ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 49/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ध॒र्ता दि॒वो रज॑सस्पृ॒ष्ट ऊ॒र्ध्वो रथो॒ न वा॒युर्वसु॑भिर्नि॒युत्वा॑न्। क्ष॒पां व॒स्ता ज॑नि॒ता सूर्य॑स्य॒ विभ॑क्ता भा॒गं धि॒षणे॑व॒ वाज॑म्॥
स्वर सहित पद पाठध॒र्ता । दि॒वः । रज॑सः । पृ॒ष्टः । ऊ॒र्ध्वः । रथः॑ । न । वा॒युः । वसु॑ऽभिः । नि॒युत्वा॑न् । क्ष॒पाम् । व॒स्ता । ज॒नि॒ता । सूर्य॑स्य । विऽभ॑क्ता । भा॒गम् । धि॒षणा॑ऽइव । वाज॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
धर्ता दिवो रजसस्पृष्ट ऊर्ध्वो रथो न वायुर्वसुभिर्नियुत्वान्। क्षपां वस्ता जनिता सूर्यस्य विभक्ता भागं धिषणेव वाजम्॥
स्वर रहित पद पाठधर्ता। दिवः। रजसः। पृष्टः। ऊर्ध्वः। रथः। न। वायुः। वसुऽभिः। नियुत्वान्। क्षपाम्। वस्ता। जनिता। सूर्यस्य। विऽभक्ता। भागम्। धिषणाऽइव। वाजम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 49; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे विद्वांसो यो दिवः सूर्यस्य रजसश्च जनिता धर्त्ता पृष्ट ऊर्ध्वो रथो न वसुभिर्वायुरिव क्षपां वस्ता धिषणेव वाजं भागं विभक्ता नियुत्वानस्ति तं परमात्मानमिव राजानं मन्यध्वम् ॥४॥
पदार्थः
(धर्त्ता) धाता (दिवः) प्रकाशमयस्य (रजसः) लोकसमूहस्य (पृष्टः) पृष्टुं योग्यः (ऊर्ध्वः) उत्कृष्टः (रथः) रमणीयं यानम् (न) इव (वायुः) पवन इव बलवान् (वसुभिः) सर्वैर्लोकैः सह (नियुत्वान्) नियमकर्त्ता नियुत्वानितीश्वरना०। निघं०२। २१। (क्षपाम्) रात्रिम् (वस्ता) आच्छादयिता (जनिता) उत्पादकः (सूर्यस्य) सवितृमण्डलस्य (विभक्ता) विभागकर्त्ता (भागम्) अंशम् (धिषणेव) द्यावापृथिव्याविव (वाजम्) अन्नादिकम् ॥४॥
भावार्थः
हे मनुष्या यो राजा परमेश्वरवत्प्रजासु वर्त्तते तमेव सततं सेवध्वम् ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! जो (दिवः) प्रकाशस्वरूप (सूर्यस्य) सूर्य (रजसः) लोकों के समूह का (जनिता) उत्पन्न करने (धर्त्ता) धारण करनेवाला (पृष्टः) पूछने योग्य (ऊर्ध्वः) उत्तम (रथः) सुन्दर वाहनके (न) तुल्य (वसुभिः) सम्पूर्ण लोकों से (वायुः) पवन के सदृश बलवान् (क्षपाम्) रात्रि को (वस्ता) आच्छादन करनेवाला और (धिषणेव) अन्तरिक्ष और भूमि के सदृश (वाजम्) घोड़े आदि (भागम्) अंश का (विभक्ता) विभाग करने और (नियुत्वान्) नियम करनेवाला है, उसको परमात्मा के सदृश राजा मानो ॥४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो राजा परमेश्वर के सदृश प्रजाओं में वर्त्तमान है, उसीकी निरन्तर सेवा करो ॥४॥
विषय
धारक प्रभु
पदार्थ
[१] वे प्रभु (दिवः धर्ता) = द्युलोक व ज्ञान को धारण करनेवाले हैं। (रजसः) [धर्ता] = अन्तरिक्षलोक को भी वे प्रभु धारण करनेवाले हैं। (पृष्टः) = वे प्रभु ही ज्ञानियों से, ज्ञीप्सित होते हैं-प्रत्येक पिण्ड में रचना विशेष को देखकर उसकी ही जिज्ञासा होती है। (ऊर्ध्वः) = इन सब लोक-लोकान्तरों का भरण करते हुए भी वे इनसे ऊपर हैं 'असक्त सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च' । (रथः न) = वे प्रभु हमारे लिए रथ के समान हैं। प्रभु में स्थित हुए हुए हम सम्यक् यात्रा को पूर्ण कर पाते हैं। (वायुः) = वे गति द्वारा सब बुराइयों का हिंसन करनेवाले हैं [वा गति गन्धनयोः] । (वसुभिः) = निवास के लिए सब आवश्यक तत्त्वों के साथ वे प्रभु नियुत्वान् प्रशस्त इन्द्रियरूप अश्वोंवाले हैं। वे प्रभु हमें वसुओं को प्राप्त कराते हैं और इन वसुओं के साथ उत्तम इन्द्रियाश्वों को देनेवाले हैं। इन वसुओं व इन्द्रियों के स्वामी तो वे