ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 3/ मन्त्र 6
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सा॒ध्वपां॑सि स॒नता॑ न उक्षि॒ते उ॒षासा॒नक्ता॑ व॒य्ये॑व रण्वि॒ते। तन्तुं॑ त॒तं सं॒वय॑न्ती समी॒ची य॒ज्ञस्य॒ पेशः॑ सु॒दुघे॒ पय॑स्वती॥
स्वर सहित पद पाठसा॒धु । अपां॑सि । स॒नता॑ । नः॒ । उ॒क्षि॒ते इति॑ । उ॒षसा॒नक्ता॑ । व॒य्या॑ऽइव । र॒ण्वि॒ते इति॑ । तन्तु॑म् । त॒तम् । सं॒वय॑न्ती॒ इति॑ स॒म्ऽवय॑न्ती । स॒मी॒ची इति॑ स॒म्ऽई॒ची । य॒ज्ञस्य॑ । पेशः॑ । सु॒दुघे॒ इति॑ सु॒ऽदुघे॑ । पय॑स्वती॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
साध्वपांसि सनता न उक्षिते उषासानक्ता वय्येव रण्विते। तन्तुं ततं संवयन्ती समीची यज्ञस्य पेशः सुदुघे पयस्वती॥
स्वर रहित पद पाठसाधु। अपांसि। सनता। नः। उक्षिते इति। उषासानक्ता। वय्याऽइव। रण्विते इति। तन्तुम्। ततम्। संवयन्ती इति सम्ऽवयन्ती। समीची इति सम्ऽईची। यज्ञस्य। पेशः। सुदुघे इति सुऽदुघे। पयस्वती इति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे स्त्रीपुरुषौ तन्तुं वय्येव रण्विते यज्ञस्य ततं पेशः संवयन्ती समीची पयस्वती सुदुघ उक्षित उषासानक्तेव युवां नोऽस्मभ्यं सनता साध्वपांसि कारयतम् ॥६॥
पदार्थः
(साधु) साधूनि (अपांसि) कर्माणि (सनता) नतेन सह वर्त्तमानानि (नः) अस्मभ्यम् (उक्षिते) सिञ्चिते (उषासानक्ता) रात्रिदिने (वय्येव) परसाधिका नलिकेव (रण्विते) शब्दायमाने (तन्तुम्) सूत्रम् (ततम्) विस्तृतम् (संवयन्ती) निर्मिमाना (समीची) सम्यगञ्चती (यज्ञस्य) यष्टु सङ्गन्तुमर्हस्य (पेशः) रूपम् (सुदुघे) सुष्ठु प्रपूरिके (पयस्वती) प्रशस्तजलयुक्ते ॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। सन्ताना भृत्याश्च दम्पती प्रति एवं प्रार्थयेयुर्युवामस्माभिर्धर्म्याणि कर्माणि कारयतम् ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे स्त्रीपुरुषो ! (तन्तुम्) सूत को (वय्येव) जैसे वस्त्र बनवानेवाली नली वा (रण्विते) शब्दायमान (यज्ञस्य) सराहने योग्य यज्ञकर्म के (ततम्) विस्तृत (पेशः) रूप को (संवयन्ती) उत्पन्न कराते और (समीची) अच्छे प्रकार अपनी-अपनी कक्षा में चलते हुए (पयस्वती) प्रशंसित जलयुक्त (सुदुघे) सुन्दरता से सब कामों को पूरा करनेहारे (उक्षिते) सींचे हुए (उषासानक्ता) रात्रि-दिन के समान तुम दोनों (नः) हम लोगों के लिये (सनता) नम्रभाव के साथ वर्त्तमान (साधु) उत्तम (अपांसि) कर्मों को कराओ ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। सन्तान और भृत्यजन अपने पालनेवाले स्त्रीपुरुषों के प्रति ऐसी प्रार्थना करें कि तुम हमसे धर्मयुक्त कार्य कराओ ॥६॥
विषय
उषासानक्ता
पदार्थ
१. हे (उषासानक्ता) = दिन और रात्रि के अधिष्ठातृ देवो! (नः) = हमें (साधु अपांसि) = उत्तम कर्मों को (सनता) = प्राप्त कराइए । हम दिनरात उत्तम ही कर्मों को करनेवाले बनें। आप दोनों (उक्षिते) = प्रभु के प्रति श्रद्धा की भावना से सिक्त होवो । श्रद्धा व भक्ति से युक्त होकर हम प्रभुस्मरण करनेवाले बनें । (वय्या इव) = वयनकुशल जुलाहों की तरह (रण्विते) = आप स्तुत होवो। बुनने में कुशल जुलाहों की जिस प्रकार प्रशंसा होती है उसी प्रकार ये दिनरात भी उत्तम कर्मावरण को बुनने के कारण प्रशंसित हों। (ततम्) = ताने के रूप में फैलाये गये (तन्तुम्) = कर्मसूत्र को (संवयन्ती) = ये सम्यक् बुननेवाले हों। २. (समीची) = सम्यक् उत्तम गतिवाले [सम् अञ्च्] ये दिनरात (यज्ञस्य पेशः) = यज्ञ के सुन्दर रूप को [पेश: = रूप] (सुदुघे) = उत्तमता से हमारे में पूरित करनेवाले हों और पयस्वती हमारा आप्यायन करनेवाले हों। 'दुह प्रपूरणे, प्यायी वृद्धौ'। हम दिनरात उत्तम विद्याओं को करते हुए यज्ञमय जीवनवाले हों, और अपनी सब शक्तियों का आप्यायन व वर्धन कर सकें।
भावार्थ
भावार्थ- हम दिनरात उत्तम कर्मों को करते हुए यज्ञमय जीवनवाले बनें और अपना वर्धन करें।
