ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 49/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यं नु नकिः॒ पृत॑नासु स्व॒राजं॑ द्वि॒ता तर॑ति॒ नृत॑मं हरि॒ष्ठाम्। इ॒नत॑मः॒ सत्व॑भि॒र्यो ह॑ शू॒षैः पृ॑थु॒ज्रया॑ अमिना॒दायु॒र्दस्योः॑॥
स्वर सहित पद पाठयम् । नु । नकिः॑ । पृत॑नासु । स्व॒ऽराज॑म् । द्वि॒ता । तर॑ति । नृऽत॑मम् । ह॒रि॒ऽस्थाम् । इ॒नऽत॑मः । सत्व॑ऽभिः । यः । ह॒ । शू॒षैः । पृ॒थु॒ऽज्रयाः॑ । अ॒मि॒ना॒त् । आयुः॑ । दस्योः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं नु नकिः पृतनासु स्वराजं द्विता तरति नृतमं हरिष्ठाम्। इनतमः सत्वभिर्यो ह शूषैः पृथुज्रया अमिनादायुर्दस्योः॥
स्वर रहित पद पाठयम्। नु। नकिः। पृतनासु। स्वऽराजम्। द्विता। तरति। नृऽतमम्। हरिऽस्थाम्। इनऽतमः। सत्वऽभिः। यः। ह। शूषैः। पृथुऽज्रयाः। अमिनात्। आयुः। दस्योः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 49; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजविषयमाह।
अन्वयः
हे विद्वांसो यं हरिष्ठां नृतमं स्वराजं पृतनासु द्विता नकिस्तरति यः पृथुज्रया इनतमो ह शूषैः सत्वभिः सह दस्योरायुर्न्वमिनात्तं सर्वाऽधीशं कुरुत ॥२॥
पदार्थः
(यम्) (नु) सद्यः (नकिः) निषेधे (पृतनासु) वीरसेनासु (स्वराजम्) यः स्वेन सूर्य्य इव राजते तम् (द्विता) द्वयोर्भावः (तरति) उल्लङ्घने (नृतमम्) अतिशयेन नायकम् (हरिष्ठाम्) हरयो मनुष्यास्तिष्ठन्ति यस्मिन् स तम् (इनतमः) अतिशयेनेश्वरः समर्थः (सत्वभिः) शत्रून् सीदयद्भिर्वीरैः सह (यः) (ह) किल (शूषैः) बलयुक्तैः (पृथुज्रयाः) पृथुस्तीव्रो ज्रयो वेगो यस्य सः (अमिनात्) हिंस्यात् (आयुः) (दस्योः) दुष्टस्य ॥२॥
भावार्थः
हे मनुष्या यं शत्रोर्द्विगुणमपि बलं जेतुं न शक्नोति य उत्कृष्टसामर्थ्यो दुष्टान् सततं हन्ति तमेव सर्वबलाध्यक्षं कृत्वा सदैव विजयः कर्त्तव्यः ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजा के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे विद्वान् लोगो ! (यम्) जिस (हरिष्ठाम्) मनुष्य वर्त्तमान हों जिसमें उस (नृतमम्) अतिशय करके नायक (स्वराजम्) अपने से सूर्य्य के सदृश प्रकाशमान (पृतनासु) वीरों की सेनाओं में (द्विता) दोपन का (नकिः) नहीं (तरति) उल्लङ्घन करता है और (यः) जो (पृथुज्रयाः) तीव्र वेग से युक्त (इनतमः) अत्यन्त समर्थ (ह) निश्चय से (शूषैः) बलयुक्त (सत्त्वभिः) शत्रुओं को दुःख देनेवाले वीरों के साथ (दस्योः) दुष्ट पुरुष के (आयुः) अवस्था का (नु) शीघ्र (अभिनात्) नाश करे, उसको सबका स्वामी करो ॥२॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिस पुरुष को शत्रु का द्विगुना भी बल जीत नहीं सकता और जो अधिक सामर्थ्ययुक्त पुरुष दुष्ट पुरुषों का निरन्तर नाश करता है, उसीको सब सेना का अध्यक्ष करके सदैव विजय करना चाहिये ॥२॥
विषय
सत्त्वभिः शूषैः
पदार्थ
[१] (यम्) = जिस (पृतनासु) = संग्रामों में (स्वराजम्) = स्वयं देदीप्यमान, (हरि-ष्ठाम्) = इन्द्रियाश्वों के अधिष्ठाता (नृतमम्) = सर्वोत्तम नेता को (नु) = अब (द्विता) = ज्ञान व शक्ति दोनों के समन्वय के कारण (नकिः तरति) = कोई भी पराभूत नहीं कर सकता, वह प्रभु ही (इनतमः) = सर्वश्रेष्ठ स्वामी हैं। प्रभु को संग्रामों में विजय के लिए किसी अन्य के सहाय की आवश्यकता नहीं है वे संग्रामों में स्वयं दीप्त हैं। हमारे इन्द्रियाश्वों के वे ही स्वामी हैं। प्रभु ही हमें नेतृत्व देते हैं। ज्ञान व शक्ति की वे चरमसीमा हैं। इन प्रभु को कोई पराभूत नहीं कर सकता। [२] ये प्रभु वे हैं, (यः) = जो (ह) = निश्चय से (सत्वभिः) = ज्ञानों से [wisdom] से व (शूषैः) = शत्रुशोषक शक्तियों से (पृथुज्रया) = अत्यन्त वेगवाले हैं और (दस्योः) = नाशक वृत्तिवाले की (आयु:) = आयु को (अमिनात्) = हिंसित करते हैं । दस्युओं के वे प्रभु विनाशक हैं, आर्यों के [श्रेष्ठों के] वे रक्षक हैं-सत्पति हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु शक्ति व ज्ञान की चरमसीमा हैं, उन्हें कोई पराभूत नहीं कर सकता।
