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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 35/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    मा ते॒ हरी॒ वृष॑णा वी॒तपृ॑ष्ठा॒ नि री॑रम॒न्यज॑मानासो अ॒न्ये। अ॒त्याया॑हि॒ शश्व॑तो व॒यं तेऽरं॑ सु॒तेभिः॑ कृणवाम॒ सोमैः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । ते॒ । हरी॒ इति॑ । वृष॑णा । वी॒तऽपृ॑ष्ठा । नि । री॒र॒म॒न् । यज॑मानासः । अ॒न्ये । अ॒ति॒ऽआया॑हि । शश्व॑तः । व॒यम् । ते । अर॑म् । सु॒तेभिः॑ । कृ॒ण॒वा॒म॒ । सोमैः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा ते हरी वृषणा वीतपृष्ठा नि रीरमन्यजमानासो अन्ये। अत्यायाहि शश्वतो वयं तेऽरं सुतेभिः कृणवाम सोमैः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा। ते। हरी इति। वृषणा। वीतऽपृष्ठा। नि। रीरमन्। यजमानासः। अन्ये। अतिऽआयाहि। शश्वतः। वयम्। ते। अरम्। सुतेभिः। कृणवाम। सोमैः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 35; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! येऽन्ये यजमानासस्ते तव वीतपृष्ठा वृषणा हरी मा निरीरमन् ताँस्त्वमत्यायाहि। शश्वत आगच्छ यस्य ते सुतेभिः सोमैररं कामं वयं कृणवाम स त्वमस्माकमलं कामं कुरु ॥५॥

    पदार्थः

    (मा) निषेधे (ते) तव (हरी) यानहारकौ (वृषणा) बलिष्ठौ (वीतपृष्ठा) वीते व्याप्तिशीले पृष्ठे ययोस्तौ (नि) (रीरमन्) रमयेयुः (यजमानासः) विद्यासङ्गतिविदः (अन्ये) एतद्भिन्नाः (अत्यायाहि) अतिवेगेनागच्छोल्लङ्घय वा (शश्वतः) सनातनाः (वयम्) (ते) तव (अरम्) अलम् (सुतेभिः) निष्पन्नैः (कृणवाम) कुर्य्याम (सोमैः) ऐश्वर्य्यैः ॥५॥

    भावार्थः

    येऽग्न्यादिपदार्थविद्यामविदित्वैतद्विद्याविदो जनान्नोत्साहयन्ति तानुल्लङ्घ्यानादिविद्याविदां विदुषां शरणं गत्वा शिल्पविद्यानिष्पन्नैः कार्य्यैः पूर्णकामा वयं भवेमेषित्वा नित्यं प्रयतेरन् ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे प्रतापयुक्त पुरुष ! जो (अन्ये) इससे और (यजमानासः) विद्या की सङ्गति के जाननेवाले (ते) आपके (वीतपृष्ठा) चौड़ी पीठों से युक्त (वृषणा) बलिष्ठ (हरी) वाहनों के ले चलनेवालों को (मा) नहीं (नि, रीरमन्) रमायैं उनको आप (अत्यायाहि) बड़े वेग से प्राप्त हूजिये वा छोड़िये और (शश्वतः) अनादि काल से सिद्धविद्या युक्त पुरुषों को प्राप्त हूजिये जिस (ते) आपके (सुतेभिः) उत्पन्न (सोमैः) ऐश्वर्य्यों से (अरम्) पूरे काम को (वयम्) हम लोग (कृणवाम) करें, वह आप हमारे पूरे काम को करो ॥५॥

    भावार्थ

    जो लोग अग्नि आदि पदार्थों की विद्या को जाने विना इस विद्या के जाननेवाले जनों का उत्साह नहीं बढ़ाते, उनका उल्लङ्घन कर अनादि काल से सिद्ध विद्या के जाननेवाले विद्वानों के शरण जा के शिल्पविद्या से उत्पन्न कार्यों से पूर्ण मनोरथवाले हम लोग होवैं, इस प्रकार इच्छा करके नित्य प्रयत्न करैं ॥५॥