विषय
मेघ के दृष्टान्त से प्रजापति पुरुष को उपदेश ।
भावार्थ
( उषासानक्ता ) दिन और रात्रिकाल जिस प्रकार (साधुअपांसि) उत्तम कर्मों को करवाती हैं । (उक्षिते) जलादि से सींचती रहती हैं । ( रण्विते ) नाना शब्दों से गुंजित रहती हैं। दोनों ही (यज्ञस्य पेशः संवयन्ती) यज्ञ का स्वरूप बनाती हुई पट बुनने वाली (वय्या इव) बरणी के समान चलती है उसी प्रकार घर में स्त्री और पुरुष, पति पत्नी दोनों ( उषासानक्ता ) उषा काल के समान कान्ति युक्त, एक दूसरे के लिये कमनीय गुण और कामना योग्य कर्मोंवाले और नक्त अर्थात् रात्रिकाल के समान एक दूसरों को सुख-निद्रा, रति आदि देनेवाले हों । वे दोनों ( नः ) हमें ( सं-नता ) अच्छे विनय युक्त उत्तम (अपांसि ) कर्मों को ( साधु ) भली प्रकार से करावे और स्वयं भी करें। वे दोनों (उक्षिते) सुखों के वर्षाने वाले एक दूसरे के प्रेम से सिक्त, हृष्टपुष्ट, निषेक करने और धारने में समर्थ हों । वे दोनों ( रण्विते ) रमणीय मनोहर शब्दों को बोलते हुए ( यज्ञस्य ) एक दूसरे के प्रति आत्मदान एवं सुसंगति जनक गृहस्थ यज्ञ के ( पेशः ) स्वरूप को और ( ततं तन्तुं ) विस्तृत प्रजातंतु को भी ( वय्या इव ) बुनने के यन्त्र बरणियों के समान ( समीची ) परस्पर मिलकर (संवयन्ती) बुनती हुई, उत्पन्न करती हुई, ( सुदुधे ) परस्पर की कामना और इच्छाओं को भली प्रकार से पूर्ण करती हुई ( पयस्वती ) पुष्टि कारक अन्न और दुग्धादि से भरपूर होकर रहें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः । छन्दः—१, २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६ भुरिक् त्रिष्टुप् । । ४, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ८,१० त्रिष्टुप् । ७ जगती ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. संतान व सेवकांनी आपले पालन करणाऱ्या स्त्री-पुरुषांना अशी प्रार्थना करावी, की तुम्ही आम्हाला धार्मिक कार्यात युक्त करा. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May the night and day going together in orbit, singing in unison, replete with the waters of peace and bliss, abundant in the milk of life and profusely giving, harmoniously shaping and advancing the beauteous form of nature’s vast yajnic evolution, like two companion women weaving the warp and woof of cloth, bless us with noble competence for holy yajnic actions performed with humility and gratitude to Agni, lord of light, yajna and advancement.$(Like the night and day the husband and wife should act in unison and carry on the holy yajna of the family and the household as part of the vast yajna of life in existence.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Path for a married couple is indicated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men and women ! united with marriage, both of you create a fabric at your home, as a shuttle weaves the textile with slight sound and provides a beautiful form to an ordinarily fashion. Moving at the axle of the married life in an adjusted and admirable way, you accomplish all the jobs handsomely. Comparable with day and night both of you should earn your living with politeness and in a nice way.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The sons and daughters and domestic servants should urge upon their parents/masters to ask them to allow to accomplish assignments righteously.
Foot Notes
(सनता) नतेन सह वर्त्तमानानि = With politeness (उषासानक्ता ) रात्रिदिने = Day and night (संवयन्ती) निर्मिमाना | = Weaving.
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