ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 40/ मन्त्र 4
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - सोमापूषणावदितिश्च
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
दि॒व्य१॒॑न्यः सद॑नं च॒क्र उ॒च्चा पृ॑थि॒व्याम॒न्यो अध्य॒न्तरि॑क्षे। ताव॒स्मभ्यं॑ पुरु॒वारं॑ पुरु॒क्षुं रा॒यस्पोषं॒ वि ष्य॑तां॒ नाभि॑म॒स्मे॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वि । अ॒न्यः । सद॑नम् । च॒क्रे । उ॒च्चा । पृ॒थि॒व्याम् । अ॒न्यः । अधि॑ । अ॒न्तरि॑क्षे । तौ । अ॒स्मभ्य॑म् । पु॒रु॒ऽवार॑म् । पु॒रु॒ऽक्षुम् । रा॒यः । पोष॑म् । वि । स्य॒ता॒म् । नाभि॑म् । अ॒स्मे इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिव्य१न्यः सदनं चक्र उच्चा पृथिव्यामन्यो अध्यन्तरिक्षे। तावस्मभ्यं पुरुवारं पुरुक्षुं रायस्पोषं वि ष्यतां नाभिमस्मे॥
स्वर रहित पद पाठदिवि। अन्यः। सदनम्। चक्रे। उच्चा। पृथिव्याम्। अन्यः। अधि। अन्तरिक्षे। तौ। अस्मभ्यम्। पुरुऽवारम्। पुरुऽक्षुम्। रायः। पोषम्। वि। स्यताम्। नाभिम्। अस्मे इति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 40; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाग्निविषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या अग्नेर्भागोऽन्य उच्चा दिवि सदनं चक्रेऽन्यः पृथिव्यामन्योऽन्तरिक्षे सदनमधिचक्रे तावस्मभ्यं पुरुवारं पुरुक्षुं रायस्पोषमस्मे नाभिं च विष्यतां तौ यूयं विजानीत ॥४॥
पदार्थः
(दिवि) आकाशे (अन्यः) (सदनम्) स्थानम् (चक्रे) कृतवान् (उच्चा) उच्चे ऊर्ध्वस्थिते (पृथिव्याम्) (अन्यः) भिन्नः (अधि) (अन्तरिक्षे) (तौ) (अस्मभ्यम्) (पुरुवारम्) बहुभिर्वरणीयम् (पुरुक्षुम्) पुरुभिः शब्दितम् (रायः) धनादेः (पोषम्) पोषकम् (वि) (स्यताम्) अन्ते भवताम् (नाभिम्) मध्यं बन्धनम् (अस्मे) अस्माकम् ॥४॥
भावार्थः
अग्नेस्त्रीणि स्थानानि उपर्य्याकाशे पृथिव्यां मध्ये च तत्र सूर्यरूपेणान्तरिक्षे निकटे स्थितः प्रत्यक्षः पृथिव्यां गुप्तोऽन्तरिक्षे वर्त्तते तं मनुष्या विजानन्तु ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
अब अग्नि के विषय को कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! अग्नि का भाग (अन्यः) और है और वह (उच्चा) ऊपर जो स्थित (दिवि) आकाश उसमें (सदनम्) स्थान (अधि,चक्रे) किये हुए है तथा (अन्यः) और (पृथिव्याम्) पृथिवी में और (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में स्थान को (अधि) अधिकता से किये हुए है (तौ) वे दोनों (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (पुरुवारम्) बहुतों से स्वीकार करने योग्य (पुरुक्षुम्) बहुतों ने शब्दित किये अर्थात् कहे सुने (रायः) धनादि पदार्थों के (पोषम्) पुष्ट करनेवाले और (अस्मे) हमारे (नाभिम्) मध्य बन्धन के (वि,स्यताम्) निकट हों उनको तुम जानो ॥४॥
भावार्थ
अग्नि के तीन स्थान हैं, एक ऊपर आकाश में दूसरा पृथिवी में और तीसरा बीच में, उन तीनों में सूर्य्यरूप से अन्तरिक्ष में, निकट स्थित प्रत्यक्ष पृथिवी में और गुप्त अन्तरिक्ष में वर्त्तमान है, उस अग्नि को मनुष्य जानें ॥४॥
विषय
सूर्य व चन्द्रमा
पदार्थ
१. सोम और पूषा में से (अन्यः) = एक पूषा (दिवि उच्चा) = द्युलोक में उच्चस्थान में (सदनं चक्रे) = अपना स्थान बनाता है। (अन्यः) = दूसरा सोम [चन्द्र] (पृथिव्याम्) = ओषधीश के रूप में इस पृथ्वी पर तथा (अधि अन्तरिक्षे) = अधिष्ठातृत्वरूपेण इस अन्तरिक्ष में स्थान को करता है। किसी समय यह चन्द्र इस पृथिवी से ही पृथक् हुआ था-उस पृथ्वी के चारों ओर ही अन्तरिक्ष में यह गति कर रहा है। २. (तौ) = वे दोनों (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (रायस्पोषम्) = उस धन के पोषण को (विष्यताम्) = [विमुञ्चत प्रयच्छताम्] दें। जो धन (अस्मे नाभिम्) = हमारे लिए [नह बन्धने] सब - आवश्यक भोगों का हेतुभूत होता है-साधक बनता है। (पुरुवारम्) = बहुतों