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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 88/ मन्त्र 19
    ऋषिः - मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा देवता - सूर्यवैश्वानरौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    या॒व॒न्मा॒त्रमु॒षसो॒ न प्रती॑कं सुप॒र्ण्यो॒३॒॑ वस॑ते मातरिश्वः । ताव॑द्दधा॒त्युप॑ य॒ज्ञमा॒यन्ब्रा॑ह्म॒णो होतु॒रव॑रो नि॒षीद॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या॒व॒त्ऽमा॒त्रम् । उ॒षसः॑ । न । प्रती॑कम् । सु॒ऽप॒र्ण्यः॑ । वस॑ते । मा॒त॒रि॒श्वः॒ । ताव॑त् । द॒धा॒ति॒ । उप॑ । य॒ज्ञम् । आ॒ऽयन् । ब्रा॒ह्म॒णः । होतुः॑ । अव॑रः । नि॒ऽसीद॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यावन्मात्रमुषसो न प्रतीकं सुपर्ण्यो३ वसते मातरिश्वः । तावद्दधात्युप यज्ञमायन्ब्राह्मणो होतुरवरो निषीदन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यावत्ऽमात्रम् । उषसः । न । प्रतीकम् । सुऽपर्ण्यः । वसते । मातरिश्वः । तावत् । दधाति । उप । यज्ञम् । आऽयन् । ब्राह्मणः । होतुः । अवरः । निऽसीदन् ॥ १०.८८.१९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 88; मन्त्र » 19
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मातरिश्वन्) हे वायु ! हे जीवात्मन् ! (उषसः प्रतीकम्) उषोवेला का हमारे सामने व्यक्तरूप पुनः दर्शन (न) जैसे होता है (सुपर्ण्यः-वसते) उत्तम उड़नेवाले पक्षी उस उषा को आच्छादित करते हैं सूर्यकिरणें (तावत्) उस काल में (होतुः) होमनेवाले अग्नि का (अवरः-ब्राह्मणः) इधर का ब्राह्मणजन होता बनकर (निषीदन्) बैठने के हेतु (यज्ञम्-आयन्) यज्ञ को प्राप्त होता है (तावत्-उप दधाति) तब तक उस यज्ञ का उपधान करता है-आश्रय लेता है ॥१९॥

    भावार्थ

    उषावेला तब तक कहलाती है, जब तक सूर्यकिरणें उसे आच्छादित न कर दें, जब ढक दें, तब मनुष्य यज्ञ अग्निहोत्र करना आरम्भ करे, पूर्व नहीं, पूर्व तो ब्रह्मयज्ञ की वेला है ॥१९॥

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    विषय

    सन्ध्या-हवन

    पदार्थ

    [१] हे (मातरिश्वः) = मातृ गर्भ में बढ़नेवाले जीव ! [मातरि श्वयति] अथवा सृष्टि-निर्माता प्रभु में स्थित होकर गति करनेवाले जीव ! (सुपर्ण्य:) = रात्रियाँ (यावत् मात्रम्) = ज्यूँ ही (उषसः) = उषा के (प्रतीकम्) = मुख को (न वसते) = आच्छादित नहीं करती, अर्थात् ज्यूँ ही रात्रि का अन्धकार समाप्त होता है और उषा का प्रादुर्भाव होता है, (तावत्) = ज्यूँ ही (ब्राह्मण:) = ज्ञानी पुरुष (होतुः) = इस सृष्टियज्ञ के होता प्रभु के (अवर:) = नीचे (निषीदन्) = नम्रता से बैठता हुआ, अर्थात् प्रभु का ध्यान करता हुआ और इस प्रकार (उप आयन्) = प्रभु के समीप आता हुआ (यज्ञं दधाति) = यज्ञ को धारण करता है । [२] ज्ञानी पुरुष उषा के होते ही नम्रतापूर्वक प्रभु का स्मरण करता है और प्रभु स्मरण के अनन्तर यज्ञ में प्रवृत्त होता है । यह यज्ञ श्रेष्ठतम कर्मों का प्रतीक है। एवं संक्षेप में यह प्रभु को याद करता है और उत्तम कर्मों में लगा रहता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञानी पुरुष वही है जो प्रभु स्मरण पूर्वक उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहे। सारे सूक्त में यही भाव ओतप्रेत है कि मनुष्य उत्तम कर्मों में व्याप्त रहे । यह उत्तम कर्मों को करनेवाला 'रेणु' = बनता है [ री गतौ] इस गति के द्वारा ही यह प्रभु का आलिंगन करनेवाला होता है [ री षणे]। यही अगले सूक्त का ऋषि है। इसकी यही कामना है कि मैं प्रभु का स्तवन करूँ, उस प्रभु का जो मुझे सदा उत्तम कर्मों में प्राप्त कराते हैं ।

