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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 40/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - सोमापूषणावदितिश्च छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    विश्वा॑न्य॒न्यो भुव॑ना ज॒जान॒ विश्व॑म॒न्यो अ॑भि॒चक्षा॑ण एति। सोमा॑पूषणा॒वव॑तं॒ धियं॑ मे यु॒वाभ्यां॒ विश्वाः॒ पृत॑ना जयेम॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वा॑नि । अ॒न्यः । भु॒व॒ना । ज॒जान॑ । विश्व॑म् । अ॒न्यः । अ॒भि॒ऽचक्षा॑णः । ए॒ति॒ । सोमा॑पूषणौ । अव॑तम् । धिय॑म् । मे॒ । यु॒वाभ्या॑म् । विश्वाः॑ । पृत॑नाः । ज॒ये॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वान्यन्यो भुवना जजान विश्वमन्यो अभिचक्षाण एति। सोमापूषणाववतं धियं मे युवाभ्यां विश्वाः पृतना जयेम॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वानि। अन्यः। भुवना। जजान। विश्वम्। अन्यः। अभिऽचक्षाणः। एति। सोमापूषणौ। अवतम्। धियम्। मे। युवाभ्याम्। विश्वाः। पृतनाः। जयेम॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 40; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्गुणानाह।

    अन्वयः

    हे अध्यापकोपदेशकौ योऽन्यो विश्वानि भुवना जजान योऽन्योऽभिचक्षाणो विश्वमेति तौ सोमापूषणा उपदिश्य मे धियं युवामवतं यतो युवाभ्यां सह वयं विश्वाः पृतना जयेम ॥५॥

    पदार्थः

    (विश्वानि) सर्वाणि (अन्यः) भिन्नो भागः (भुवना) भुवनानि लोकजातानि (जजान) जज्ञे प्रादुर्भावयति। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (विश्वम्) (अन्यः) (अभिचक्षाणः) अभिव्यक्तवाग्विषयः (एति) गच्छति (सोमापूषणौ) (अवतम्) रक्षतम् (धियम्) प्रज्ञाम् (मे) मम (युवाभ्याम्) (विश्वाः) सर्वान् (पृतनाः) मनुष्यान् (जयेम) उत्कर्षयेम ॥५॥

    भावार्थः

    यो वायुः सर्वाँल्लोकान् धरति यश्च शब्दप्रयोगश्रवणनिमित्तोऽस्ति तद्विज्ञापनेन सर्वेषां मनुष्याणामुन्नतिः कार्य्या ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वानों के गुणों को कहते हैं ।

    पदार्थ

    हे अध्यापक और उपदेशको ! जो (अन्यः) भिन्न भाग (विश्वानि) समस्त (भुवना) लोकों में प्रसिद्ध पदार्थों को (जजान) उत्पन्न करता जो (अन्यः) और (अभिचक्षाणः) प्रकट वाणी का विषय (विश्वम्) संसार को (एति) प्राप्त होता उन दोनों (सोमापूषणौ) शान्ति और पुष्टि गुणवाले वायु का उपदेश देकर (मे) मेरी (धियम्) बुद्धि की तुम दोनों (अवतम्) रक्षा करो जिससे (युवाभ्याम्) तुम दोनों के साथ हम लोग (विश्वाः) समस्त (पृतनाः) मनुष्यों को (जयेम) उत्कर्ष दें ॥५॥

    भावार्थ

    जो वायु सब लोकों को धरता और जो शब्द प्रयोग वा श्रवण का निमित्त है, उसके विज्ञान कराने से सब मनुष्यों की उन्नति करनी चाहिये ॥५॥

