनवचनानि देयानि समर्प्याणि समर्प्यन्ते सः (अरिष्टरथः) उपासकानामहिंसनीयरमणाधारः (शूषैः-आस्कभ्नाति) स्वकीयबलैः “शूषं बलनाम” [निघ० २।९] सकलं दिव्यं सुखं ज्ञानं जगच्च स्वाश्रये धारयति ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni who rules over all the divine bliss and yajnic gifts of the world, who, life of the world, is the life giver and rules over lights of the dawn and maturation of wisdom, for whom oblations of yajna are offered into the fire with heart and soul, that Agni of the unviolated cosmic chariot sustains the universe by his omnipotent powers.
मराठी (1)
भावार्थ
अग्रनायक परमात्मा उपासकांसाठी दिव्यभोग व प्रकाशमय बुद्धी प्रदान करण्यास समर्थ आहे. त्याची स्तुती, प्रार्थना, उपासना करणाऱ्यांना तो पूर्ण आयुष्य देतो. ॥३॥
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