प्रभु ही हैं। [२] (क्षपां वस्ता) = वे प्रभु रात्रियों को आच्छादित करनेवाले हैं। दिन की समाप्ति पर सारे जगत् को रात्रिरूप वस्त्र से आच्छादित कर देते हैं। रात्रि की समाप्ति पर (सूर्यस्य जनिता) = सूर्य का पुनः प्रादुर्भाव करते हैं। इस दिनरात्रि के चक्र द्वारा वे प्रभु (भागम्) = भजनीय [सेवनीय] धनों को तथा (धिषणा इव) = बुद्धि की तरह [धिषणा = understanding] (वाजम्) = शक्ति को (विभक्ता) = सर्वत्र विभक्त करते हैं। प्रभु धनों को, बुद्धियों को व शक्ति को देनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही धारण करनेवाले हैं और प्रभु ही धन, ज्ञान व शक्ति को देनेवाले हैं ।
विषय
सर्वप्रिय हो।
भावार्थ
वह राजा (दिवः) तेजस्वी, व्यवहारवान् और कामनावान् (रजसः) सामन्य सभी लोगों का (धर्त्ता) धारण करने वाला (पृष्टः) सब से पूछने योग्य, सब का आज्ञापक, अनुमन्ता (ऊर्ध्वः) सब के ऊपर अधिष्ठित (रथः न) रथ के समान सब को सुरक्षित रूप में उद्देश्य तक पहुंचाने हारा, (वायुः) वायु के समान बलवान्, सबका प्राणवत् प्रिय, जीवनाधार, (वसुभिः) राष्ट्रवासी प्रजाजनों से ही (नियुत्वान्) नियुक्त सेनाओं का स्वामी, सूर्य के समान ही (क्षपां वस्ता) रात्रि के तुल्य राष्ट्र की नाशक शक्तियों को अपने तेज से आच्छादित करने वाला और (सूर्यस्य) सूर्य के तुल्य सर्वप्रेरक तेजस्वी व्यक्तित्व का (जनिता) उत्पादक (धिषणा इव) भूमि और सूर्य दोनों के समान (भागं) कर आदि और (वाजं) बल और अन्न आदि का (विभक्ता) विभाग करने वाला है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ४ निचृत्त्रिष्टुप। २, ५ त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पङ्क्तिः॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जो राजा परमेश्वराप्रमाणे प्रजेमध्ये असतो त्याचीच निरंतर सेवा करा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Sustainer of the light of heaven and earth and the skies, all pervasive, going high and higher like a chariot, mighty as the wind, controller and ruler of the people by the people, he is the light of dawn after the night of darkness, creator and harbinger of new and higher light, and, like the generous heaven and earth, giver of our share of food, energy and success in life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of a ruler is stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned men ! you should accept a person as your king, who is of divine quality, upholder of heaven, sun and other worlds, creator, worthy of worship and is the most exalted. He helps to reach the destination like a chariot, most powerful like the wind, and covers the night (with gloom). He is controller of all the regions, proper divider and distributor of food and other things.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should always elect such a king who acts like God (so to speak ) towards the people, trying to imbibe truth, justice, kindness and other virtues of the Supreme Ruler.
Foot Notes
(रजसः) लोकसमूहस्य । लोका रजांस्युच्यन्ते (NKT 4, 3, 29 ) = Of the group of worlds. (नियुत्वान् ) नियमकर्त्ता नियुत्वा नितीश्वर नाम (N.G. 2, 21 ) = Controller God. (क्षपाम्) रात्रिम् । क्षपा इति रात्रिनाम (NG 1,7 ) = Night.
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