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    विषय

    विजय

    पदार्थ

    १. सोम और पूषा में से (अन्यः) = एक सोम (विश्वानि भुवना) सब भुवनों को जजान पैदा करता है। 'सोम' अर्थात् वीर्यशक्ति से ही सब प्राणियों की उत्पत्ति होती है। सोम शब्द ही 'षू' धातु से बना है—जिसका अर्थ उत्पादन करना है। उत्पादकशक्ति ही सोम नाम से कही जाती है। २. (अन्यः) = दूसरा (पूषा विश्वम्) = सारे संसार को (अभिचक्षाणः) = प्रकाशित करता हुआ (एति) = गति करता है। सूर्य प्रकाश को तो देता ही है-यह हमारे जीवनों में बुद्धि का वर्धन करनेवाला भी है । ३. (सोमापूषणा) = ये सोम और पूषा (मे) = मेरी (धियम्) = बुद्धि व कर्म को (अवतम्) = सुरक्षित करें। इन तत्त्वों के कारण मैं उत्तम बुद्धिवाला बनूँ तथा सदा उत्तम कर्मों को करनेवाला होऊँ । हे सोम व पूषन् ! (युवाभ्याम्) = आपके द्वारा हम (विश्वाः पृतना:) = सब शत्रु सेनाओं को (जयेम) = जीतनेवाले बनें। सब शत्रुओं को जीतकर हम उन्नतिपथ पर आगे बढ़ते चलें । 'सोम व पूषा' का समन्वय हमें उस शक्ति को प्राप्त कराएगा, जिससे हम सब शत्रुओं का पराभव कर सकेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ – 'सौम्यता व तेजस्विता' का समन्वय मुझे विजयी बनाए ।

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    विषय

    सोम पूषा, माता पिता के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य और पृथिवी दोनों में से ( अन्यः ) एक पृथिवी भी सब पदार्थों को उत्पन्न करने से ‘सोम’ है वह ( विश्वानि भुवना ) सब प्रकार के भूतों और प्राणियों को ( जजान ) उत्पन्न करती और ( अन्यः ) दूसरा ( विश्वम् ) सबको ( अभिचक्षाणः ) प्रकाश द्वारा देखता और दिखाता हुआ ( एति ) प्राप्त होता है उसी प्रकार ( अन्यः ) पुरुष और स्त्री दोनों में से उत्पादक माता होने से वह भी ‘सोम’ है वह ( विश्वानि भुवनानि ) समस्त सन्तानों को उत्पन्न करे और ( अन्यः ) दूसरा पुरुष ( विश्वम् ) सब गृहस्थ के कार्य को ( अभिचक्षाणः ) देखता, उस पर निगरानी रखता हुआ ( एति ) आवे । ऐसे दोनों ( सोमा पूषणा ) सोम और पूषा, उत्पादक और पोषक माता पिता ( मे धियं ) मेरे मुझ पुरुष या राजा के धारण करने योग्य कर्मों की ( अवतम् ) रक्षा करें । हे (सोमापूषणा ) स्त्री पुरुषो ! ( युवाभ्यां ) तुम दोनों के द्वारा हम लोग ( विश्वाः ) सब ( पृतनाः ) मनुष्यों को ( जयेम ) विजय करें, सबसे ऊंचे होकर रहें । ( २ ) अपान सब रसों को उत्पन्न करता प्राण ज्ञानेन्द्रियों से देखता और वाणी से बोलता है। मेरे देह के कर्म या व्यापार को दोनों चलाते, सब देहों पर उन दोनों के बल से हम ऊंचे रहते हैं । (३) इसी प्रकार पिता पैदा करता, आचार्य उपदेश करता है कि वे दोनों मुझ राष्ट्र के धारण और ज्ञान बल की रक्षा करें। उनके द्वारा हम सब पर विजयी हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः॥ १-३ सोमापूषणावदितिश्च देवता॥ छन्दः–१, ३ त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ४ स्वराट् पङ्क्तिः॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो वायू सर्व गोलांना धारण करतो व जो शब्दप्रयोग किंवा श्रवणाचे निमित्त आहे, हे जाणून सर्व माणसांनी उन्नती केली पाहिजे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    One of them creates the entire worlds of existence, and the other goes on and on watching the world and watched and admired by the world. O Soma and Pusha, I pray, protect and promote my intelligence. We pray that with the help and kindness of both of you we may help and promote the entire humanity and win the battles of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the enlightened persons are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers ! protect my intellect by teaching about Soma and Pooshan (earth and sun), one of which (the earth) creates all things of this world and the other (the sun) proceeds looking upon the universe. Through you, may we make all human beings prosperous.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All men should be led towards prosperity by imparting to them the knowledge about the earth, the sun and the air, etc. as they uphold the our sun world.

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