ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 21/ मन्त्र 5
ओजि॑ष्ठं ते मध्य॒तो मेद॒ उद्भृ॑तं॒ प्र ते॑ व॒यं द॑दामहे। श्चोत॑न्ति ते वसो स्तो॒का अधि॑ त्व॒चि प्रति॒ तान्दे॑व॒शो वि॑हि॥
स्वर सहित पद पाठओजि॑ष्ठम् । ते॒ । म॒ध्य॒तः । मेदः॑ । उत्ऽभृ॑तम् । प्र । ते॒ । व॒यम् । द॒दा॒म॒हे॒ । श्चोत॑न्ति । ते॒ । व्स् इति॑ । स्तो॒काः । अधि॑ । त्व॒चि । प्रति॑ । तान् । दे॒व॒ऽशः । वि॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ओजिष्ठं ते मध्यतो मेद उद्भृतं प्र ते वयं ददामहे। श्चोतन्ति ते वसो स्तोका अधि त्वचि प्रति तान्देवशो विहि॥
स्वर रहित पद पाठओजिष्ठम्। ते। मध्यतः। मेदः। उत्ऽभृतम्। प्र। ते। वयम्। ददामहे। श्चोतन्ति। ते। वसो इति। स्तोकाः। अधि। त्वचि। प्रति। तान्। देवऽशः। विहि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 21; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे वसो ! ते मध्यतो यदोजिष्ठं मेद उद्भृतं तत्ते वयं प्रददामहे ये स्तोकास्तेऽधित्वचि श्चोतन्ति तान् देवशः प्रति विहि ॥५॥
पदार्थः
(ओजिष्ठम्) अतिशयेन बलिष्ठम् (ते) तव (मध्यतः) (मेदः) स्नेहः (उद्भृतम्) उत्कृष्टतया धृतम् (प्र) (ते) तुभ्यम् (वयम्) (ददामहे) (श्चोतन्ति) सिञ्चन्ति (ते) तव (वसो) वासहेतो (स्तोकाः) स्तावकाः (अधि) उपरिभावे (त्वचि) (प्रति) (तान्) (देयशः) देवान् (विहि) प्राप्नुहि। अत्रान्येषामपि दृश्यत इत्याद्यचो ह्रस्वः ॥५॥
भावार्थः
यो हि अतीव हृद्यं वस्तु यस्मै दद्यात्तेन तस्मै तादृशमेव देयं विदुषां सङ्गेन दिव्यान्गुणान्प्राप्नुवन्ति ते सर्वान्कोमलस्वभावान् कर्तुं शक्नुवन्तीति ॥५॥ अत्राग्निमनुष्यगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इत्येकाधिकविंशतितमं सूक्तमेकाधिकविंशतितमश्च वर्ग्गस्समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (वसो) निवास के कारण ! (ते) आपके (मध्यतः) मध्य से जो (ओजिष्ठम्) अति बलयुक्त (मेदः) प्रीति (उद्भृतम्) उत्तम प्रकार धारण की गयी उनको (ते) आपके लिये (वयम्) हम लोग (प्र, ददामहे) देते हैं जो (स्तोकाः) स्तुतिकारक (ते) आपके (अधि) उपर (त्वचि) चर्म में (श्चोतन्ति) सिञ्चन करते हैं (तान्) उन (देवशः) विद्वानों के (प्रति) समीप (विहि) प्राप्त होइये ॥५॥
भावार्थ
जो पुरुष बहुत ही उत्तम वस्तु जिस पुरुष को देवे, उस पुरुष को चाहिये कि उसे देनेवाले पुरुष को वैसी ही वस्तु देवे और जो लोग विद्वानों के सत्सङ्ग से श्रेष्ठ गुणों को प्राप्त होते हैं, वे संपूर्ण जनों को कोमल स्वभावयुक्त कर सकते हैं ॥५॥ इस सूक्त में अग्नि और मनुष्यों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह इक्कीसवाँ सूक्त और इक्कीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
तैल व घृत का अभ्यञ्जन
पदार्थ
[१] प्रभु कहते हैं- (ते) = तेरे लिए (ओजिष्ठं मेदः) = अत्यन्त ओज देनेवाला मेदस्तत्त्व (मध्यतः) = दूध में से अथवा फलों के गूदे से अथवा तिल व सरसों आदि ओषधियों में से (उद्धृतम्) = निकाला गया है । (वयम्) = हम (ते) = तेरे लिये (प्रददामहे) = इसे देते हैं । [२] हे (वसो) = निवास को उत्तम बनानेवाले जीव! (ते) = तेरे (त्वचि अधि) = त्वचा पर (स्तोकाः) = इस मेदस्तत्त्व के कण (श्चोतन्ति) = क्षरित होते हैं, अर्थात् इस घृत व तैल से त्वचा पर मालिश करता है और तान्- उन मेदस्तत्त्व के कणों को देवश:-देवों के उत्पादन के दृष्टिकोण से अपने में दिव्य भावों को जगाने के हेतु से प्रतिविहि प्रतिदिन सेवन कर। केवल शरीर के दृष्टिकोण से इनका सेवन करनेवाला मांस आदि से इस मेदस्तत्त्व को प्राप्त करने की कामना करता है। उस व्यक्ति के स्वभाव में क्रूरता आदि आसुरभाव जाग उठते हैं। इनका सेवन 'देवत्व' प्राप्ति के दृष्टिकोण से ही करना चाहिए। शरीर पर इस घृत व तैल का मर्दन भी हितकर है। तैल कुछ उष्णता का कारण बनता है, घृत शीतलता का।
