ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 21/ मन्त्र 3
स॒त्रा॒सा॒हो ज॑नभ॒क्षो ज॑नंस॒हश्च्यव॑नो यु॒ध्मो अनु॒ जोष॑मुक्षि॒तः। वृ॒तं॒च॒यः सहु॑रिर्वि॒क्ष्वा॑रि॒त इन्द्र॑स्य वोचं॒ प्र कृ॒तानि॑ वी॒र्या॑॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्रा॒ऽस॒हः । ज॒न॒ऽभ॒क्षः । ज॒न॒म्ऽस॒हः । च्यव॑नः । यु॒ध्मः । अनु॑ । जोष॑म् । क्षि॒तः । वृ॒त॒म्ऽच॒यः । सहु॑रिः । वि॒क्षु । आ॒रि॒तः । इन्द्र॑स्य । वोच॑म् । प्र । कृ॒तानि॑ । वी॒र्या॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्रासाहो जनभक्षो जनंसहश्च्यवनो युध्मो अनु जोषमुक्षितः। वृतंचयः सहुरिर्विक्ष्वारित इन्द्रस्य वोचं प्र कृतानि वीर्या॥
स्वर रहित पद पाठसत्राऽसहः। जनऽभक्षः। जनम्ऽसहः। च्यवनः। युध्मः। अनु। जोषम्। उक्षितः। वृतम्ऽचयः। सहुरिः। विक्षु। आरितः। इन्द्रस्य। वोचम्। प्र। कृतानि। वीर्या॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या यथा सत्रासाहो जनभक्षो जनंसहश्च्यवनो युध्मो वृतञ्चयः सहुरिरारितो जोषमुक्षितस्सन्नहं विक्षु कृतानि वीर्य्या प्रवोचं तथा यूयमनुवदत ॥३॥
पदार्थः
(सत्रासाहः) यः सत्यं सहते (जनभक्षः) योजनैर्भक्षः सेवनीयः (जनंसहः) यो जनान् सहते (च्यवनः) च्यावयिता (युध्मः) योद्धा (अनु) (जोषम्) प्रीतिम् (उक्षितः) सेवितः (वृतञ्चयः) यो वर्त्तते तं चिनोति सः (सहुरिः) सहनस्वभावः (विक्षु) प्रजासु (आरितः) प्राप्तः (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवतः (वोचम्) वदेयम् (प्र) (कृतानि) निष्पन्नानि (वीर्य्या) पराक्रमयुक्तानि कर्माणि ॥३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये शमदमयमादिशुभकर्माचारिणो जनाः प्रजायां विद्या वर्द्धयन्ति ते जनैः सेव्या भवन्ति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो जैसे (सत्रासाहः) जो सत्य को सहता (जनभक्षः) जनों के सेवने योग्य (जनंसहः) जनों को सहने (च्यवनः) दुष्टों को गिराने (युध्मः) दुष्टों को युद्ध करने (वृतञ्चयः) और वर्त्तमान पदार्थ को इकट्ठा करनेवाला (सहुरिः) सहनशील (आरितः) प्राप्त (जोषम्) प्रीति को (उक्षितः) सेवता हुआ मैं (विक्षु) प्रजाजनों में (कृतानि) सिद्ध हुए (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवान् (वीर्य्या) पराक्रमयुक्त कर्मों को (प्र,वोचम्) अच्छे प्रकार कहूँ वैसे तुम (अनु) पीछे कहो ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो शम-दम और यमादि शुभकर्मों का आचरण करनेवाले जन प्रजा में विद्या बढ़ाते हैं, वे जनों के सेवने योग्य होते हैं ॥३॥
विषय
'च्यवन' प्रभु -
पदार्थ
१. वे प्रभु (सत्रासाहः) = सदा शत्रुओं का अभिभव करनेवाले हैं। (जनभक्षः) = अपनी शक्ति का प्रादुर्भाव करनेवाले लोगों से सम्भजनीय होते हैं- वस्तुतः प्रभु की भक्ति यही है कि हम अपनी शक्तियों का ठीक प्रकार से विकास करें। (जनंसहः) = प्रभु बलाभिमानी जनों का अभिभव करनेवाले हैं, (च्यवनः) = इन शत्रुभूत पुरुषों को स्वस्थान से च्युत करनेवाले (युध्मः) = योद्धा हैं। (जोषम् अनु) = प्रीतिपूर्वक उपासना के अनुपात में (उक्षितः) = हमारे जीवनों में सिक्त होते हैं। जितनी हम उपासना करते हैं— उतना ही प्रभु को पाते हैं। प्रभुप्राप्ति के अनुपात में ही हमारे शत्रुओं का क्षय होता है । (वृतंचय:) = [वर्तते- पुन: - पुन:-अभिमुखमागच्छति इति वृत् शत्रुः तं चयते हिनस्ति] हमारे शत्रुओं का वे प्रभु हिंसन करनेवाले हैं। (सहुरिः) = शत्रुओं का मर्षण करनेवाले हैं तथा (विक्षु आरितः) = सब प्रजाओं में पालकरूप से वे प्रभु प्राप्त हैं। इस (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के (कृतानि वीर्या) = किये हुए वृत्रहनादि कर्मों का (प्रवोचम्) = मैं प्रवचन व स्तवन करता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ - जितना हम प्रभु का उपासन करते हैं, उसी अनुपात में वे हमारे शत्रुओं का संहार करके हमारे जीवन को सुखी करते हैं।
