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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सोमाहुतिर्भार्गवः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    द॒ध॒न्वे वा॒ यदी॒मनु॒ वोच॒द्ब्रह्मा॑णि॒ वेरु॒ तत्। परि॒ विश्वा॑नि॒ काव्या॑ ने॒मिश्च॒क्रमि॑वाभवत्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द॒ध॒न्वे । वा॒ । यत् । ई॒म् । अनु॑ । वोच॑त् । ब्रह्मा॑णि । वेः । ऊँ॒ इति॑ । तत् । परि॑ । विश्वा॑नि । काव्या॑ । ने॒मिः । च॒क्रम्ऽइ॑व । अ॒भ॒व॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दधन्वे वा यदीमनु वोचद्ब्रह्माणि वेरु तत्। परि विश्वानि काव्या नेमिश्चक्रमिवाभवत्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दधन्वे। वा। यत्। ईम्। अनु। वोचत्। ब्रह्माणि। वेः। ऊँ इति। तत्। परि। विश्वानि। काव्या। नेमिः। चक्रम्ऽइव। अभवत्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरीश्वरविषयमाह।

    अन्वयः

    सूर्यो यदीं दधन्वे ब्रह्मविद्वा ब्रह्माण्यनुवोचत्तत्सर्वं यदीश्वरो वेरु जानाति विश्वानि काव्या परि वेरु ततो नेमिश्चक्रमिव विद्वानभवत् ॥३॥

    पदार्थः

    (दधन्वे) धरति (वा) (यत्) (ईम्) जलम् (अनु) (वोचत्) पुनरुपदिशेत् (ब्रह्माणि) बृहन्ति (वेः) जानाति (उ) (तत्) (परि) (सर्वतः) (विश्वानि) सर्वाणि (काव्या) कवेः क्रान्तप्रज्ञस्य कर्माणि (नेमिः) प्रापकः लयः (चक्रमिव) चक्रमिव अभवत् भवति ॥३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। सूर्यो जलं धरति विद्वांसश्च ब्रह्मविषयादीन् वदन्ति तत्सर्वं व्यापकः परमेश्वरः साङ्गोपाङ्गं जानाति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर ईश्वर के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    सूर्य (यत्) जो (ईम्) जल को (दधन्वे) धारण करता है (वा) वा ब्रह्मवेत्ता (ब्रह्माणि) बड़े-बड़े ब्रह्मविषयों का (अनुवोचत्) बार-बार उपदेश करता है (तत्) उस सबको जिस कारण ईश्वर (वेः, उ) जानता ही है और (विश्वानि) समस्त (काव्या) उत्तम बुद्धिमानों के कर्मों को (परि) सब ओर से जानता ही है, इस कारण जैसे (नेमिः) धुरी (चक्रम्) पहिये को वर्त्तानेवाली होती, वैसे इस संसार के व्यवहारों को वर्त्तानेवाला विद्वान् (अभवत्) होता है ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सूर्य जल को धारण करता है वा विद्वान् जन ब्रह्मविषयादि को कहते हैं, उस सबको व्यापक परमेश्वर साङ्गोपाङ्ग जानता है ॥३॥

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    विषय

    'आनन्दों व ज्ञानों के निधि' प्रभु

    पदार्थ

    १. प्रभु ही (वा) = निश्चय से (दधन्वे) = इस सृष्टि को धारण करते हैं, (यत्) = और जो (ईम्) = निश्चय = से ब्रह्माणि ज्ञान की वाणियों को (अनुवोचत्) = क्रमशः 'अग्नि, वायु, आदित्य व अङ्गिरा' आदि के हृदयों में उच्चरित करते हैं । (तत्) = वे प्रभु ही (उ) = निश्चय से (वे:) = [कामयते] इस सृष्टियज्ञ के विस्तार की कामना करते हैं । २. वे प्रभु ही (विश्वानि) = सब (काव्या) = [Happiness; Wisdom] आनन्दों व ज्ञानों के (परि अभवत्) = चारों ओर इस प्रकार होते हैं, इव जैसे कि (चक्रम्) = चक्र के चारों ओर (नेमिः) = नेमि [हाल] होती है । सब आनन्दों व ज्ञानों की सीमा प्रभु ही हैं। प्रभु का उपासक ही इन काव्यों को प्राप्त करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही संसार को धारण करते हैं-वे ज्ञान देते हैं। इस सृष्टियज्ञ के विस्तार की कामनावाले प्रभु ही ज्ञानों व आनन्दों के निधि हैं।

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    विषय

    यज्ञ में सात ऋत्विजों में पोता के समान सात प्राणों में मन वा आत्मा की स्थिति ।

    भावार्थ

    ( यत् ) जो ( ईम् ) इस समस्त विश्व को सूर्य के समान धारण सामर्थ्य से ( दधन्वे ) धारण करता है और जो भी विद्वान् जन ( ब्रह्माणि अनु वोचत् ) वेदादि सत् शास्त्रोक्त ब्रह्मज्ञानों का उपदेश करता है वह ( तत् ) उन सब को ( वेः उ ) निश्चय से व्यापता और जानता है। वह ( विश्वानि ) समस्त ( काव्यानि ) विद्वान्, मेधावी, क्रान्तदर्शी, तत्वज्ञानी पुरुषों के जानने और करने योग्य कार्यों और ज्ञातव्य ज्ञानों के ( परि ) ऊपर ( चक्रम् इव नेमिः ) चक्र पर चढ़े हाल के समान ( परि अभवत् ) विद्यमान है । वह सब में व्यापक है सबको अपने भीतर लिये हुए हैं, या सब को ( नेमिः ) अपने अधीन वश करने वाला, सब का प्रापक, नायक है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोमाहुतिर्भार्गव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ३, ६ निचृदनुष्टुप् २, ४, ५ अनुष्टुप् । ८ विराडनुष्टुप् । ७ भुरिगुष्णिक् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. सूर्य जल धारण करतो किंवा विद्वान लोक ब्रह्माविषयी उपदेश करतात ते सर्व व्यापक परमेश्वर सांगोपांग जाणतो. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    He holds and controls the waters of life, and He reveals the universal knowledge of existence, the Veda. And He knows that world of existence and comprehends the cosmic system and its working. Thus He holds and controls its working just as the centre-hold of the wheel and the rim hold the structure and control the movement of the wheel.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More about God is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The way sun holds the water, similarly, a knower of God repeats his sermons on spiritualism. As God knows all such actions of the learned people fully, the same way a learned person knows thoroughly about the mundane matters.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Here is a simile. God knows all the history, origin and secret of the universe, like the sun is holding water.

    Foot Notes

    (दधन्वे ) धरति = Holds. (ईम् ) जलम् = Waters. (वे:) जानाति = Knows. (काव्या) कवेः कान्तप्रज्ञस्य कर्माणि = The actions of thoroughly learned persons.

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