ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
शू॒षेभि॑र्वृ॒धो जु॑षा॒णो अ॒र्कैर्दे॒वाँ अच्छा॑ रघु॒पत्वा॑ जिगाति । म॒न्द्रो होता॒ स जु॒ह्वा॒३॒॑ यजि॑ष्ठ॒: सम्मि॑श्लो अ॒ग्निरा जि॑घर्ति दे॒वान् ॥
स्वर सहित पद पाठशू॒षेभिः॑ । वृ॒धः । जु॒षा॒णः । अ॒र्कैः । दे॒वान् । अच्छ॑ । र॒घु॒ऽपत्वा॑ । ज॒गा॒ति॒ । म॒न्द्रः । होता॑ । सः । जु॒ह्वा॑ । यजि॑ष्ठः । सम्ऽमि॑श्लः । अ॒ग्निः । आ । जि॒घ॒र्ति॒ । दे॒वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
शूषेभिर्वृधो जुषाणो अर्कैर्देवाँ अच्छा रघुपत्वा जिगाति । मन्द्रो होता स जुह्वा३ यजिष्ठ: सम्मिश्लो अग्निरा जिघर्ति देवान् ॥
स्वर रहित पद पाठशूषेभिः । वृधः । जुषाणः । अर्कैः । देवान् । अच्छ । रघुऽपत्वा । जगाति । मन्द्रः । होता । सः । जुह्वा । यजिष्ठः । सम्ऽमिश्लः । अग्निः । आ । जिघर्ति । देवान् ॥ १०.६.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सः-अग्निः) वह अग्रणायक परमात्मा (अर्कैः-जुषाणः) अर्चन करनेवाले मन्त्रों द्वारा प्रसन्न होनेवाला या प्रसन्न किया जानेवाला (शूषैः-वृधः) अपने बलों से प्रवृद्ध बढ़ा-चढ़ा हुआ (देवान्) उपासक विद्वानों को (रघुपत्वा) लघु-अत्यल्प समय या शीघ्र-तुरन्त प्राप्त होनेवाला (अच्छा जिगाति) सीधा बिना किसी रुकावट के प्राप्त होता है (मन्द्रः-होता) वह स्तुति करने योग्य उपासकों को अपना बनानेवाला (जुह्वा यजिष्ठः) आत्मा के द्वारा अतीव यजनीय सङ्गमनीय (सम्मिश्लः) अपने में उपासकों को मिलानेवाला तल्लीन करनेवाला (देवान्-आ जिघर्ति) उपासकों को आनन्दामृत से सींचता है ॥४॥
भावार्थ
परमात्मा उपासकों की अर्चनाओं से प्रसन्न होता है, उन पर कृपा करता है, वह उन्हें शीघ्र प्राप्त होता है-स्वीकार करता है या अपनाता है। वह परमात्मा आत्मा द्वारा सङ्गमनीय है, उपासकों को आनन्दामृत से सींच देता है ॥४॥
विषय
संमिश्ल
पदार्थ
गत मन्त्र में वर्णित (शूषेभिः) = शत्रु शोषक बलों से (वृधः) = सदा बढ़नेवाला यह बनता है। वासनाओं का शोषण करके यह सब दृष्टिकोणों से उन्नत होता है। इसकी शरीर की शक्तियों का क्षय नहीं होता, मानस पवित्रता बनी रहती है, और इसका मस्तिष्क खूब उज्ज्वल बनता है। एवं यह इन 'शूषों' से शत्रुओं का शोषण करता हुआ उन्नत ही उन्नत होता चलता है । उन्नत होकर यह (अर्कैः) = अर्चना के साधनभूत मन्त्रों से (जुषाण:) = प्रीति पूर्वक प्रभु का उपासन करता है। यह प्रभु का उपासन ही तो वस्तुतः उस शत्रुशोषक बल को प्राप्त कराता है और उस बल के अभिमान से भी बचाता है । इस प्रकार दिव्य उन्नति के साथ नम्र बना हुआ यह (रघुपत्वा) = [लघुगमन:] शीघ्रगतिवाला, अर्थात् कर्मों में आलस्य शून्य हुआ हुआ देवाँ अच्छा-दिव्यगुणों की ओर जिगाति = जाता है । यह दिव्यगुणों को प्राप्त करता है । मन्द्रः सदा आनन्दमय स्वभाव वाला होता है, (होता) = सदा दानपूर्वक अदन करता है, यज्ञशेष को खाता है और (जुह्वा यजिष्ठ:) = चम्मच से अथवा दान पूर्वक अदन की वृत्ति से उत्तम यष्टा बनता है, इसका जीवन यज्ञशील होता है। इस प्रकार सुन्दर जीवनवाला बनकर यह (संमिश्ल:) = सब के साथ मिलकर चलता है, मिलनसार स्वभाव वाला होता है, औरों के सुख-दुःख में हिस्सा बटाता है । इस प्रकार अग्नि यह प्रगतिशील जीव (देवान्) = दिव्यगुणों वाले ज्ञानी विद्वानों को (आजिघर्ति) = [आहारयति] अपने घर पर प्राप्त कराता है। इस प्रकार इसका यह अतिथियज्ञ चलता है और यह उन अतिथियों की सप्रेरणा से सदा सुन्दर जीवनवाला बना रहता है।
