ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 17
ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा
देवता - आदित्याः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
माहं म॒घोनो॑ वरुण प्रि॒यस्य॑ भूरि॒दाव्न॒ आ वि॑दं॒ शून॑मा॒पेः। मा रा॒यो रा॑जन्त्सु॒यमा॒दव॑ स्थां बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥
स्वर सहित पद पाठमा । अ॒हम् । म॒घोनः । व॒रु॒ण॒ । प्रि॒यस्य॑ । भू॒रि॒ऽदाव्नः॑ । आ । वि॒द॒म् । शून॑म् । आ॒पेः । मा । रा॒यः । रा॒जन् । सु॒ऽयमा॑त् । अव॑ । स्था॒म् । बृ॒हत् । व॒दे॒म॒ । वि॒दथे॑ । सु॒ऽवीराः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
माहं मघोनो वरुण प्रियस्य भूरिदाव्न आ विदं शूनमापेः। मा रायो राजन्त्सुयमादव स्थां बृहद्वदेम विदथे सुवीराः॥
स्वर रहित पद पाठमा। अहम्। मघोनः। वरुण। प्रियस्य। भूरिऽदाव्नः। आ। विदम्। शूनम्। आपेः। मा। रायः। राजन्। सुऽयमात्। अव। स्थाम्। बृहत्। वदेम। विदथे। सुऽवीराः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 17
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 7
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे वरुण राजन्नहमापेर्भूरिदाव्नः प्रियस्य मघोनः शूनमाविदम्। सुयमाद्रायो मावस्थामन्यथा व्ययं मा कुर्यामेवं कृत्वा विदथे सुवीरा वयं बृहद्वदेम ॥१७॥
पदार्थः
(मा) (अहम्) (मघोनः) प्रशस्तधनयुक्तस्य (वरुण) श्रेष्ठ (प्रियस्य) कमनीयस्य (भूरिदाव्नः) बहुदातुः (आ) (विदम्) प्राप्नुयाम् (शूनम्) वर्द्धनम् (आपेः) य आप्नोति तस्य (मा) (रायः) धनात् (राजन्) सत्यप्रकाशक (सुयमात्) शोभनो यमो यस्मिँस्तस्मात् (अव) (स्थाम्) तिष्ठेयम् (बृहत्) (वदेम) (विदथे) (सुवीराः) ॥१७॥
भावार्थः
धनाढ्यैश्च राजपुरुषैः सह विरोधः कदापि न करणीयः। न चाऽन्याय्ये व्यवहारे न्यायोपार्जितधनस्य व्ययः कार्यः सदैव सर्वव्यापकस्य परमात्मन आज्ञायां च ते वर्त्तेरन्निति ॥१७॥ अत्र विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति सप्तविंशतितमं सूक्तमष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (वरुण) श्रेष्ठ सज्जन (राजन्) सत्य के प्रकाश करनेहारे राजन् (अहम्) मैं (आपेः) प्राप्त होनेवाले (भूरिदाव्नः) बहुत धन देनेवाले (प्रियस्य) कामना के योग्य (मघोनः) प्रशस्त धनवाले पुरुष की (शूनम्) वृद्धि को (म,आ,विदम्) न प्राप्त होऊँ किन्तु (सुयमात्) सुन्दर नियम कराने (रायः) धन से (मा,अव,स्थाम्) न अवस्थित होऊँ और उसकी प्राप्ति का यत्न अवश्य किया करूँ और अन्यथा खर्च न करूँ ऐसा (विदथे) विज्ञान के व्यवहार में (सुवीरा) सुन्दर वीरोंवाले हुए हम लोग (बृहत्) बड़ा गम्भीर (वदेम) उपदेश करें ॥१७॥
भावार्थ
धनाढ्य लोगों को चाहिये कि राजपुरुषों के साथ विरोध कदापि न करें और न अन्याययुक्त व्यवहार में न्याय से उपार्जन किये धन का कभी खर्च करें और सदैव सर्वव्यापक परमात्मा की आज्ञा में वर्त्तें ॥१७॥ इस सूक्त में विद्वानों के गुणों आदि का वर्णन होने से इस सूक्त की पूर्वसूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह सत्ताईसवाँ सूक्त और आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
संयमयुक्त धन
पदार्थ
१. हे (वरुण) = पापनिवारक देव! (अहम्) = मैं (मघोनः) = ऐश्वर्यों के स्वामी (भूरिदानः) = खूब देनेवाले (प्रियस्य आपेः) = प्रिय मित्र आपके आगे (शूनम्) = दारिद्र्यजनित कष्ट को (मा आविदम्) = मत निवेदन करूँ। मुझे (दारिद्र्य) = कष्ट का रोना न रोना पड़े। २. हे (राजन्) = सम्पूर्ण संसार के शासक प्रभो ! (सुयमात्) = उत्तम संयम से युक्त (रायः) = धन से मैं (मा अवस्थाम्) = मत दूर स्थित होऊँ, अर्थात् मुझे सदा वह धन प्राप्त रहे जो कि मेरे जीवन में संयम को नष्ट करनेवाला न हो। हम (सुवीराः) = उत्तम वीर बनकर (विदथे) = ज्ञान-यज्ञों में (बृहद्वदेम) = खूब ही आप का स्तवन करें।
