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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 23/ मन्त्र 14
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    तेजि॑ष्ठया तप॒नी र॒क्षस॑स्तप॒ ये त्वा॑ नि॒दे द॑धि॒रे दृ॒ष्टवी॑र्यम्। आ॒विस्तत्कृ॑ष्व॒ यदस॑त्त उ॒क्थ्यं१॒॑ बृह॑स्पते॒ वि प॑रि॒रापो॑ अर्दय॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तेजि॑ष्ठया । त॒प॒नी । र॒क्षसः॑ । त॒प॒ । ये । त्वा॒ । नि॒दे । द॒धि॒रे । दृ॒ष्टऽवी॑र्यम् । आ॒विः । तत् । कृ॒ष्व॒ । यत् । अस॑त् । ते॒ । उ॒क्थ्य॑म् । बृह॑स्पते । वि । प॒रि॒ऽरपः॑ । अ॒र्द॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तेजिष्ठया तपनी रक्षसस्तप ये त्वा निदे दधिरे दृष्टवीर्यम्। आविस्तत्कृष्व यदसत्त उक्थ्यं१ बृहस्पते वि परिरापो अर्दय॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तेजिष्ठया। तपनी। रक्षसः। तप। ये। त्वा। निदे। दधिरे। दृष्टऽवीर्यम्। आविः। तत्। कृष्व। यत्। असत्। ते। उक्थ्यम्। बृहस्पते। वि। परिऽरपः। अर्दय॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 23; मन्त्र » 14
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे बृहस्पते ये दृष्टवीर्यं त्वा निदे दधिरे तान् रक्षसो या तपन्यस्ति तया तेजिष्ठया त्वं तप यत्ते तवोक्थमसत्तदाविष्कृष्व परिरापो व्यर्द्दय॥१४॥

    पदार्थः

    (तेजिष्ठया) अतिशयेन तेजस्विन्या (तपनी) सन्तापिनी (रक्षसः) दुष्टान् (तप) सन्तापय (ये) (त्वा) त्वाम् (निदे) निन्दायै (दधिरे) (दृष्टवीर्य्यम्) दृष्टं सम्प्रेक्षितं वीर्य्यं यस्य तम् (आविः) प्राकट्ये (तत्) (कृष्व) कुरुष्व (यत्) (असत्) भवेत् (ते) तव (उक्थ्यम्) वक्तुं योग्यम् (बृहस्पते) बृहतां पालक (वि) (परिरापः) परितोरपः पापं यस्य तम् (अर्द्दय) नाशय ॥१४॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्निन्दकान् सर्वथा निवार्य स्तावकान् प्रसार्य सत्यविद्याः प्रकटीकार्याः ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (बृहस्पते) बड़ों की पालना करनेवाले (ये) जो (दृष्टवीर्यम्) देखा है पराक्रम जिसका ऐसे (त्वा) तुझको (निदे) निन्दा के लिये (दधिरे) धारण करते उन (रक्षसः) राक्षसों को जो (तपनी) तपानेवाली है उस (तेजिष्ठया) अतीव तेजस्विनी से आप (तप) प्रताप दिखाओ (यत्) जो (ते) आपका (उक्थ्यम्) कहने योग्य प्रस्ताव (असत्) हो (तत्) उसको (आविष्कृष्व) प्रकट कीजिए (परिरापः) और सब ओर से पाप जिसके विद्यमान उसको (वि,अर्द्दय) विशेषता से नाशिये ॥१४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि निन्दकों की सर्वथा निवारि और स्तुति करनेवालों को बढ़ाय सत्यविद्याओं का प्रकाश करें ॥१४॥

