ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 35/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
ब्रह्म॑णा ते ब्रह्म॒युजा॑ युनज्मि॒ हरी॒ सखा॑या सध॒माद॑ आ॒शू। स्थि॒रं रथं॑ सु॒खमि॑न्द्राधि॒तिष्ठ॑न्प्रजा॒नन्वि॒द्वाँ उप॑ याहि॒ सोम॑म्॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑णा । ते॒ । ब्र॒ह्म॒ऽयुजा॑ । यु॒न॒ज्मि॒ । हरी॒ इति॑ । सखा॑या । स॒ध॒ऽमादे॑ । आ॒शू इति॑ । स्थि॒रम् । रथ॑म् । सु॒खम् । इ॒न्द्र॒ । अ॒धि॒ऽतिष्ठ॑न् । प्र॒ऽजा॒नन् । वि॒द्वाम् । उप॑ । या॒हि॒ । सोम॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मणा ते ब्रह्मयुजा युनज्मि हरी सखाया सधमाद आशू। स्थिरं रथं सुखमिन्द्राधितिष्ठन्प्रजानन्विद्वाँ उप याहि सोमम्॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मणा। ते। ब्रह्मऽयुजा। युनज्मि। हरी इति। सखाया। सधऽमादे। आशू इति। स्थिरम्। रथम्। सुखम्। इन्द्र। अधिऽतिष्ठन्। प्रऽजानन्। विद्वान्। उप। याहि। सोमम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 35; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र अहं ते तव यस्मिन्याने ब्रह्मणा सह वर्त्तमानौ ब्रह्मयुजा आशू हरी सखाया इव सधमादे युनज्मि तं सुखं स्थिरं रथमधितिष्ठन् विद्वान् सन्नेतद्विद्यां प्रजानन् सोममुपयाहि ॥४॥
पदार्थः
(ब्रह्मणा) अन्नादिना (ते) तव (ब्रह्मयुजा) यौ ब्रह्म धनं योजयतस्तौ (युनज्मि) (हरी) जलाग्नी (सखाया) सुहृदाविव (सधमादे) समानस्थाने (आशू) शीघ्रं गमयितारौ (स्थिरम्) ध्रुवम् (रथम्) यानम् (सुखम्) सुहितं खेभ्यस्तम् (इन्द्र) शिल्पविद्यैश्वर्य्ययुक्त (अधितिष्ठन्) उपरि स्थितः सन् (प्रजानन्) प्रकृष्टतया बुद्ध्यमानः (विद्वान्) साङ्गोपाङ्गामेतद्विद्यां विदन् (उप) (याहि) (सोमम्) ऐश्वर्य्यम् ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। येऽग्निजलादिप्रयुक्ते याने स्थित्वा यथावद्विद्यया प्रचालयन्तो देशान्तरं गत्वागत्यैश्वर्य्यं प्राप्य सखीन्सत्कुर्युस्त एव विद्याधर्मावुन्नेतुं शक्नुयुः ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (इन्द्र) शिल्पविद्यारूप ऐश्वर्य्य से युक्त पुरुष ! मैं (ते) आपके जिस वाहन में (ब्रह्मणा) अन्न आदि के सहित विद्यमान (ब्रह्मयुजा) धन के संग्रह कराने और (आशू) शीघ्र ले चलनेवाले (हरी) जल और अग्नि को (सखाया) मित्रों के तुल्य (सधमादे) बरोबर के स्थान में (युनज्मि) संयुक्त करता हूँ उस (सुखम्) आकाशमार्गियों के लिये हित करनेवाले (स्थिरम्) दृढ़ (रथम्) वाहन (अधि, तिष्ठन्) पर स्थिर हो तो (विद्वान्) इस विद्या को अङ्ग और उपाङ्गों के सहित जानते और (प्रजानन्) उत्तम प्रकार ज्ञान को प्राप्त होते हुए आप (सोमम्) ऐश्वर्य्य को (उप, याहि) प्राप्त हूजिये ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग अग्नि और जल आदि पदार्थों से चलाये गये वाहन पर बैठ अच्छे प्रकार विद्या द्वारा उसको चलाते हुए देशदेशान्तरों में जाय आय और ऐश्वर्य्य को पाय मित्रों का सत्कार करैं, वे ही विद्या और धर्म की वृद्धि कर सकैं ॥४॥
विषय
सा काष्ठा, सा परागतिः
पदार्थ
[१] (ब्रह्मयुजा) = प्रभु से इस शरीर-रथ में जोते गये (ते) = तेरे हरी इन्द्रियाश्वों को (ब्रह्मणा युनज्मि) = मैं ज्ञान से युक्त करता हूँ। ये इन्द्रियाश्व (सखाया) = तेरे सखा व मित्र हैं- हित को सिद्ध करनेवाले हैं। (सधमादे) = संग्राम में आशू-शीघ्रता से गति करनेवाले हैं। इन्द्रियों को उत्तम बनाकर ही हम अध्यात्म-संग्राम में विजयी होते हैं । [२] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (स्थिरम्) = दृढ़ (सुखम्) = उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाले [सु+ख] (रथम्) = इस शरीररथ पर (अधितिष्ठन्) = आरूढ़ हुआ हुआ (प्रजानन्) = प्रकृष्ट ज्ञानवाला होता हुआ (विद्वान्) = समझदार बनकर (सोमं उपयाहि) = उस सोम परमात्मा को प्राप्त होनेवाला हो। यह रथ वस्तुतः उसी यात्रा के लिए दिया गया है, जिसका कि अन्तिम लक्ष्य 'प्रभु' हैं 'सा काष्ठा, सा परागतिः'। उस प्रभुप्राप्ति के लिए आवश्यक है कि शरीर ठीक हो और उसमें जुते इन्द्रियाश्व ठीक हों।