भावार्थ
भावार्थ- मुझे दारिद्र्य-कष्ट न हो। मेरा जीवन संयमयुक्त धन से सम्पन्न हो। सम्पूर्ण सूक्त 'देवों की उपासना द्वारा देव बनने' का संकेत करता है। देवों का धन संयमयुक्त होता है। अदेवों के लिए धन मायामय हो जाता है। अगला सूक्त भी वरुण के व्रतों को धारण करने का उपदेश करता है।
विषय
उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( राजन् ) राजन् ! हे ( वरुण ) श्रेष्ठ पुरुष ! ( अहं ) मैं ( प्रियस्य ) सर्वप्रिय, सब को संतुष्ट करने वाले ( मघोनः ) उत्तम ऐश्वर्यवान् ( भूरिदाव्नः ) बहुत दान देने वाले ( आपेः ) बन्धु के समान सदा प्राप्त होने वाले पुरुष की ( शूनम् ) सुख समृद्धि को ( मा अविदम् ) कभी स्पर्धा से न लूं । हे राजन् ! ( सुयमात् रायः ) उत्तम नियन्त्रण से युक्त ऐश्वर्य से मैं ( मा अव स्थाम् ) वञ्चित न रहूं । हम ( सुवीराः ) उत्तम वीर पुरुषों से युक्त होकर ( वृहद् वदेम ) तेरे शासन के गुण बहुत २ कहें। राज्य-शासन में सेवकादि अपने उत्तम स्वामी की समृद्धि और यश की स्पर्धा न करें । अति सुरक्षित धन अर्थात् बैंक आदि में पड़े धन भी प्रजाजन के मारे न जावें । प्रजा उत्तम शासन की दाद दे । इत्यष्टमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा ऋषिः॥ अदित्यो देवता॥ छन्दः- १,३, ६,१३,१४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ४, ५, ८, १२, १७ त्रिष्टुप् । ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् पङ्क्तिः। ९, १० स्वराट् पङ्क्तिः॥ सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
धनाढ्य पुरुषांनी राजपुरुषांना कधीही विरोध करू नये व अन्याययुक्त व्यवहारात न्यायाने उपार्जन केलेले धन कधी खर्च करू नये. सदैव सर्वव्यापक परमेश्वराच्या आज्ञेत राहावे. ॥ १७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Varuna, lord of justice, highest and best of our choice, I pray I may attain to the progress and prosperity of a dear and generous man of wealth and dignity, but not to the swelling pride of a man of easy money. Brilliant lord ruler of the nation, may I never be deprived of wealth well-earned with honesty. And let us all, blest with noble progeny, speak well and highly in thanks and praise of the lord ruler of the world in all our yajnic performances.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The State affairs are again dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O very acceptable and enlighter of truth ruler! do not aspire be extreme rich like an unlimited wealthy person, nor I want to be immersed in the richness, though my efforts should be directed towards it. Let us set an example in our dealings related with studies, dealings with brave persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The rich should not pick up confrontation with the State officials, nor we spend our honestly earned wealth on unjust acts, rather should always act in accordance with the commands of Omnipresent God. Central idea is that the wealth should not be the only goal in life.
Foot Notes
( मघोनः ) प्रशस्तधनयुक्तस्य = Equipped with honestly earned wealth. ( शूनम् ) वर्द्धनम् = Growth. (राजन् ) सत्यप्रकाशक = Communicator of truth. ( सुयमात ) शोभनो यमो यस्मिंस्तस्मात् = From the ideal channels.
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