ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 9/ मन्त्र 6
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सैनानी॑केन सुवि॒दत्रो॑ अ॒स्मे यष्टा॑ दे॒वाँ आय॑जिष्ठः स्व॒स्ति। अद॑ब्धो गो॒पा उ॒त नः॑ पर॒स्पा अग्ने॑ द्यु॒मदु॒त रे॒वद्दि॑दीहि॥
स्वर सहित पद पाठसः । ए॒ना । अनी॑केन । सु॒ऽवि॒दत्रः॑ । अ॒स्मे इति॑ । यष्टा॑ । दे॒वान् । आऽय॑जिष्ठः । स्व॒स्ति । अद॑ब्धः । गो॒पाः । उ॒त । नः॒ । प॒रः॒ऽपाः । अग्ने॑ । द्यु॒ऽमत् । उ॒त । रे॒वत् । दि॒दी॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सैनानीकेन सुविदत्रो अस्मे यष्टा देवाँ आयजिष्ठः स्वस्ति। अदब्धो गोपा उत नः परस्पा अग्ने द्युमदुत रेवद्दिदीहि॥
स्वर रहित पद पाठसः। एना। अनीकेन। सुऽविदत्रः। अस्मे इति। यष्टा। देवान्। आऽयजिष्ठः। स्वस्ति। अदब्धः। गोपाः। उत। नः। परःऽपाः। अग्ने। द्युऽमत्। उत। रेवत्। दिदीहि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 9; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे अग्ने यथा सोऽस्मे एनाऽनीकेन सुवीदत्रो यष्टा आयजिष्ठोऽदब्धो गोपा नः परस्पा द्युमदुत रेवत्स्वस्ति ददात्युत देवान् सेवते तथा त्वमेतद्दिदीहि ॥६॥
पदार्थः
(सः) दाता। अत्र सोऽचि लोप इति सुलोपः। (एना) एनेन (अनीकेन) सेनासमूहेन सह (सुविदत्रः) सुविज्ञानदाता (अस्मे) (अस्माकम्) (यष्टा) सङ्गन्ता सुष्ठुविज्ञाता दाता वा (देवान्) दिव्यान् गुणान् विजिगीषकान् वीरान्वा (आयजिष्ठः) समन्तादतिशयितो यष्टा (स्वस्ति) सुखम् (अदब्धः) अहिंसितः (गोपाः) गवां पाता (उत) अपि (नः) अस्माकम् (परस्पाः) पारयिता (अग्ने) विद्वन् (द्युमत्) विज्ञानप्रकाशयुक्तम् (उत) अपि (रेवत्) बहुधनसहितम् (दिदीहि) देहि ॥६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथोत्तमया सेनया युक्तो राजा दुष्टाञ्जित्वा विदुषः सत्कृत्य प्रजाः संरक्ष्य सर्वेषामैश्वर्यं वर्द्धयति तथा सर्वैर्भवितव्यमिति ॥६ अस्मिन् सूक्तेऽग्निवद्विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति नवमं सूक्त प्रथमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के समान विद्वान् ! जैसे (सः) वह देनेवाला (अस्मे) हमारे (एना) इस (अनीकेन) सेना समूह के साथ (सुविदत्रः) सुन्दर विज्ञान देने (यष्टा) और सब व्यवहारों की सङ्गति करनेवाला अच्छा ज्ञानी वा दाता (आ,यजिष्ठः) सब ओर से अतीव यज्ञकर्त्ता (अदब्धः) न नष्ट हुआ (गोपाः) गोपाल (नः) हमको (परस्पाः) दुःखों से पार करनेवाला (द्युमत्) विज्ञान प्रकाशयुक्त (उत) और (रेवत्) बहुत धन सहित (स्वस्ति) सुख को देता है (उत) और (देवान्) दिव्य गुण वा अपना विजय चाहनेवाले वीरों को सेवते हैं, वैसे आप उक्त समस्त को (दीदिहि) दीजिये ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे उत्तम सेना से युक्त राजा दुष्टों को जीत विद्वानों का सत्कार कर और प्रजा की अच्छे प्रकार रक्षा कर सबका ऐश्वर्य बढ़ाता है, वैसे सभों को होना चाहिये ॥६॥ इस सूक्त में अग्नि के समान विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥ यह नववाँ सूक्त और पहिला वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
सुविदत्रः आयजिष्ठः
पदार्थ