विषय
स्वराट् का दुष्ट नाश करने का कर्त्तव्य। (
भावार्थ
(द्विता) स्व और पर दोनों पक्षों के (पृतनासु) संग्रामों व वीर सेनाओं के बीच (स्वराजं) स्वयं अपने सामर्थ्य से सूर्यवत् प्रकाश-मान, स्वयं सबके चित्तों को रञ्जन करने वाले (नृतमं) सर्वश्रेष्ठ (हरिष्ठाम्) सब मनुष्यों और अश्व सेनाओं पर अधिष्ठाता रूप से स्थित, जिस पुरुषोत्तम को (नकिः) कोई भी न (तरति) लांघ सके (यः ह) और जो (सत्वभिः) बलवान् वीर पुरुषों और (शूषैः) बलों या सैन्यों से (इनतमः) सब से उत्तम स्वामी हो वह और (पृथुज्रयाः) बड़े वेग और शक्ति से सम्पन्न होकर (दस्योः) प्रजा के नाशक दुष्ट पुरुषों के (आयुः अमिनात्) जीवन का नाश
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ४ निचृत्त्रिष्टुप। २, ५ त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पङ्क्तिः॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! ज्या पुरुषाला शत्रूचे दुप्पट बलही जिंकू शकत नाही व जो अधिक सामर्थ्ययुक्त पुरुष दुष्ट पुरुषांचा निरंतर नाश करतो त्यालाच संपूर्ण सेनेचा अध्यक्ष करून सदैव विजय मिळविला पाहिजे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
In battles, none for certain can surpass Indra, self-refulgent and blazing by his manifold strength. Best of men and leaders is he, abiding with humanity in command of his impetuous forces. Most potent is he and most determined, widest in reach and effect, and with his essential purity of mind and strength of character, he frustrates the life and age of the wicked to naught.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of a Ruler or President are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! you should elect the Chief of the State or President only such a person, who is dependable and has the greatest capability of leading the people. Shining like the sun on account of his splendor, and unsurpassed in the armies, such a leader should possess at least the double strength than his opponents, is supreme in sway, and attended by his faithful and powerful warriors. Being possessed of great impetus, he destroys the energies and life of the thieves, robbers, foes and other wicked persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should achieve victory by electing him as President or Head of the State whom even the double strength of the enemy can not overcome and who is very powerful and destroys the wicked.
Foot Notes
(पृतनासु ) वीरसेनासु । पृतना इति मनुष्यनाम ( N. G. 2,3) पृतना इति संग्रामनाम (N.G 2, i7 ) In the army of brave warriors. (हरिष्ठाम् ) हरयो मनुष्यास्तिष्ठन्ति यस्मिन् स तम् । हरय इति मनुष्यनाम ( N. G. 2,3) = On whom many men depend. (पृथुस्त्रया:) पृथुस्तीब्रोज्रयो वेगो यस्य सः । ज्रयति गतिकर्मा (N.G. 2, 14 ) = He who has great impetus.
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