ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 42/ मन्त्र 5
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
इन्द्र॒ सोमाः॑ सु॒ता इ॒मे तान्द॑धिष्व शतक्रतो। ज॒ठरे॑ वाजिनीवसो॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । सोमाः॑ । सु॒ताः । इ॒मे । तान् । द॒धि॒ष्व॒ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । ज॒ठरे॑ । वा॒जि॒नी॒व॒सो॒ इति॑ वाजिनीऽवसो ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र सोमाः सुता इमे तान्दधिष्व शतक्रतो। जठरे वाजिनीवसो॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र। सोमाः। सुताः। इमे। तान्। दधिष्व। शतक्रतो इति शतऽक्रतो। जठरे। वाजिनीवसो इति वाजिनीऽवसो॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 42; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे वाजिनीवसो शतक्रतो इन्द्र ! य इमे जठरे सोमाः सुतास्तान् दधिष्व ॥५॥
पदार्थः
(इन्द्र) परमैश्वर्यभोक्तः (सोमाः) पदार्थाः (सुताः) निष्पन्नाः (इमे) (तान्) (दधिष्व) (शतक्रतो) बहुकर्मप्रज्ञ (जठरे) जातेऽस्मिन् जगति (वाजिनीवसो) यो वाजिनीमुषसं वासयति तत्सम्बुद्धौ। वाजिनीत्युषसो ना०। निघं०१। ८ ॥५॥
भावार्थः
तदैव मनुष्याः पूर्णविद्यैश्वर्य्याः स्युर्यदा सृष्टिस्थपदार्थविद्यां विजानन्तु ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (वाजिनीवसो) रात्रि को वसानेवाले (शतक्रतो) बहुत कर्मों में कुशल (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य के भोक्ता ! जो (इमे) ये (जठरे) प्रसिद्ध हुए इस संसार में (सोमाः) पदार्थ (सुताः) उत्पन्न हुए हैं उनको (दधिष्व) धारण करो ॥५॥
भावार्थ
तभी मनुष्य पूर्ण विद्या और ऐश्वर्य्यवाले होवें कि जब सृष्टि में वर्त्तमान पदार्थों की विद्या को जानें ॥५॥
विषय
इन्द्र, शतक्रतु व वाजिनीवसु
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (इमे) = ये (सोमाः) = सोम [वीर्यकण] (सुत्यः) = उत्पन्न किये गये हैं, हे (शतक्रतो) = शतवर्षपर्यन्त यज्ञों को करनेवाले जीव! (तान् दधिष्व) = उनको तू अपने में धारण कर । यज्ञादि कर्मों में लगे रहना ही सोमरक्षण का साधन है। [२] हे (वाजिनीवसो) = शक्तिप्रद अन्नों से अपने निवास को उत्तम बनानेवाले जीव ! तू इन सोमों को (जठरे) = अपने अन्दर ही धारण कर सोम्य अन्नों का सेवन होने पर सोम का रक्षण अधिक सम्भव होता है। आग्नेय भोजन सोमरक्षण के अनुकूल नहीं हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के लिए हम [क] जितेन्द्रिय बनें [इन्द्र], [ख] यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहें [शतक्रतो], [ग] उत्तम सोम्य अन्नों का सेवन करें [वाजिनीवसो]।
विषय
शतक्रतु, वाजिनीवसु इन्द्र।
भावार्थ
हे (वाजिनीवसो) वाजिनी अर्थात् उषा को बसाने वाला सूर्य जिस प्रकार जलों को (जठरे) अन्तरिक्ष में धारण कर लेता है उसी प्रकार हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (इमे) ये (सुताः) उत्पन्न (सोमाः) ऐश्वर्ययुक्त अन्नादि पदार्थ हैं। (तान्) उनको हे (शतक्रतो) अनेक कर्म और ज्ञानों वाले ! तू (जठरे) अपने उदर में और वश में (दधिष्व) धारण कर। (२) राजा बलवती सेना और अन्नवती भूमि को बसाने वाला होने से ‘वाजिनीवसु’ है। वह अभिषिक्त अधीन राजाओं को अपने वश में रक्खे। इति पञ्चमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ४-७ गायत्री। २, ३, ८, ९ निचृद्गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा माणूस सृष्टीतील विद्या जाणतो तेव्हाच तो पूर्ण विद्या व ऐश्वर्य प्राप्त करतो. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, father of morning freshness, lord of a hundred acts of yajna, distilled are these soma essences. Take these, hold them safe in the treasury of this world for a fresh lease of life’s energy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of Agni is dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O prosperous personal! splendid like the sun, you are blessed with deep knowledge and power of action, uphold the various things in the world which have been prepared and manufactured by men.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men can become endowed with perfect knowledge and wealth, only when they know the physical sciences also.
Foot Notes
(जठरे ) जातेऽस्मिन् जगति । (जठरम् )–जने राष्ट्रेच (उणादि 5-38) जायते इति जठरम् | = In this world. (वाजिनीवसो) यो वाजिनीमुवसं वासयति तत्सम्बुद्धौ । वाजिनोत्युषसो नाम० (NG 1, 8 ) = Splendid like the sun. वाजिनी -उषाः वाजिनीवसुः सूर्यः तद्वद् वर्तमानभूतानां पतिः गृहपतिरासीत् उषाः पत्नी ( stph 6.1, 3, 7 ) इति प्रामाण्यात् उषाः पत्नी तस्याः वासयिंता पति: अयमर्थोऽपि ग्रहीतुं शक्यते = The supporter of wife who is like the dawn.
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