१. (सः) = वे आप (एना) = इस (अनीकेन) = [Splendour, Brilliance] तेजस्विता से अस्मे हमारे लिए (सुविदत्रः) = उत्तम धनोंवाले होइए [विद् लाभे] । (देवान् यष्टा) = देवों का हमारे साथ संगतिकरण करिए, (आयजिष्ठः) = आप ही सर्वाधिक पूज्य हैं । २. (अदब्धः) = अहिंसित होते हुए आप (गोपाः) = हमारे रक्षक हैं। (उत) = और (नः) = हमें (परस्पाः) = शत्रुओं से बचानेवाले हैं । (अग्ने) = हे अग्रणी प्रभो ! आप (द्युमत्) = ज्योतिर्मय रूप से (उत) और (रेवत्) = ऐश्वर्यसम्पन्न रूप से (स्वस्ति) बड़े कल्याण के साथ [स्वस्ति यथा स्यात्तथा] (दिदीहि) = दीप्त होइए। हम आपसे ज्योति व ऐश्वर्य प्राप्त करके कल्याणपूर्वक दीप्त-जीवन बितानेवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ – हे प्रभो! आप हमें तेजस्विता व उत्तम धन प्राप्त कराते हैं। आप हमारे जीवनों में ज्योतिर्मय व ऐश्वर्यसम्पन्न होकर दीप्त होइए । सूक्त का सार यह है कि हम प्रभु का ज्ञानस्तवन व यज्ञों द्वारा पूजन करें। प्रभु हमारे लिए ज्ञान व धन प्राप्त कराके हमारे जीवनों को दीप्त व ऐश्वर्यसम्पन्न बनाते हैं। अगले सूक्त का भी यही विषय है -
विषय
यज्ञाग्निवत् उत्तमाधिकारी सभापति और सेनापति के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्रणी, सेनानायक ! तू ( सः ) वह ( एना ) इस ( अनीकेन ) ज्ञान और सैन्य बल से ( सु विदत्रः ) उत्तम ज्ञानवान् और उत्तम रीति से प्राप्त धन की रक्षा करने हारा, (आ यजिष्ठः) सब से सत्संगति और मैत्रीभाव रखता हुआ, (देवान्) विद्वानों और विजयेच्छुक वीर पुरुषों को ( यष्टा ) मिलाता और वेतनादि देता हुआ ( अदब्धः ) कहीं भी हिंसित न होकर, (नः) हमारा (गोपाः) रक्षक और (परस्पाः) संग्राम आदि संकटों से पार करने वाला एवं ( धुमत् ) तेजस्वी और ( रेवत् ) ऐश्वर्यवान् होकर ( दिदीहि ) प्रकाशित हो और ऐश्वर्य का दान कर । इति प्रथमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, ३ त्रिष्टुप् । ४ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । २ पङ्क्तिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा उत्तम सेनेने युक्त राजा दुष्टांना जिंकून विद्वानांचा सत्कार करून प्रजेचे चांगल्या प्रकारे रक्षण करतो व सर्वांचे ऐश्वर्य वाढवितो, तसे सर्वांनी वागले पाहिजे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of light, creator and commander of wealth, shine with this glory of yours, generous benefactor of ours, high-priest of cosmic yajna with the bounties of nature to the maximum for the good of humanity. Shine on, high-priest of yajna, fearless and inviolable, protector of the cow, mother earth and her children, our saviour and ultimate protector.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes scholars are repeated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O scholar ! you are shining like fire. With your followers and soldiers, you give us good company and knowledge. One who performs Yajna (scarifies) extensively and looks after the cows, he always gives us wealth, delight, happiness, divine virtues and victory and removes our sorrows. May you impart us all these qualities.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here is a simile. A ruler who honors learned persons and protects well his subjects, he earns extensive prominence. We all should follow him.
Foot Notes
(एना ) एतेन = Because of it. (अनीकेन) सेनासमूहेन सह | = Along with the military formations. (यष्टा) सङ्गन्ता सुष्ठुविज्ञाता दाता वा = One who has acquired knowledge or is a donor or is in company of good people. (आयजिष्ठ:) समन्तादतिशयितो यष्टा । = One who performs Yajnas extensively. (अदब्ध:) अहिसितः = Full of non-violence. (परस्पा:) पारयिता = One who takes across.
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