विषय
उपासना
भावार्थ
( सत्रासाहः ) सत्य को सहन करने वाला, सत्य से शत्रु का पराजय करने वाला, ( जनभक्षः ) सब मनुष्यों को सेवन करने योग्य या सब प्रजाजन का भोक्ता, ( जनंसहः ) सब जन्तुओं को सहन करने अपने अधीन रखने में समर्थ, (च्यवनः) सब में व्यापक, दुष्टों प्रतिपक्षियों को रण में भगाने और राज्य से च्युत करने वाला, ( युध्मः ) दुष्टों पर विपत्ति वज्र का प्रहार करने वाला, युद्धशाली, (जोषम् अनु उक्षितः) प्रेम और सेवा को देखकर मेघ के समान बरसने वाला (वृतञ्चयः) विद्यमान धन का संचय करने वाला, ऋत, सत्य का एकमात्र पुञ्ज, सत्यमय या बढ़ते शत्रु की लक्ष्मी को फूल के समान चुन लेने वाला, (सहुरिः) सहनशील, ( विक्षु आरितः ) प्रजाओं में व्यापक शासन वाला है । मैं ऐसे ( इन्द्रस्य ) परमेश्वर और राजा के ( कृतानि ) किये गये ( वीर्या ) समस्त वीर्य, बल पराक्रम आदि ( प्रका वोचम् ) अन्यों को उपदेश करूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २ स्वराट् त्रिष्टुप् । ३, ६ त्रिष्टुप् । ४ विराट् जगती । ५ निचृज्जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे शम, दम व यम इत्यादी शुभ कर्मांचे आचरण करणारे लोक प्रजेमध्ये विद्या वाढवितात त्यांचा लोकांनी अंगीकार करावा. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let us celebrate the mighty actions and achievements of Indra, lord upholder of truth, adorable to people, patient lover of humanity, mover and promoter, warrior, giver of showers in response to prayer, integrative creator and organiser, tolerant and merciful, accessible to all people.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Qualities and duties of learned men are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! you tolerate truthfulness and render service to people. You tolerate good persons but fight and defeat the wickeds. I possess good stock of commodities, am tolerant and while serving the people with love, I mention the heroic and prosperous deeds of such learned persons. May you also follow the same path.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who serve the people with merits, tolerance and are of disciplined behavior, they are to be respected by all.
Foot Notes
(जनभक्षः ) यो जनैर्भक्ष: सेवनीयः । = Who is served by people,(च्यवनः ) च्यावयिता। = Smashers of wickeds. (युध्मः) योद्धा । = Warrior. (वृतञ्चयः ) यो वर्त्तते तं चिनोति सः = One who stocks the commodities. (सहुरिः) सहनस्वभावः = A man of tolerant nature. (विक्षु) प्रजासु = Among the people. (वोचम् ) वदेयम् । = I recite. (वीर्य्या) पराक्रमयुक्तानि कर्माणि। = Heroic deeds.
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