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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 21/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गाथी कौशिकः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    घृ॒तव॑न्तः पावक ते स्तो॒काः श्चो॑तन्ति॒ मेद॑सः। स्वध॑र्मन्दे॒ववी॑तये॒ श्रेष्ठं॑ नो धेहि॒ वार्य॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तऽव॑न्तः । पा॒व॒क॒ । ते॒ । स्तो॒काः । श्चो॒त॒न्ति॒ । मेद॑सः । स्वऽध॑र्मन् । दे॒वऽवी॑तये । श्रेष्ठ॑म् । नः॒ । धे॒हि॒ । वार्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतवन्तः पावक ते स्तोकाः श्चोतन्ति मेदसः। स्वधर्मन्देववीतये श्रेष्ठं नो धेहि वार्यम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घृतऽवन्तः। पावक। ते। स्तोकाः। श्चोतन्ति। मेदसः। स्वऽधर्मन्। देवऽवीतये। श्रेष्ठम्। नः। धेहि। वार्यम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ धर्मोपदेशकाः किंवत्पालयन्तीत्याह।

    अन्वयः

    हे पावक ! यस्य ते घृतवन्तो मेदसः स्तोकाः श्चोतन्ति स त्वं देववीतये श्रेष्ठं वार्य्यं स्वधर्मन्नो धेहि ॥२॥

    पदार्थः

    (घृतवन्तः) प्रशस्तं बहु वा घृतमाज्यमुदकं वा विद्यते येषान्ते (पावक) अग्निवत्पवित्रकारक (ते) तव (स्तोकाः) अल्पाः (श्चोतन्ति) सिञ्चन्ति (मेदसः) स्निग्धाः (स्वधर्मन्) स्वस्य वैदिके धर्मणि (देववीतये) विद्वत्प्राप्तये (श्रेष्ठम्) अतिशयेन प्रशस्तम् (नः) अस्मभ्यम् (धेहि) देहि (वार्य्यम्) वर्तुमर्हं धनम् ॥२॥

    भावार्थः

    यथा पावकः स्वकर्मणा जलादिपदार्थान् शुद्धान् कृत्वा वर्षादिरूपेण सर्वान् सिक्त्वा सर्वान् जीवयति तथैव विद्याधर्म्मोपदेशकाः सर्वान् मनुष्यान्पालयन्ति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब धर्म्मोपदेशक किसके तुल्य रक्षा करते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (पावक) अग्नि के सदृश पवित्रकर्त्ता ! जिन (ते) आपके (घृतवन्तः) उत्तम वा अधिक घृतवाले तथा जलयुक्त (मेदसः) चिकने (स्तोकाः) थोड़े पदार्थ (श्चोतन्ति) सिञ्चन करते हैं वह आप (देववीतये) विद्वानों की प्राप्ति के लिये (श्रेष्ठम्) अतिउत्तम (वार्य्यम्) स्वीकार करने योग्य धन (स्वधर्मन्) अपने वैदिक धर्म में (नः) हम लोगों के लिये (धेहि) दीजिये ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे अग्नि जल आदि पदार्थों को अपने कर्म से शुद्ध कर वर्षा आदि रूप से संपूर्ण पदार्थों को सींच कर सब जीवों की रक्षा करते हैं, वैसे ही विद्या और धर्म के उपदेशक लोग संपूर्ण मनुष्यों का पालन करते हैं ॥२॥

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    विषय

    घृत तथा आवश्यक धन

    पदार्थ

    [१] जीव प्रभु से निवेदन करता है कि हे पावक मेरे जीवन को पवित्र करनेवाले प्रभो ! (ते) = आपके (घृतवन्तः) = घृतवाले (मेदसः स्तोका:) = मेदस्तत्त्व के कण (श्चोतन्ति) = मेरे में क्षरित होते हैं, अर्थात् मैं घृत द्वारा मेदस्तत्त्व के कणों को प्राप्त करता हूँ। [२] (स्वधर्मन्) = अपने धारण के निमित्त अर्थात् जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के निमित्त तथा (देववीतये) = अतिथिरूपेण आये हुए देवों के भक्षण के निमित्त (नः) = हमारे लिए (श्रेष्ठम्) = उत्तम (वार्यम्) = वर्णीय धन को (धेहि) = धारण करिए। हमें इतना धन प्राप्त कराइये कि हम अपने जीवन को धारण कर सकें तथा आये गये को खिला सकें। इस धन को हम उत्तम साधनों से ही कमानेवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम घृत से मेदस्तत्त्व के कणों को प्राप्त करें तथा आवश्यक धन को उत्तम साधनों से कमानेवाले हों ।

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    विषय

    अग्नितुल्य आचार्य।

    भावार्थ

    हे (पावक) पवित्र करने हारे एवं अग्नि के समान तेजस्विन् ! जिस प्रकार (मेदसः स्तोकाः) स्निग्ध पदार्थ के बिन्दु अग्नि में पड़ते हैं उसी प्रकार (ते) तेरे (मेदसः) स्नेह से युक्त (घृतवन्तः) ज्ञान और ब्रह्मचर्य के तेज से सम्पन्न (स्तोकाः) बिन्दुओं के समान अल्पबल और अल्पज्ञानी वा विद्याभ्यासी शिष्यगण (श्चोतन्ति) तुझ से ही निकलते हैं। हे विद्वन् ! तू (देव-वीतये) विद्वान् पुरुषों के बीच कान्ति धारण करने के लिये या ज्ञानाभिलाषी शिष्यों के बीच ज्ञान प्रकाशित करने के लिये (स्वधर्मन्) अपने धर्म में स्थित होकर (नः) हमें (श्रेष्ठं वार्यम्) उत्तम, वरण करने योग्य और ज्ञानेश्वर्य (धेहि) प्रदान कर। (२) अपने से अल्प, तेजस्वी, हृष्ट पुष्ट अधीन भृत्य उसके अधीन (श्चीतन्ति) चलें। वे उनके तेज को बढ़ाने के लिये उनके भोजन के लिये अपने धर्म में स्थित होकर श्रेष्ठ ऐश्वर्य और उत्तम अन्न दें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कौशिको गाथी ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, ४ त्रिष्टुप्। २, ३ अनुष्टुप्। ५ विराट् बृहती॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे अग्नी, जल इत्यादी पदार्थांना आपल्या क्रियेने शुद्ध करून वृष्टीरूपाने सर्व पदार्थांना सिंचित करून सर्व जीवांचे रक्षण करतो तसेच विद्या व धर्माचे उपदेशक संपूर्ण माणसांचे पालन करतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Pavaka, purifying fire of yajna, the finest delicacies soaked in ghrta, tender and unctuous, stream forth and rise in fragrance. Taste these, bring us the loveliest gifts of our choice and let us be established in our universal Dharma for the company of the divinities of nature and humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The way preachers of Dharma protect and what do they like is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O purifier like the fire ! from you flow things mixed with greasy ghee and other preparations and articles, big and small. Vouchsafe to us excellent wealth for the attainment of the enlightened persons in the path of the Vedic Dharma.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The fire purifies with its action the water and other elements, puts new life in them and enlivens them by raining down water. In the same manner, the preachers of Dharma and Vidya (knowledge) protect all.

    Foot Notes

    (स्वधर्मन्) स्वस्य वैदिके धर्मे। = In the path of the Vedic Dharma. (वार्य्यम्) वर्तमहं धनम्। = Most acceptable or excellent wealth.

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