भावार्थ
भावार्थ– इन्द्रियों को ज्ञानप्राप्ति आदि उत्तम कर्मों में व्याप्त रखना चाहिए। इस शरीरसे हमने जीवनयात्रा के अन्तिम लक्ष्य प्रभु को प्राप्त करना है।
विषय
रथ में दो अश्वों के समान राष्ट्र में दो प्रमुखों की नियुक्ति।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (सधमादे) एक साथ हर्षपूर्ण होने के समान संग्राम में मैं (ते) तेरे (आशू) शीघ्रगामी (सखाया) मित्रों के समान सदाके साथी (ब्रह्मयुजा) बहुत साधनैश्वर्य प्राप्त करने वाले (हरी) दो अश्वों को (ब्रह्मणा) जिस प्रकार अन्न घाासदि से पुष्ट करके जोड़ा जाता है उसी प्रकार दो (हरी) सैन्य और राष्ट्र को हरने या सन्मार्ग पर लेजाने वाले दो प्रमुख पुरुषों को (ब्रह्मणा) बड़े ऐश्वर्य प्रदान द्वारा (युनज्मि) नियुक्त करता हूं। तू (रथम्) रथ पर उसके समान रमण करने योग्य या वेग से जाने वाले राष्ट्र वा सैन्य बल पर (स्थिरं) स्थिरतापूर्वक और (सुखं) अनायास (अधितिष्ठन्) अध्यक्ष रूप से शासन करता हुआ (प्रजानन्) उत्तम ज्ञानवान् और (सोमम् विद्वान्) ऐश्वर्यप्राप्ति और राष्ट्र-शासन के कार्य को भलीभाँति जानता हुआ (उप याहि) उसको प्राप्त कर। (२) अध्यात्म में—(हरी) प्राण और अपान हैं। एक साथ हर्ष अनुभव करने का अवसर या स्थान देह है। उसमें अन्न द्वारा प्राणों को नियुक्त कर शरीर रूप रथ में आत्मा सुख से रहे। (३) अथवा आत्मा परमात्मा दोनों को योग्य विधिसे नियुक्त करूं। साक्षात् आत्मा (रथं) रसस्वरूप परमानन्द को प्राप्त कर परमैश्वर्य को प्राप्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ७, १०, ११ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। ६ विराट्त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् पङ्क्तिः॥ ५ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक अग्नी, जल इत्यादी पदार्थांनी चालविलेल्या वाहनात बसून विद्येद्वारे चांगल्या प्रकारे ते चालवितात, देशदेशान्तरी जातात-येतात व ऐश्वर्य प्राप्त करतात आणि मित्रांचा सत्कार करतात तेच विद्या व धर्माची वृद्धी करू शकतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
By word I yoke the horses which sense and obey the word of command. Friendly they are, extremely fast to reach the yajnic destination. Indra, lord of knowledge and power, riding the chariot which is steady and comfortable, knowing and discovering further, go close to the moon and bring the nectar of magical powers.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of men are emphasized.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (possessor of the wealth of art and technology)! you mount on a firm and comfortable car in which water and fire play a significant role and are supplementary to each other like true friends. Those vehicles or carts take them to distant places like swift horses, and also carry food grains and other necessary articles from one place to another and acquire great wealth. The highly learned know this technical science with all its branches.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons only are able to advance the cause of Vidya (knowledge) and Dharma (righteousness), who travel or tour and drive the vehicles. In such transportations, fire, water and other articles have been used scientifically, and go to distant places. Thus through these vehicles, the persons earn wealth and honor their friends.
Foot Notes
(ब्रह्मणा ) अन्नादिना । ब्रह्म इति अन्ननाम (NG 2, 7) ब्रह्म इति घननाम । (N.G_2,10 ) = With food grains etc., ( ब्रह्मयुजा ) यो ब्रह्म धनं योजयतस्तौ । = Which help in the acquisition of much wealth. (इन्द्र) शिल्पविद्यैश्वर्ययुक्त | = Possessor of much wealth of art and technology.
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