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    विषय

    आपत्कालिक यज्ञाग्निवत् आत्म-साक्षात्‌कार तक आत्मोपासना का प्रतिपादन।

    भावार्थ

    (यावत्-मात्रम्) जब तक जितने काल तक, (उषसः प्रतीकम्) उषा काल का प्रतीति कराने वाले तेज को, (न) मुख को वस्त्र के तुल्य (सुपर्ण्यः वसते) रात्रियें आच्छादित किये रहती हैं। हे (मातरिश्वः) अन्तरिक्षवत् आकाश, हृदय देश में विचरने हारे ! वा मातृतुल्य जगत्-प्रभु के आगे वेग से बढ़ने हारे साधक ! (तावत्) तबतक (अवरः ब्राह्मणः) श्रेष्ठ, एक वेदज्ञ ब्राह्मण विद्वान् (होतुः) होता रूप अग्नि के समीप (निषीदन्) बैठकर (आयन्) समीप आता हुआ (यज्ञम् उप दधाति) यज्ञ की उपासना करता है। यज्ञ में—होता रूप स्वयं दी हुई आहुति को लेने वाला अग्नि है, उसके समीप यज्ञकर्ता बैठ कर यज्ञ करने के पूर्व उषा के प्रकट होने तक केवल विना आहुति वैश्वानरीय सूक्त का जप करता है। वह यज्ञ की उपासना करता है। इसी प्रकार अध्यात्म में—विशोका ज्योतिष्मती ‘उषा’ है उसके प्रकाश को जबतक लोक-सुख की वासना रूप रात्रियां या व्युत्थान-वृत्तियां घेरे रहती हैं तब तक ब्रह्म का उपासक पुरुष उस सर्वसुखदाता प्रभु का (अवरः) दास वा शिष्य, या छोटे भाई के तुल्य होकर ‘यज्ञ’, सर्वप्रद, प्रभु के समीप आता हुआ उसका (उप दधाति) उपधान, उपासना प्रणिधान करता है। ईश्वरप्रणिधानाद्वा। पतञ्जलि।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा॥ देवता—सूर्यवैश्वानरो॥ छन्दः—१–४, ७, १५, १९ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ८ त्रिष्टुप्। ६, ९–१४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। १८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मातरश्विन्) हे वायो ! जीवात्मन् ! (उषसः प्रतीकम्) उषसः प्रत्यक्तम्-अस्मदभिमुखं व्यक्तत्वं प्रतिदर्शनं वा भवति (न) सम्प्रति “उपमानस्य सम्प्रत्यर्थे प्रयोगः” [निरु० ७।३१] (सुपर्ण्यः-वसते) सुपतनाः पतत्रयो वसते-उषसं छादयन्ति (तावत्) तस्मिन् काले (होतुः) होतृभूतस्य-अग्नेः (अवरः-ब्राह्मणः) अवरो मनुष्यो होता (निषीदन्) उपविशन् (यज्ञम्-आयन्) यज्ञमागच्छन् (तावत्-उपदधाति) तावत्कालं तं यज्ञमुप धारयति ॥१९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    As long as the all moving glorious Vayu, the electric form of Agni, with radiant sun rays bears and wears the face of dawn as its banner of the day, so long would the holy yajaka, the Brahmana, go to the yajna vedi and sit and offer the fragrant havi in honour of the terrestrial fire, the high priest of yajna.$Note: The answer to these questions is given in Rgveda 8, 58, 2: The same one Agni shines and blazes in many forms, The same one sun shines in all lights of the universe, the same one dawn rises over all this world, and the same one lord of existence manifests in all forms of the world,

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जोपर्यंत सूर्यकिरणे उषेला आच्छादित नाहीत, तोपर्यंत उष:काल म्हणविला जातो. जेव्हा उषा झाकली जाते तेव्हा माणसाने अग्निहोत्र करणे सुरू करावे. त्यापूर्वी नाही. त्यापूर्वीची वेळ ब्रह्मयज्ञाची वेळ आहे. ॥१९॥

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