से चाहने योग्य होता है–सबके लिए उपयुक्त होने के कारण सब जिसके लिए चाहते हैं। एक उदार दानी पुरुष से लोकहित के कार्यों को होते देखकर सब कहते हैं कि 'प्रभु धन दें तो ऐसों को ही दें'। (पुरुक्षुम्) = [क्षु शब्दे] जो धन बहुत कीर्तिवाला होता है । जिस धन के कारण हमारा यश बढ़े । ३. सोम और पूषा के द्वारा ही पृथिवी में सब धनधान्यों का उत्पादन होता है तथा 'सौम्यता व तेजस्विता' वाला पुरुष ही धन प्राप्त करने की योग्यतावाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम और पूषा ही सब धनों के जनक हैं।
विषय
सोम पूषा, माता पिता के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( अन्य ) उन पूर्व कहे सोम और पूषा नर मादा वा पुरुष और स्त्री दोनों में से एक ( दिवि ) ज्ञान, ऐषणा, कामना, और लोक व्यवहार में, आकाश में सूर्य के समान ( उच्चा ) एक दूसरे की अपेक्षा ऊंचा ( सदनं ) स्थान ( चक्रे ) करता है और ( अन्यः ) दूसरा भागी, स्त्री ( पृथिव्याम् अधि ) पृथिवी में अग्नि के समान या ( अन्तरिक्षे ) अन्तरिक्ष में विद्युत् के समान ( सदनं चक्रे ) अपनी स्थिति करे । वह गृहस्थ का सर्वाश्रय होने, पृथिवी के समान और पालक पोषक होने से अन्तरिक्ष गत वायु के समान रहे । वह पतिके अन्तःकरण में निवास करने से भी ‘अन्तरिक्ष’ में रहती है । ( तौ ) वे दोनों ( अस्मभ्यं ) हमारे लिये ( पुरुवारं ) वरने या स्वीकार करने योग्य बहुत से धनादि से युक्त ( पुरुक्षुं ) बहुतों से प्रशंसित, बहुत प्रकार के अन्नादि से पूर्ण ( रायस्पोषं ) ऐश्वर्य की पुष्टि या वृद्धि करने वाले ( नाभिम् ) मुख्य केन्द्र गृह को ( अस्मे वि स्यताम् ) हमारे उपकार के लिये बांधें । (२) देह में एक प्राण मूर्धा में रहता है दूसरा अपान पृथिवी वा मूल भाग नितम्ब या नाभि से नीचे रहता है तीसरा ‘अन्तरिक्ष’ अर्थात् देह के बीच के खोखले भाग में समान रूप से रहता है। वे दोनों इन्द्रियों की रक्षा करने वाले उत्तम अन्नपाचक, तेज, कान्ति के पोषक नाभि भाग को बांधते हैं । उसको दृढ़ करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः॥ १-३ सोमापूषणावदितिश्च देवता॥ छन्दः–१, ३ त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ४ स्वराट् पङ्क्तिः॥ षडृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
अग्नीची तीन स्थाने आहेत. एक आकाशात, दुसरे पृथ्वीवर व तिसरे अंतरिक्षात. या तिन्हीमध्ये सूर्यरूपाने आकाशात, पृथ्वीवर प्रत्यक्ष व अंतरिक्षात गुप्त आहे. त्या अग्नीला माणसांनी जाणावे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
One of them as sun has made his home high up in heaven, the other on the earth and over in the sky as generative heat and electric energy. May the two create for us wealth and growth loved and admired universally, and may they strengthen the natural bond between themselves and us like the natal cord between mother and child.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The properties of fire are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Agni (in the form of the sun) has made its abode above in the sky while one of its forms is on this earth and the third is in the lightning. May that Agni (in these three different forms) and Soma (in the form of the moon and the herbs) give us much desired and much commended abundant wealth which is the source of enjoyments to us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There are three forms of Agni. The one is in the sun above in the sky, the second one in the form of the fire on earth and the third lightning in the firmament. All these forms must be known by men of science and technology.
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