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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 23/ मन्त्र 16
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    मा नः॑ स्ते॒नेभ्यो॒ ये अ॒भि द्रु॒हस्प॒दे नि॑रा॒मिणो॑ रि॒पवोऽन्ने॑षु जागृ॒धुः। आ दे॒वाना॒मोह॑ते॒ वि व्रयो॑ हृ॒दि बृह॑स्पते॒ न प॒रः साम्नो॑ विदुः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । नः॒ । स्ते॒नेभ्यः॑ । ये । अ॒भि । द्रु॒हः । प॒दे । नि॒रा॒मिणः॑ । रि॒पवः॑ । अन्ने॑षु । ज॒गृ॒धुः । आ । दे॒वाना॑म् । ओह॑ते । वि । व्रयः॑ । हृ॒दि । बृह॑स्पते । न । प॒रः । साम्नः॑ । वि॒दुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नः स्तेनेभ्यो ये अभि द्रुहस्पदे निरामिणो रिपवोऽन्नेषु जागृधुः। आ देवानामोहते वि व्रयो हृदि बृहस्पते न परः साम्नो विदुः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा। नः। स्तेनेभ्यः। ये। अभि। द्रुहः। पदे। निरामिणः। रिपवः। अन्नेषु। जगृधुः। आ। देवानाम्। ओहते। वि। व्रयः। हृदि। बृहस्पते। न। परः। साम्नः। विदुः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 23; मन्त्र » 16
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे बृहस्पते येऽभिद्रुहो रिपवो पदे निरामिणोऽन्नेषु जागृधुस्तेभ्य: स्तेनेभ्यो नोऽस्माकं भयं मास्तु। ये व्रयो देवानामोहते हृदि साम्नो विविदुस्तान् परस्त्वं न प्राप्नुयाः ॥१६॥

    पदार्थः

    (मा) (नः) अस्माकम् (स्तेनेभ्यः) चोरेभ्यः (ये) (अभि) (द्रुहः) दोग्धारः (पदे) प्राप्तव्ये (निरामिणः) नित्यं रन्तुं शीलाः (रिपवः) शत्रवः (अन्नेषु) (जागृधुः) अभिकाङ्क्षेयुः (आ) (देवानाम्) विदुषाम् (ओहते) वितर्कयुक्ताय (वि) (व्रयः) वर्जनीयाः। अयं बहुलमेतन्निदर्शनमिति व्रीधातुर्ग्राह्यः (हृदि) (बृहस्पते) चोरादिनिवारक (न) (परः) (साम्नः) सन्धेः (विदुः) जानीयुः ॥१६॥

    भावार्थः

    ये स्तेना द्रोहेण परपदार्थानिच्छन्ति ते किमपि धर्मन्न जानन्ति ॥१६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (बृहस्पते) चोर आदि के निवारनेवाले (ये) जो (अभिद्रुहः) सब ओर से द्रोह करनेवाले (रिपवः) शत्रु जन (पदे) पाने योग्य स्थान में (निरामिणः) नित्य रमण करनेवाले (अन्नेषु) अन्नादि पदार्थों के निमित्त (जागृधुः) सब ओर से कांक्षा करें उन (स्तेनेभ्यः) चोरों से (नः) हमको भय (मा) न हो। जो (व्रयः) वर्जने योग्य जन (देवानाम्) विद्वानों के बीच (आ,ओहते) वितर्कयुक्त के लिये (हृदि) मन में (साम्नः) सन्धि से (विविदुः) जानें उनको (परः) अत्यन्त श्रेष्ठ तू (न) न प्राप्त हो ॥१६॥

    भावार्थ

    जो चोर द्रोह से पराये पदार्थों की चाहना करते हैं, वे कुछ भी धर्म नहीं जानते हैं ॥१६॥

