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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 9/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒भयं॑ ते॒ न क्षी॑यते वस॒व्यं॑ दि॒वेदि॑वे॒ जाय॑मानस्य दस्म। कृ॒धि क्षु॒मन्तं॑ जरि॒तार॑मग्ने कृ॒धि पतिं॑ स्वप॒त्यस्य॑ रा॒यः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒भय॑म् । ते॒ । न । क्षी॒य॒ते॒ । व॒स॒व्य॑म् । दि॒वेऽदि॑वे॒ । जाय॑मानस्य । द॒स्म॒ । कृ॒धि । क्षु॒ऽमन्त॑म् । जरि॒तार॑म् । अ॒ग्ने॒ । कृ॒धि । पति॑म् । सु॒ऽअ॒प॒त्यस्य॑ । रा॒यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उभयं ते न क्षीयते वसव्यं दिवेदिवे जायमानस्य दस्म। कृधि क्षुमन्तं जरितारमग्ने कृधि पतिं स्वपत्यस्य रायः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उभयम्। ते। न। क्षीयते। वसव्यम्। दिवेऽदिवे। जायमानस्य। दस्म। कृधि। क्षुऽमन्तम्। जरितारम्। अग्ने। कृधि। पतिम्। सुऽअपत्यस्य। रायः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 9; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे दस्माग्ने दिवेदिवे जायमानस्य यस्य ते उभयं वसव्यं न क्षीयते स त्वं जरितारं क्षुमन्तं कृधि स्वपत्यस्य रायः पतिं कृधि ॥५॥

    पदार्थः

    (उभयम्) दानं यजनं च (ते) तव (न) (क्षीयते) नश्यति (वसव्यम्) वसुषु भवम् (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (जायमानस्य) (दस्म) परदुःखभञ्जक (कृधि) कुरु (क्षुमन्तम्) बह्वन्नयुक्तम् (जरितारम्) विद्यागुणप्रशंसकम् (अग्ने) अग्निवद्वर्धमान (कृधि) (पतिम्) (स्वपत्यस्य) शोभनान्यपत्यानि यस्मात्तस्य (रायः) दातुं योग्यस्य धनस्य ॥५॥

    भावार्थः

    तस्यैव कुलाद्धननाशो न भवति योऽन्येभ्यः सुपात्रेभ्यो जगदुपकाराय प्रयच्छति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (दस्म) पर-दुःख-भञ्जन करनेवाले और (अग्ने) अग्नि के समान बढ़नेवाले विद्वान् ! (दिवेदिवे) प्रतिदिन (जायमानस्य) सिद्ध हुए जिन (ते) आपका (उभयम्) दान और यज्ञ करना दोनों (वसव्यम्) धनों में प्रसिद्ध हुए काम (न) नहीं (क्षीयते) नष्ट होते सो आप (जरितारम्) विद्यादि गुण की प्रशंसा करनेवाले (क्षुमन्तम्) बहुत अन्नवाले को (कृधि) उत्पन्न करो और (स्वपत्यस्य) जिससे उत्तम सन्तान होते उस (रायः) देने योग्य धन को (पतिम्) पालने रखनेवाले को (कृधि) कीजिये ॥५॥

    भावार्थ

    उसी के कुल से धन नाश नहीं होता, जो और सुपात्रों के लिये संसार का उपकार करने को देता है ॥५॥

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    विषय

    उभयं वसव्यम् [ज्ञान+धन]

    पदार्थ

    १. हे (दस्म) = दर्शनीय व हमारे सब दुःखों का उपक्षय करनेवाले प्रभो! (दिवे दिवे) = प्रतिदिन (जायमानस्य) = उपासना द्वारा हृदय में आविर्भूत होनेवाले (ते) = आपका (उभयं वसव्यम्) = दोनों प्रकार का धन, ज्ञानरूप दिव्य धन, तथा द्रविण रूप पार्थिवधन न क्षीयते नष्ट नहीं होता। आपका दिव्य व भौमधन अनन्त है। २. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! उन धनों द्वारा (जरितारम्) = इस स्तवन करनेवाले भक्त को (क्षुमन्तं कृधि) = ['क्षु' अन्न नाम नि० २.७] प्रशस्त अन्नवाला करिए। धन द्वारा यह अन्न जुटा पाए, ज्ञान द्वारा उत्कृष्ट अन्न ही जुटानेवाला हो । ३. हे प्रभो! आप इस स्तोता को (स्वपत्यस्य) = उत्तम सन्तानोंवाले (रायः) = धन का (पतिं कृधि) = स्वामी बनाइए । धन के कारण सन्तानों में किसी प्रकार की कमी न आ जाए। वही धन ठीक है जो सभी के उत्थान का कारण बने ।इन धनों द्वारा हम सन्तानों को ऊँची से ऊँची शिक्षा दे पाएँ।

    भावार्थ

    भावार्थ – प्रभु हमें ज्ञान व धन दोनों को प्राप्त कराएँ । धनों से हम उत्कृष्ट अन्न को जुटाएँ और सन्तानों को सुशिक्षा के द्वारा उत्तम बनाने के लिए यत्नशील हों ।

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    विषय

    यज्ञाग्निवत् उत्तमाधिकारी सभापति और सेनापति के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! विद्वन् ! नायक ! ( हे दस्म ) दर्शनीय ! हे प्रजा के दुःखों को नाश करने वाले ! ( दिवे दिवे ) प्रति दिन ( जायमानस्य ) उत्तरोत्तर प्रकट करने वाले, बढ़ते हुए ( ते ) तेरा ( उभयं ) दोनों प्रकार का, इस पृथिवी और आकाश का ( वसव्यं ) ऐश्वर्य कभी ( न क्षीयते ) क्षीण नहीं होता है । तू ( जरितारम् ) विद्वान् उपदेष्टा पुरुष को ( क्षुमन्तं ) अन्न आदि से युक्त ( कृधि ) कर और उसको ( सु-अपत्यस्य ) उत्तम पुत्र वाले ( रायः ) धन का ( पतिम् ) स्वामी ( कृधि ) कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, ३ त्रिष्टुप् । ४ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । २ पङ्क्तिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे सुपात्रांना जगावर उपकार करण्यासाठी धन देतात अशा कुळाचा नाश होत नाही. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Both your creation and dispensation of wealth never end, never diminish. Day by day your creation grows and your gifting prospers, lord of charity and destroyer of suffering as you are. Agni, lord of universal yajna, promote the worshipper of Divinity dedicated to holy work, promote the man of wealth and charity, promote the father of noble children and the defender of holy tradition, and raise the potential of the master creator of yajnic wealth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More details about the scholars are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O fire-like scholar ! you thrash out the sorrows of others, and perform Yajnas and give away donations daily. The truth is that the deeds performed with honest means never decay. You make people who are capable to teach good qualities and produce the food grains. To such a person, you give good sons and daughters and wealth and always protect them.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    One who does good to all people, his wealth always remains growing and never disappears.

    Foot Notes

    (वसव्यम्) वसुषु भवम् = The work which is performed through the wealth. (दस्म) परदुःखभञ्जक = One who shares and removes the grief of others. (क्षुमन्तम् ) वह्नत्रयुक्तम् = With plenty of food grains. (स्वपत्यस्य ) शोभनान्यपत्यानि यस्मात्तरय | = Of the one who has got ideal sons and daughters.

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