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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा देवता - आदित्याः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    धा॒रय॑न्त आदि॒त्यासो॒ जग॒त्स्था दे॒वा विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य गो॒पाः। दी॒र्घाधि॑यो॒ रक्ष॑माणा असु॒र्य॑मृ॒तावा॑न॒श्चय॑माना ऋ॒णानि॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धा॒रय॑न्तः । आ॒दि॒त्यासः॑ । जग॑त् । स्थाः । दे॒वाः । विश्व॑स्य । भुव॑नस्य । गो॒पाः । दी॒र्घऽधि॑यः । रक्ष॑माणाः । अ॒सु॒र्य॑म् । ऋ॒तऽवा॑नः । चय॑मानाः । ऋ॒णानि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धारयन्त आदित्यासो जगत्स्था देवा विश्वस्य भुवनस्य गोपाः। दीर्घाधियो रक्षमाणा असुर्यमृतावानश्चयमाना ऋणानि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धारयन्तः। आदित्यासः। जगत्। स्थाः। देवाः। विश्वस्य। भुवनस्य। गोपाः। दीर्घऽधियः। रक्षमाणाः। असुर्यम्। ऋतऽवानः। चयमानाः। ऋणानि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या ये जगत्स्था धारयन्तो विश्वस्य भुवनस्य गोपा दीर्घाधियोऽसुर्यं रक्षमाणा तावान णानि चयमाना आदित्यासो देवा अन्तः पश्यन्ति तेऽध्यापका भवितुमर्हन्ति ॥४॥

    पदार्थः

    (धारयन्तः) (आदित्यासः) पूर्णविद्याः (जगत्) जङ्गमम् (स्थाः) स्थावरम् (देवाः) सूर्य्यादय इव विद्वांसः (विश्वस्य) (भुवनस्य) निवासाधिकरणस्य स्थावरस्य जगतः प्राणिसमुदायस्य च (गोपाः) रक्षकाः (दीर्घाधियः) दीर्घा बृहती धीर्येषान्ते। अत्राऽन्येषामपीति पूर्वपदस्य दीर्घः (रक्षमाणाः) (असुर्यम्) असुराणामविदुषां स्वं धनम् (तावानः) य तानि सत्यानि वनन्ति सम्भजन्ति ते (चयमानाः) वर्द्धमानाः (णानि) अन्येभ्यो देयानि विज्ञानानि ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र पूर्वस्मान्मन्त्रात् (अन्तःपश्यन्ति) इति पदद्वयमनुवर्त्तते। यदि विद्याध्यापका जिज्ञासुभ्यो विद्या न प्रदद्युस्तर्हि ते णिनः स्युरिदमेव णसमापनं यदधीत्याऽन्येभ्योऽध्यापनं कार्यमिति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो जो (जगत्) चर और (स्थाः) अचर को (धारयन्तः) धारण करते हुए (विश्वस्य) सब (भुवनस्य) निवास के आधार स्थावर और प्राणिमात्र जंगम जगत् के (गोपाः) रक्षक (दीर्घाधियः) बड़ी बुद्धिवाले (असुर्यम्) मूर्खों के धन की (रक्षमाणाः) रक्षा करते हुए (तावानः) सत्य के सेवी (णानि) दूसरों को देने योग्य विद्वानों को (चयमानाः) बढ़ाते हुए (आदित्यासः) पूर्ण विद्यावाले (देवाः) सूर्यादि के तुल्य तेजस्वी विद्वान् लोग बुद्धि से भीतर देखते हैं, वे अध्यापक होने योग्य हैं ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में (अन्तः,पश्यन्ति) इन दो पदों की अनुवृत्ति पूर्व मन्त्र से आती है। यदि विद्वान् पढ़नेवाले विद्यार्थियों को विद्या न देवें तो वे णी हो जावें, यही ण चुकाना है जो स्वयं पढ़ कर दूसरों को पढ़ाना चाहिये ॥४॥