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    विषय

    अदेवों से दूर

    पदार्थ

    १. हे (बृहस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो ! जो (साम्नः) = शान्ति से (परः) = कुछ भी उत्कृष्ट है ऐसा (न विदुः) = नहीं जानते, अर्थात् जो शान्ति को ही सर्वोपरि मानते हैं, उन (नः) = हमें (स्तेनेभ्यः मा) = चोरों के लिए मत दे डालिए, अर्थात् हम चोरों से अभिभूत न हो जाएँ। ये जो लोग द्रुहस्पदेद्रोह के स्थान में (निरामिणः) = नितरां रमण करनेवाले हैं, उनके लिए मत दे डालिए । जो (रिपवः) = औरों का विदारण करनेवाले शत्रुभूत पुरुष (अन्नेषु) = औरों के अन्नों में (जागृधुः) = लालचवाले होते हैं, उनके लिए हमें मत दे डालिए। २. हमें उनके लिए भी मत दे डालिए जो कि हृदि हृदय में (देवानाम्) = दिव्यवृत्तियों के विव्रयः वर्जन को (ओहते) = धारण करते हैं, अर्थात् जो हृदय में शुभभावों को न धारण करके सदा अशुभभावों को ही स्थान देते हैं, हम उनसे अभिभूत न हो जाएँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम चोरों 'द्रोहवृत्तिवालों' लोभियों तथा अदिव्य भावनाओंवालों से दूर रहते हुए शान्तजीवन बिता सकें।

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    विषय

    राज्यपालक राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( बृहस्पते ) बड़ों के भी पालक ! राजन् ! प्रभो ! ( ये ) जो ( द्रहः ) द्रोही शत्रु होकर ( पदे ) प्राप्त करने योग्य प्रत्येक स्थान और पदार्थ में ( निरामिणः ) नित्य स्वयं ही रमण करने वाले विलासी होकर ( अन्नेषु ) अन्न आदि भोग्य पदार्थों में ( अभि जागृधुः ) आक्रमण करके पदार्थ हर लेना चाहते हैं उन ( स्तेनेभ्यः ) चोर पुरुषों से ( नः ) हमें ( मा ) भय न हो । और जो ( देवानाम् ) देव, विद्वानों के या विजयी पुरुषों या पदार्थों की आकांक्षा करने वाले पुरुषों के बीच में भी ( व्रयः ) त्याग, या विघ्न वर्जन के बल को ( हृदि ) हृदय में ( आ ओहते ) धारण करते हैं, हे ( बृहस्पते ) बड़े बड़ों के भी पालक ! वे ( साम्नः ) शान्तिमय, सुखकारी वचन से ( परः ) श्रेष्ठ, दूसरे उपाय को ( न विदुः ) नहीं जानते । वे त्यागशील जन ‘साम’ उपाय को ही सर्वश्रेष्ठ जानते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ देवताः– १, ५,९,११, १७, १९ ब्रह्मणस्पतिः । २–४, ६–८, १०, १२–१६, १८ बृहस्पतिश्च ॥ छन्दः– १, ४, ५, १०, ११, १२ जगती । २, ७, ८, ९, १३, १४ विराट् जगती । ३, ६, १६, १८ निचृज्जगती । १५, १७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे चोर असून द्वेषाने दुसऱ्यांच्या पदार्थांची कामना करतात ते किंचितही धर्म जाणत नाहीत. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Save us, lord of the great world, right and universal law, from the thieves and enemies who hate all and delight in positions of power, who covet nothing but food and luxury, who hold nothing in their heart but disdainful superiority complex toward the learned, wise and virtuous and who know nothing of value beyond money and property.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More light thrown on the duties of the learned persons.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person (administrator) ! let us have no fear from the thieves, rebels, enemies and those who are always out to take away food grains etc. held by others. You should not be available to the condemnables and those who harass the learned persons with their wild arguments and are always of two minds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who desire to steal away others' wealth, they are not aware of the true religion.

    Foot Notes

    (स्तेनेभ्यः) चोरेभ्यः। = For those who take away. (द्रुहः) धोग्धारः = Those who envy with others. (निरामिण:) नित्यं रन्तुं शीला:। = Wanderers, gypsies or like denotified tribes. (जागृधु:) अभिकाङ्क्षेयुः । = May desire. (ओहते) वितर्कयुक्ताय = For those who trade in wild arguments. (व्रयः) वर्जनीया: = Condemnables. (बृहस्पते) चोरादिनिवारक । = O nabber of the criminals !

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