ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 42/ मन्त्र 8
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
तुभ्येदि॑न्द्र॒ स्व ओ॒क्ये॒३॒॑ सोमं॑ चोदामि पी॒तये॑। ए॒ष रा॑रन्तु ते हृ॒दि॥
स्वर सहित पद पाठतुभ्य॑ । इत् । इ॒न्द्र॒ । स्वे । ओ॒क्ये॑ । सोम॑म् । चो॒दा॒मि॒ । पी॒तये॑ । ए॒षः । र॒र॒न्तु॒ । ते॒ । हृ॒दि ॥
स्वर रहित मन्त्र
तुभ्येदिन्द्र स्व ओक्ये३ सोमं चोदामि पीतये। एष रारन्तु ते हृदि॥
स्वर रहित पद पाठतुभ्य। इत्। इन्द्र। स्वे। ओक्ये। सोमम्। चोदामि। पीतये। एषः। ररन्तु। ते। हृदि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 42; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र ! य एष ते हृदि रारन्तु तं सोमं स्व ओक्ये पीतये तुभ्येच्चोदामि ॥८॥
पदार्थः
(तुभ्य) तुभ्यम्। अत्र सुपां सुलुगिति विभक्तेर्लुक्। (इत्) एव (इन्द्र) ऐश्वर्य्ययुक्त (स्वे) स्वकीये (ओक्ये) गृहे (सोमम्) रसम् (चोदामि) प्रेरयामि (पीतये) (एषः) (रारन्तु) भृशं रमताम् (ते) तव (हृदि) हृदये ॥८॥
भावार्थः
प्राणिभिर्यद्भुज्यते पीयते च तत्सर्वं रुधिरादिकं भूत्वा हृदि संसृत्य मस्तकद्वारा सर्वत्र प्रसरति ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्य्ययुक्त जन ! जो (एषः) यह (ते) आपके (हृदि) हृदय में (रारन्तु) अत्यन्त रमैं उस (सोमम्) रस को (स्वे) अपने (ओक्ये) गृह में (पीतये) पीने को (तुभ्य) आपके लिये (इत्) ही (चोदामि) प्रेरणा करता हूँ ॥८॥
भावार्थ
प्राणी लोग जो खाते और पीते हैं, वह सब पदार्थ रुधिर आदि हो और हृदय में फैलकर मस्तक के द्वारा सर्वत्र फैलता है ॥८॥
विषय
सोमजनित हृदयोल्लास
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (तुभ्य इत्) = निश्चय से तेरे लिए ही (स्वे ओक्ये) = इस आत्मा के निवास स्थानभूत शरीर में [ओक्य गृह] (सोमम्) = सोम को वीर्य को (पीतये) = अन्दर ही व्याप्त करने के लिए (चोदामि) = प्रेरित करता हूँ। इसके शरीर में व्याप्त होने से नीरोगता आदि द्वारा मनुष्य आनन्द का अनुभव करता है। [२] (एषः) = ये (ते) = तेरे (हृदि) = हृदय में (रारन्तु) = रमण करनेवाला हो । सुरक्षित हुआ-हुआ सोम हृदय में आन को उत्पन्न करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम हमारी उन्नति का कारण होता है और यह हृदय में आनन्द उत्पन्न करता है ।
विषय
कुशिकों का इन्द्राह्वान।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे ज्ञानवन् विद्वन् ! आचार्य ! (तुभ्य इत् स्वे ओक्ये) तेरे अपने स्थान आश्रम में ही मैं इस (सोमं) शिष्य को (पीतये) ब्रह्मचर्य के पालन के लिये (चोदामि) प्रेरित करता हूं। (एषः) वह (ते हृदि) तेरे हृदय में (रारन्तु) रमण करे, तेरे चित्त के अनुकूल होकर रहे, तुझे प्रिय लगे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ४-७ गायत्री। २, ३, ८, ९ निचृद्गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
प्राणी जे खातात-पितात ते सर्व पदार्थ रक्त इत्यादी बनून हृदयात पसरून मस्तकाद्वारे सर्वत्र पसरतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord lover of power and energy, for your drink I distil and reinforce this soma in my own yajnic house of science. It would inspire, strengthen and delight your heart.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Honoring of the learned is stressed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (wealthy king) ! I offer you this Soma (juice of various nourishing drugs) for your drinking at your abode. May it delight your heart ?
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Whatever is eaten or drunk by all beings, that is turned into blood etc., which ultimately circulates in the heart, brain, and spreads everywhere.
Foot Notes
(ओक्ये) गृहे । निवास नामोच्यते । (NRT3, 1. 3) प्रोक एव औक्यम् | = In the dwelling place.
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