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    विषय

    धारण करनेवाले देव

    पदार्थ

    १. (आदित्यासः) = देव जगत्-जंगम प्राणिसमूह को और (स्था:) = स्थावर जगत् को भी (धारयन्तः) = धारण करते हुए होते हैं। (देवः) = ये प्रकाशमय जीवनवाले (विश्वस्य भुवनस्य) = सारे प्राणियों के (गोपाः) = रक्षक होते हैं। इनके कर्म सदा धारणात्मक होते हैं। 'विनाश' वृत्ति तो दस्युओं की है। २. (दीर्घाधियः) = ये दीर्घबुद्धि व कर्मोंवाले होते हैं- अल्पदृष्टि न होकर विशाल दृष्टिवाले होते हैं तथा संकुचित कर्मोंवाले न होकर विशाल कर्मोंवाले होते हैं। ये (असुर्यम्) = उस महान् असुरप्राणशक्ति दाता प्रभु की प्राप्ति के लिए हितकर सोमशक्ति [वीर्यशक्ति] का (रक्षमाणाः) = रक्षण करते हैं। इस सोमरक्षण से ही तो उस सोम की प्राप्ति होनी है। (ऋतावान:) = ये ऋतवाले होते हैंसदा सब कर्मों को ठीक समय व ठीक स्थान पर करनेवाले होते हैं और इसप्रकार (ऋणानि) = 'पितृऋण, ऋषि ऋण तथा देव-ऋण' को (चयमानाः) = [अपगमयन्तः - सा०] अपने से अपगत करते हैं। इन ऋणों को उतारनेवाले होते हैं। सन्तानों का पालन, स्वाध्याय व यज्ञों को करते हुए इन ऋणों से मुक्त हो जाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - देव सदा रक्षणात्मक कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। इसीलिये वे शक्तिरक्षण करके प्रभुप्राप्ति की ओर अग्रसर होते हैं ।

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    विषय

    विद्वान् राष्ट्र के नाना शासक जनों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( आदित्यासः ) सूर्य की किरणों के समान प्रजाओं से कर लेने वाले ( देवाः ) उनके हित के लिये जलों को पुनः उन पर वर्षा देने वाले, अतः एव (विश्वस्य भुवनस्य) समस्त भुवन, राष्ट्र के (गोपाः) रक्षक ( जगत् स्थाः ) जंगम और स्थावर सब को ( धारयन्तः ) धारण करते हुए, ( दीर्घाधियः ) दीर्घ बुद्धि और क्रियाशक्ति वाले, दीर्घदर्शी,( असुर्यम् ) प्रजा के प्राणों के रमण करने योग्य उत्तम अन्न, जल तथा धन की ( रक्षमाणाः ) रक्षा करते हुए, ( ऋतावानः ) सत्य ज्ञान, सत्य आचरण और ऋत अर्थात् धन, और जल अन्न आदि से सम्पन्न होकर भी ( ऋणानि ) जलों को मेघों के समान ऐश्वर्यों और कर आदि को शनैः शनैः ( चयमानाः) संग्रह करते हुए, ( अन्तः वृजिना उत साधु सर्वम् पश्यन्ति ) अपने भीतर ही सब पाप और पुण्य का विवेक कर लेते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा ऋषिः॥ आदित्यो देवता॥ छन्दः- १,३, ६,१३,१४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ४, ५, ८, १२, १७ त्रिष्टुप् । ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् पङ्क्तिः। ९, १० स्वराट् पङ्क्तिः॥ सप्तदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात (अन्तः, पश्यन्ति) या दोन पदांची अनुवृत्ती पूर्व मंत्राने झालेली आहे. जर विद्वानांनी शिकणाऱ्या विद्यार्थ्यांना विद्या दिली नाही, तर त्यांच्यावर ऋण राहते. या ऋणाची फेड करावयाची असेल तर इतरांना शिकविले पाहिजे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Brilliant Adityas sustain the moving and the stable world of existence. Generously giving, they are preservers of the entire world of existence. Far-reaching is their intelligence, they love truth and rectitude, they protect the breath of life and they augment whatever or whoever extends the vision and knowledge of life for others. (Aditya-like should the teachers be.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The qualities of good teachers are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those learned people who are glorious like the sun, educated up to the full term (48 yrs), they are the worthy to be teachers. Other preconditions laid are that they should always keep in mind the presence of God, Who holds the stagnant universe mobile and is the Protector of all beings and their abodes. While a good teacher provides his protective cover to the wealth of ignorant, persons he gives boost to the truthful with loans of knowledge.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    This mantra carries back the previous one - ANTAH, PASHYANTI. If a learned person does not teach the other students, in fact, he becomes indebted to the society. Therefore, such persons should always teach others.

    Foot Notes

    (देवाः) सूर्यादय इव विद्वांसः । = Brilliant like sun etc. (भुवनस्य ) निवासाधिकरणस्य स्थावरस्य जगतः प्राणिसमुदायस्य = Abodes of all beings including the mobile and stagnant. (दीर्घा धियः) दीर्घा बृहती धीर्येषान्ते = Those who are blessed with excellent mind. (असुर्यंम् ) असुराणामविदुषां स्वं धनम् । = The wealth of ignorant person.

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