भावार्थ
भावार्थ- शत्रुशोषक बलों से चलनेवाला यह सदा आनन्दमय स्वभाव वाला व यज्ञशील तथा मिलनसार होता है
विषय
सर्वश्रेष्ठ स्तुत्य, ज्ञानी पुरुष।
भावार्थ
(सः) वह (शूषेभिः वृधः) नाना बलों से स्वयं बढ़ने और अन्यों को बढ़ाने वाला, और (अर्कैः जुषाणः) अर्चना, स्तुत्यादि करने योग्य, स्तुति वचनों से सेवनीय, प्रीति करने वाला, (रघुपत्वा) तीव्र गामी रथों, अश्वों से जाने वाला, (अग्निः) अग्निवत् तेजस्वी पुरुष, (देवान् अच्छ जिगाति) समस्त विद्वानों, वीरों को आदर पूर्वक प्राप्त करता है। वह (मन्द्रः) स्तुति योग्य (होता) सब सुखों का दाता, शत्रुओं को ललकारने वाला, (जुह्वा यजिष्ठः) उत्तम वाणी से सब का सत्कार करने वाला, (सं-मिशलः) सब के साथ प्रेमभाव से सम्बद्ध, (अग्निः) ज्ञानी और तेजस्वी पुरुष (देवान् आ जिघर्त्ति) सब उत्तम गुणों, जनों और वीरों को प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। २ विराट् पंक्ति। ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् पंक्तिः। ६ पंक्तिः। ७ पादनिचृदत्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सः-अग्निः) सोऽग्रणायकः परमात्मा (अर्कैः-जुषाणः) अर्चनीयैर्मन्त्रैः “अर्को मन्त्रो भवति यदनेनार्चन्ति” [निरु० ५।४] प्रियमाणः सेव्यमानो वा विद्वद्भिरुपासकैः (शूषेभिः-वृधः) स्वबलैः प्रवृद्धः सन् (देवान्) तान् विदुष उपासकान् (रघुपत्वा) लघुना समयेन शीघ्रतया यो याति सः शीघ्रगामी सद्यः प्रापणशीलः रघूपधात् ‘पत्’ धातोः क्वनिप् प्रत्ययः “अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते” [अष्टा० ३।२।७५] सः (अच्छा जिगाति) अच्छाभिमुखमप्रतिबन्धेन प्राप्नोति “जिगाति गतिकर्मा” [निघ० २।१४] तथा (मन्द्रः-होता) स्तुत्यः-आदाता स्वीकारकर्त्ता (जुह्वा यजिष्ठः) आत्मना “आत्मा वै जुहूः” [मै० ४।१।१२] अतिशयेन यजनीयः, कर्मणि कर्त्तृप्रत्ययो व्यत्ययेन (सम्मिश्लः) स्वस्मिनुपासकान् सम्यक्-मिश्रयति सः “कपलिकादीनामिति वक्तव्यम्” [अष्टा० ८।२।१८ वा०] इति रेफस्य लत्वम् (देवान् आजिघर्ति) तानुपासकान्-आनन्दामृतेन सिञ्चति “घृतमुदकनाम जिघर्त्तेः सिञ्चतिकर्मणः” [निरु० ७।२४] ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, self-exalted by its own powers and majesty, loved and adored with Vedic hymns, awakens and inspires the divinities at the earliest and fastest. Charming and adorable, holy receiver and liberal giver, most highly worshipped with heart and soul, universally immanent and pervasive, Agni blesses the sages with divine gifts of holiness and grace.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपासकांच्या अर्चनांनी प्रसन्न होतो. त्यांच्यावर कृपा करतो. तो त्यांना तात्काळ प्राप्त होतो, स्वीकार करतो किंवा आपलेसे करतो. तो परमात्मा आत्म्याद्वारे संग करण्यायोग्य आहे. उपासकांना आनंदामृताने सिंचित करतो. ॥४॥
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