ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 35/ मन्त्र 11
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
शु॒नं हु॑वेम म॒घवा॑न॒मिन्द्र॑म॒स्मिन्भरे॒ नृत॑मं॒ वाज॑सातौ। शृ॒ण्वन्त॑मु॒ग्रमू॒तये॑ स॒मत्सु॒ घ्नन्तं॑ वृ॒त्राणि॑ सं॒जितं॒ धना॑नाम्॥
स्वर सहित पद पाठशु॒नम् । हु॒वे॒म॒ । म॒घवा॑नम् । इन्द्र॑म् । अ॒स्मिन् । भरे॑ । नृऽत॑मम् । वाज॑ऽसातौ । शृ॒ण्वन्त॑म् । उ॒ग्रम् । ऊ॒तये॑ । स॒मत्ऽसु॑ । घ्नन्त॑म् । वृ॒त्राणि॑ । स॒म्ऽजित॑म् । धना॑नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ। शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि संजितं धनानाम्॥
स्वर रहित पद पाठशुनम्। हुवेम। मघवानम्। इन्द्रम्। अस्मिन्। भरे। नृऽतमम्। वाजऽसातौ। शृण्वन्तम्। उग्रम्। ऊतये। समत्ऽसु। घ्नन्तम्। वृत्राणि। सम्ऽजितम्। धनानाम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 35; मन्त्र » 11
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या यथा वयमूतये समत्सु वृत्राणि सूर्य इव शत्रून् घ्नन्तमुग्रं शृण्वन्तं धनानां सञ्जितमस्मिन्भरे वाजसातौ नृतमं शुनं मघवानमिन्द्रं हुवेम तथाऽप्येतं यूयमपि प्रशंसत ॥११॥
पदार्थः
(शुनम्) सुखकरम् (हुवेम) (मघवानम्) बहुधनयुक्तम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यम् (अस्मिन्) शिल्पव्यवहारे (भरे) सङ्ग्रामे (नृतमम्) पुरुषोत्तमम् (वाजसातौ) अन्नानां विभागे (शृण्वन्तम्) सत्पुरुषवचनानां श्रोतारम् (उग्रम्) तेजस्विनम् (ऊतये) रक्षणाद्याय (समत्सु) सङ्ग्रामेषु (घ्नन्तम्) नाशयन्तम् (वृत्राणि) अस्मद्बलाऽऽवरकाणि शत्रुसैन्यानि (सञ्जितम्) (धनानाम्) विद्यासुवर्णादीनाम् ॥११॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या येषां निष्फलं कर्म नास्ति तान् सर्वस्य रक्षणाय यूयं वृणुतेति ॥११॥ अत्राग्न्यादीनां पदार्थानां तुरङ्गदृष्टान्तेनोपदेशादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चत्रिंशत्तमं सूक्तमष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (समत्सु) संग्रामों में (वृत्राणि) हम लोगों के बल को घेरनेवाली शत्रु की सेनाओं को सूर्य्य के सदृश शत्रुओं के (घ्नन्तम्) नाशकारक (उग्रम्) तेजस्वी (शृण्वन्तम्) सत्पुरुष के वचनों के सुनने (धनानाम्) विद्या और सुवर्ण आदिकों के (सञ्जितम्) उत्तम प्रकार जीतनेवाले (अस्मिन्) इस शिल्प व्यवहार (वाजसातौ) अन्नों के विभाग और (भरे) युद्ध में (नृतमम्) पुरुषोत्तम (शुनम्) सुखकारक (मघवानम्) बहुत धनयुक्त (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य्यवाले जन को (हुवेम) प्रशंसा से पुकारैं, वैसे इसकी आप लोग भी प्रशंसा करैं ॥११॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिन लोगों का निष्फल कर्म नहीं है, उनको सबकी रक्षा के लिये आप लोग स्वीकार करैं ॥११॥ इस सूक्त में अग्नि आदि पदार्थों और घोड़े के दृष्टान्त से उपदेश करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह पैंतीसवाँ सूक्त और अठारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
प्रभुस्मरण व विजय
पदार्थ
सूक्त मन्त्र की व्याख्या ३.३०.२२ पर द्रष्टव्य है । सूक्त का मुख्य विषय यही है कि इन्द्रियों को वश में करके सोमरक्षण के लिए यत्नशील है। इसी उद्देश्य से 'प्राणसाधना, सात्त्विक भोजन व यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्ति' को अपनाना है। अगले में कहते हैं कि इस सोमरक्षण को करनेवाला पुरुष ही महान् कर्मों द्वारा प्रसिद्धि को -
विषय
राजा की तीक्ष्ण वाणी, पक्षान्तर में आत्मा और परमेश्वर आचार्य, का वर्णन।
भावार्थ
व्याख्या देखो सू० ३३। ११॥ इत्यष्टादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ७, १०, ११ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। ६ विराट्त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् पङ्क्तिः॥ ५ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! ज्या लोकांचे कर्म निष्फल नाही, त्यांचा सर्वांचे रक्षण करण्यासाठी तुम्ही स्वीकार करा. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
For victory in this battle of life, we invoke, invite and call upon Indra, lord auspicious of bliss, commander of honour, power and prosperity, and the best of men and leaders. For defence, protection, preservation and progress in the struggles of life for development, we look up to him, responsive listener, mighty lustrous destroyer of the demons of darkness and ignorance, and a winner of all round wealth of the nations.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of duties of men is mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
○ men! we invoke for protection from Indra, who is possessor of much wealth and destroyer of the armies of enemies in the battles, like the sun thrashing the clouds. The Indra is full of splendor, listening to the words of noble men, and is conqueror of wisdom, gold and other kinds of wealth. He is the best among men in distributing good materials among the needy and deserving, and bestows happiness. So you should also do likewise.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should elect these persons as the administrators of the State, because they work purposefully.
Foot Notes
(वृत्राणि) अस्मद्वलाऽवरकाणि शत्रुसैन्यानि । यदवृणोत तद् वृत्रस्य वृत्रत्वमिति विज्ञायते (Ttry स 2, 4, 12, 2) = The armies of our enemies which cover (impede) our strength. (वाजसातौ ) अन्नानां संविभागे । वाज इत्यन्ननाम (NG 2, 7 ) = In the task of distributing food grains among the needy and deserving.
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