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    विषय

    सकाम यज्ञों से ऊपर

    पदार्थ

    [१] (अन्ये) = प्रभुप्राप्ति के मार्ग पर न चलकर-स्वर्गादि की प्राप्ति के लिए (यजमानासः) = यज्ञ करनेवाले इतर लोग (ते) = तेरे (वृष्णा) = शक्तिशाली (वीत पृष्ठा) = कान्त पृष्ठभागवाले- तेजस्विता से चमकते हुए (हरी) = इन्द्रियाश्वों को (मा निरीरमन्) = मत आनन्दित करनेवाले हों। तू अन्य सकाम यज्ञों में लगे हुए लोगों की तरह, स्वर्गादि की प्राप्ति को ही लक्ष्य न बना ले। [२] अति (आयाहि) = इनको तू लाँघकर आगे बढ़ आ । (वयम्) = हम ते तेरे लिए (शश्वतः) = सदा से (सुतेभिः सोमैः) = उत्पन्न इन सोमों (वीर्यकणों) से अरं कृणवाम शक्ति व सामर्थ्य को पैदा करते हैं। इन सोमों का रक्षण करता हुआ तू प्रभु को प्राप्त करनेवाला बन ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सकाम यज्ञों में न उलझकर, सोमरक्षण द्वारा प्रभु को प्राप्त करनेवाले हों।

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    विषय

    प्रलोभन में पड़ने का उपदेश।

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यवन् ! (अन्ये) दूसरे, अपने से भिन्न शत्रुगण (यजमानासः) मैत्री भाव करते हुए (ते) तेरे (वृषणा) बलवान् (वीत-पृष्ठा) कान्तियुक्त वा सुरक्षित पीठ वाले, कवचयुक्त (हरी) रथके लेजाने वाले अश्वों और रथसैन्य के नायकों को भी (मा निरीरमन्) कभी निम्न श्रेणी के व्यसनों में न लुभा लेवें। तू ( शश्वतः) चिरकाल से शत्रुता करने वालों को (अति आयाहि) अतिक्रमण करके उनको लांघकर आगे बढ़। (वयं) हम (ते) तेरे लिये (सुतेभिः) उत्पादित (सोमैः) ऐश्वर्यों से और (सुतैः सोमैः) अभिषिक्त शासकों द्वारा या निष्पन्न अभिषेकों द्वारा (अरं कृणवाम) खूब अन्नादि की वृद्धि करें। अच्छी प्रकार अभिषेक करें। इति सप्तदशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ७, १०, ११ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। ६ विराट्त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् पङ्क्तिः॥ ५ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक अग्नी इत्यादी पदार्थांची विद्या जाणत नाहीत व या विद्येला जाणणाऱ्या लोकांचा उत्साह वाढवीत नाहीत त्यांचा त्याग करून अनादि कालापासून सिद्ध झालेल्या विद्येला जाणणाऱ्या विद्वानाला शरण जाऊन शिल्पविद्येने उत्पन्न झालेल्या कार्याने आमचे मनोरथ पूर्ण व्हावेत अशा प्रकारची इच्छा उत्पन्न करून नित्य प्रयत्न करावेत. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, may your motive chariot powers, of wide and extensive back never slacken, exhaust or stop. We are the other collaborators in your yajna, ever and constant, who do all for you with the distilled yajnic essences of what you need. Go far to the target and come back to us victorious.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of men are further elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O mighty person! let not those others who do not know the secrets of this science, entice your vigorous and smooth backed steads or the horse. The fire water and other things also perform similar actions. Disregard them and come here to those who are proficient in this science of lasting nature. As we try to fulfil your desires and requirements with honestly earned wealth, same way you should also fulfil our noble desires and satisfy us by all legitimate means through your abundant wealth righteously acquired.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Let us stay away from the persons, who are ignorant of the science of fire water etc. and who do not encourage other scientists. Let us take shelter in the knowledge of this ancient and eternal science, and fulfil our noble desires with the technical and industrial works done well. All should aspire to acquire this and attempt in this direction.

    Foot Notes

    (यजमानास:) विद्यासङ्गतिविदः । = The knowers of the secret of this well coordinated science. (सोमै:) ऐश्वर्यै:। = With wealth of various kinds.

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