भावार्थ
भावार्थ- हमें मेदस्तत्त्व को दूध व फलों से ही प्राप्त करना चाहिए। यही देव बनने का मार्ग है। सम्पूर्ण सूक्त इस बात को स्पष्ट कर रहा है कि शरीर के लिये मेदस्तत्त्व की प्राप्ति घृतकणों के सेवन द्वारा ही वाञ्छनीय है। इन घृतकणों द्वारा उत्पन्न सोमशक्ति के रक्षण के भाव से अगले सूक्त का प्रारम्भ होता है -
विषय
उनका अभिषेक।
भावार्थ
हे (वसो) गुरु के अधीन वास करने हारे विद्वन् ! अथवा हे अपने अधीन शिष्यों को बसाने हारे आचार्य ! (ते) तेरे (मध्यतः) हृदय के बीच से (ओजिष्ठं) अति अधिक ओजस्वी (मेदः) स्नेह और वीर्य (उद्भृतं) उत्तम रीति से तैने धारण किया है। (वयं) हम गुरु जन (ते) तुझे (प्र ददामहे) अच्छी प्रकार उत्तम २ ज्ञान प्रदान करते हैं। (ते अधि त्वचि) तेरी त्वचा पर (स्तोकाः) जल धाराओं के समान ज्ञान-जल प्रवाहित करने वाले विद्वान् जन (श्चोतन्ति) तेरा ज्ञान जल से स्नान करावें। तू (तान् देवशः) उन विद्वानों या तुझे चाहने वाले बन्धुजनों को (प्रतिविहि) प्राप्त हों। (२) हे राजन् ! तेरा जो सबसे अधिक ओजस्वी (मेदः) शत्रुहिंसक बल (मध्यतः) राष्ट्र के बीच में (उद्भृतम्) सर्वोपरि वेतन आदि द्वारा बद्ध है हे राष्ट्र के वसाने हारे वसो ! वह (ते) तुझे हम प्रजाजन ही प्रदान करते हैं तू (स्तोकाः) तेरे अल्प शक्तिशाली जन ही तेरे देह पर अभिषेक करते हैं, तू तेरे इच्छुक जन को प्राप्त हो (३) हे वसो ! परमेश्वर ! तेरा ही स्नेह हमारे बीच सब से उत्कृष्ट रूप से धारण किया है। वही स्नेह तेरे लिये हम प्रकाशित हैं। (स्तोकाः) स्तुतिकर्त्ता जन मृगछाला पर बैठकर तेरे लिये ही ज्ञान मार्ग की संगति करते हैं। तू उन तेरे इच्छुकों को प्राप्त हो, उनके प्रति प्रकाशित हो। इत्येकविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कौशिको गाथी ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, ४ त्रिष्टुप्। २, ३ अनुष्टुप्। ५ विराट् बृहती॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे पुरुष ज्यांना उत्तम वस्तू देतात त्यांनीही त्यांना तशाच वस्तू द्याव्यात. जे लोक विद्वानांच्या सत्संगाने श्रेष्ठ गुण प्राप्त करतात ते संपूर्ण लोकांना कोमल स्वभावयुक्त करू शकतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, vital heat and support of life, we offer you in the centre of the vedi the most lustrous delicacies held high in care and esteem. The finest delicacies trickle and stream on your flames. Take these and raise them to the divine powers of nature wherever each should rise.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The man's duties are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! you make your men to dwell in happiness. We give you what is the best and the most effective element of love. Your admirers give you ghee and other greasy substances for the preservation of your skin and other parts of body. Come to those learned persons to give them noble and elevating teachings.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
One who gives a good thing to someone, should be reciprocated by giving them some kind of thing in return. Those who attain divine virtues by the association of the enlightened persons, are able to make all men mild natured.
Foot Notes
(मेद:) स्नेहः । मेदो वै मेघ: ( Stph 3, 8, 5, 6) मेघो वा आज्यम् (T.T.R.Y. 3, 9, 12, 1 ) = Love. (विहि) प्राप्नुहि । अत्रान्येषामपिदृश्यते इत्याद्यचो ह्रस्वः । = Come, approach.
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