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    विषय

    प्रभु का दण्ड

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! (ये) = जो (दृष्टवीर्यम्) = दृष्ट पराक्रमवाले भी (त्वा) = आपको (निदे दधिरे) = निन्दा के लिए धारण करते हैं, अर्थात् एक-एक रचना में जिन आपकी शक्ति का प्रकाश हो रहा है-उन आपको जो सदा निन्दित करते हैं, उन रक्षसः = राक्षसीवृत्तिवाले पुरुषों को (तेजिष्ठया) = अत्यन्त तीव्र (तपनी) = तपन-साधन आयुध से (तप) = सन्तप्त करिए। धनादि के मद में आसुरवृत्तिवाले पुरुष 'ईश्वरोऽहं ' अपने को ईश्वर समझने लगते हैं और नास्तिकवृत्ति के बन जाते हैं। इन पर प्रभु का कोप होता है–किसी तीव्र विपत्ति के पड़ने पर ही ये संतप्त होते हैं और अपने राक्षसीभाव को दूर करने का फिर से विचार करते हैं । २. हे (बृहस्पते) = इन महान् आकाशादि लोकों के स्वामिन् प्रभो ! (यत्) = जो- (ते) = आपका (उक्थ्यम्) = प्रशंसनीय-स्तुति के योग्य पराक्रम (असत्) = है (तत्) = उसे आविष्कृष्व प्रकट करिए और इस पराक्रम से (परिरापः) = चारों ओर परिवादवृत्तिवाले इन लोगों को (वि अर्दय) = विशेषरूप से पीड़ित करिए। इस पीड़ा से ही इनका हृदय परिवर्तित हो पायेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ – नास्तिकवृत्तिवाले लोग प्रभुविस्मरण से विलास में डूब जाते हैं। प्रभु का दण्ड इन्हें फिर से सावधान करनेवाला होता है ।

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    विषय

    राज्यपालक राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( बृहस्पते ) बड़े बड़ों के मालिक ! ( ये ) जो दुष्ट पुरुष ( दृष्टवीर्यं ) अपने बल को ठीक २ प्रकार के युद्ध आदि अवसरों में दिखा कर कीर्ति प्राप्त करने वाले, सत्य पराक्रमी ( त्वा ) तुझे ( निदे दधिरे ) निन्दा का पात्र बनाते हैं अर्थात् तेरी निन्दा करते हैं तू उन ( रक्षसः ) विघ्नकारी दुष्ट पुरुषों को (तेजिष्ठया) अति तेजस्विनी, खूब तीखी (तपनी ) संताप और पीड़ा देने वाली व्यवस्था, शक्ति या सेना से (तप) पीड़ित कर । ( यत् ) जो ( तेरा ) ( उक्थ्यं ) प्रशंसा करने योग्य ज्ञान और बल ( असत् ) है (तत्) उसको (आविः कृष्व) प्रकट कर । और ( परिरापः ) पाप से परिपूर्ण पुरुष को ( वि अर्दय ) विविध उपायों से पीड़ित कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ देवताः– १, ५,९,११, १७, १९ ब्रह्मणस्पतिः । २–४, ६–८, १०, १२–१६, १८ बृहस्पतिश्च ॥ छन्दः– १, ४, ५, १०, ११, १२ जगती । २, ७, ८, ९, १३, १४ विराट् जगती । ३, ६, १६, १८ निचृज्जगती । १५, १७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी निंदकाचे सदैव निवारण करून स्तुती करणाऱ्यांची वृद्धी करावी व सत्य विद्यांचा प्रसार करावा. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Brhaspati, lord of the great realm, with the splendour of your blazing power, scorch those who take you on with malignant criticism and columny, although your honour and courage is proven. Proclaim openly what your commendable policy is and heat up, shake off and evaporate all those who are steeped in sin and crime.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More light is thrown on the State affairs.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O ruler ! you always protect the great men and administer severe punishment to the wickeds, devils and rumor mongers with your power, and establish your glory over the wickeds. You should always express the right views fearlessly and perish the ones who are sinners.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The administrators should always put curbs on the false denouncers and rumor mongers, Moreover, they should bring forward the loyal people and enhance their true knowledge.

    Foot Notes

    (तेजिष्ठया) अतिशयेन तेजस्विन्या = With extreme glamour. (तपनी) सन्तापिनी = Punitive. (निदे) निन्दायै | = For denouncing. (दृष्टवीर्य्यम्) दृष्टं सम्प्रोक्षितं वीर्य्यं यस्य तम् = One whose chivalry is established. (परिराप:) परितोरपः पापं यस्य तम् = One who is a great sinner.

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