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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 9/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अग्ने॒ यज॑स्व ह॒विषा॒ यजी॑याञ्छ्रु॒ष्टी दे॒ष्णम॒भि गृ॑णीहि॒ राधः॑। त्वं ह्यसि॑ रयि॒पती॑ रयी॒णां त्वं शु॒क्रस्य॒ वच॑सो म॒नोता॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । यज॑स्व । ह॒विषा॑ । यजी॑यान् । श्रु॒ष्टी । दे॒ष्णम् । अ॒भि । गृ॒णी॒हि॒ । राधः॑ । त्वम् । हि । असि॑ । र॒यि॒ऽपतिः॑ । र॒यी॒णाम् । त्वम् । शु॒क्रस्य॑ । वच॑सः । म॒नोता॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने यजस्व हविषा यजीयाञ्छ्रुष्टी देष्णमभि गृणीहि राधः। त्वं ह्यसि रयिपती रयीणां त्वं शुक्रस्य वचसो मनोता॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। यजस्व। हविषा। यजीयान्। श्रुष्टी। देष्णम्। अभि। गृणीहि। राधः। त्वम्। हि। असि। रयिऽपतिः। रयीणाम्। त्वम्। शुक्रस्य। वचसः। मनोता॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 9; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अग्ने यतस्त्वं रयीणां रयिपतिस्त्वं शुक्रस्य वचसो मनोताऽसि तस्माद्धि यजीयान्त्सन् हविषा यजस्व देष्णं राधः श्रुष्ट्यभिगृणीहि ॥४॥

    पदार्थः

    (अग्ने) पावक इव विद्वन् (यजस्व) (हविषा) होतव्येन वस्तुना (यजीयान्) अतिशयेन यष्टा (श्रुष्टी) सद्यः (देष्णम्) दातुं योग्यम् (अभि) (गृणीहि) सर्वतः प्रशंस (राधः) धनम् (त्वम्) (हि) (असि) (रयिपतिः) श्रीस्वामी (रयीणाम्) धनानाम् (त्वम्) (शुक्रस्य) शुद्धिकरस्य (वचसः) वचनस्य (मनोता) प्रज्ञापकः। अत्र मन धातोर्बाहुलकादौणादिक ओतन् प्रत्ययः ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये धनाढ्या धनेन परोपकारं कुर्युस्ते सर्वेषां प्रिया जायन्ते ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान विद्वान् ! जिस कारण (त्वम्) आप (रयीणाम्) धनादि पदार्थों के बीच (रयिपतिः) धनपति और (त्वम्) आप (शुक्रस्य) शुद्ध करनेवाले (वचसः) वचन के (मनोता) उत्तमता से जतलानेवाले (असि) हैं। (हि) इसी से (यजीयान्) अत्यन्त यज्ञकर्त्ता होते हुए (हविषा) होमने योग्य वस्तु से (यजस्व) यज्ञ कीजिये और (देष्णम्) देने योग्य (राधः) धन की (श्रुष्टी) शीघ्र (अभि,गृणीहि) सब ओर से प्रशंसा करो ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो धनाढ्य धन से परोपकार करें, वे सबके प्यारे होते हैं ॥४॥

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    विषय

    देष्णं राध: ( धन दान के लिए)

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन्! आप हमें (हविषा यजस्व) = हवि से संगत करिए। आपकी कृपा से हम सदा यज्ञों को करनेवाले हों। (यजीयान्) = आप ही सर्वोत्तम यष्टा हैं। हमने यज्ञों को क्या करना है। इन यज्ञों ने तो आपकी शक्ति से ही होना है। आप (श्रुष्टी) = शीघ्र ही (देष्णम्) [देयं] = दान देने योग्य (राधः) = धन को सर्वकार्य साधक ऐश्वर्य को (अभिगृणीहि) = [प्रयच्छ सा०] आभिमुख्येन देने की कृपा करिए । इन धनों से ही तो हम यज्ञों को सिद्ध कर सकेंगे । २. (त्वम्) = आप हि निश्चय से (रयीणां रयिपतिः) = धनों के स्वामी (असि) = हैं। और (त्वम्) = आप (शुक्रस्य) = शुद्ध (वचसः) = वेदज्ञान के (मनोता) = प्रज्ञापक हैं (मानयिता सा०) । इस वेदज्ञान के कारण हम धनों का दुरुपयोग करने से बचकर उनका यज्ञादि उत्तम कार्यों में ही विनियोग करते हैं। धन हमारे कार्यों को सिद्ध करता है तो वेदज्ञान उन धनों की हानि से हमें बचाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हे प्रभो ! आप हमें धनों को देते हैं और उनके ठीक प्रयोग के लिए वेदज्ञान प्राप्त कराते हैं।

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    विषय

    यज्ञाग्निवत् उत्तमाधिकारी सभापति और सेनापति के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने ) अग्ने ! नायक ! विद्वन् ! ( यजीयान् ) तू दानशील होकर ( हविषा ) अन्न आदि देने और विद्वानों से स्वीकार करने योग्य पदार्थों को (यजस्व) द्वारा अन्यों से उसके मैत्री भाव उत्पन्न कर । ( श्रुष्टी ) शीघ्र ही, ( देष्णम् ) देने योग्य ( राधः ) धन को ( अभि गृणीहि ) देने का आदेश कर । ( त्वं हि ) निश्चय तू ही ( रयीणां ) ऐश्वर्यों का ( रयिपतिः ) स्वामी (असि) है । ( त्वं ) तू ( शुक्रस्य वचसः ) शीघ्र कार्य कराने में समर्थ, अति तेजस्वी वाणी का ( मनोता ) आज्ञापक, प्रवक्ता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, ३ त्रिष्टुप् । ४ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । २ पङ्क्तिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे धनाढ्य लोक धनाने परोपकार करतात ते सर्वांचे प्रिय होतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, high-priest of cosmic yajna, perform the yajna of creation and evolution with the holiest materials in existence, go on with the performance, instantly as ever, receiving, offering, consuming and creating the wealth worthy and valuable as holy gift, and loudly proclaim the wealth you have created and the success you have achieved. Surely you alone are the lord of riches, creator as well as dispenser of the jewels of the earth. And you are the inspirer and proclaimer of the eternal Word of power, purity and truth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Mere knowledge and qualities about the fire-like scholar is stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O scholar! you are owner of great wealth and present good words and speech which is purifying to all. You are a great performer of the Yajna, and therefore do it here the same way with nice oblations in order to signify the importance of donations and wealth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The wealthy persons who do good to others, they are loved by all.

    Foot Notes

    (यजीयान् ) अतिशयेन यष्टा = One who performs the Yajnas extensively. (श्रुष्टि) सद्यः। = soon (रयिपति:) श्रीस्वामी = Owner of wealth. (मनोता ) प्रज्ञापकः । अत्र मन धातोबार्हुलकादौणादिक: ओतन प्रत्ययः । = One who explains nicely.

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