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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 50/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ ते॑ सप॒र्यू ज॒वसे॑ युनज्मि॒ ययो॒रनु॑ प्र॒दिवः॑ श्रु॒ष्टिमावः॑। इ॒ह त्वा॑ धेयु॒र्हर॑यः सुशिप्र॒ पिबा॒ त्व१॒॑स्य सुषु॑तस्य॒ चारोः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ते॒ । स॒प॒र्यू इति॑ । ज॒वसे॑ । यु॒न॒ज्मि॒ । ययोः॑ । अनु॑ । प्र॒ऽदिवः॑ । श्रु॒ष्टिम् । आवः॑ । इ॒ह । त्वा॒ । धे॒युः॒ । हर॑यः । सु॒ऽशि॒प्र॒ । पिब॑ । तु । अ॒स्य । सुऽसु॑तस्य । चारोः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ ते सपर्यू जवसे युनज्मि ययोरनु प्रदिवः श्रुष्टिमावः। इह त्वा धेयुर्हरयः सुशिप्र पिबा त्व१स्य सुषुतस्य चारोः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। ते। सपर्यू इति। जवसे। युनज्मि। ययोः। अनु। प्रऽदिवः। श्रुष्टिम्। आवः। इह। त्वा। धेयुः। हरयः। सुऽशिप्र। पिब। तु। अस्य। सुऽसुतस्य। चारोः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 50; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ प्रीतिविषयमाह।

    अन्वयः

    हे सुशिप्र ! त्वं ययोरनु प्रदिवः श्रुष्टिमावस्ताविह सपर्य्यू ते जवस आ युनज्मि। ये हरयस्त्वा धेयुस्तैः सह त्वस्य सुषुतस्य चारोः सोमस्यांशं पिब ॥२॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (ते) तव (सपर्य्यू) सेवकौ (जवसे) वेगाय (युनज्मि) (ययोः) (अनु) (प्रदिवः) प्रकृष्टप्रकाशान् (श्रुष्टिम्) शीघ्रम् (आवः) रक्षेः (इह) (त्वा) त्वाम् (धेयुः) दध्युः। अत्र छन्दस्युभयथेति सार्वधातुकमाश्रित्य सलोपः। (हरयः) पुरुषार्थिनो मनुष्याः (सुशिप्र) सुवदन (पिब)। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (तु) (अस्य) (सुषुतस्य) सुष्ठु संस्कृतस्य (चारोः) अत्युत्तमस्य ॥२॥

    भावार्थः

    अस्मिन् संसारे ये येषां सेवकास्तैस्ते पोषणीयाः सर्वैः परस्परं प्रीत्या सुखोन्नतिः कार्य्या ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब प्रीति के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (सुशिप्र) सुन्दर मुखवाले ! आप (ययोः) जिनके (अनु, प्रदिवः) उत्तम प्रकाशों को (श्रुष्टिम्) शीघ्र (आवः) रक्षा करैं वे (इह) इस संसार में (सपर्य्यू) सेवा करनेवाले (ते) आपके (जवसे) वेग के लिये (आ, युनज्मि) संयुक्त करता हूँ। और जो (हरयः) पुरुषार्थी मनुष्य (त्वा) आपको (धेयुः) धारण करें उनके साथ (तु) शीघ्र (अस्य) इस (सुषुतस्य) उत्तम प्रकार संस्कारयुक्त (चारोः) अतिश्रेष्ठ इस सोमलतारूप ओषधियों के अंश का (पिब) पान कीजिये ॥२॥

    भावार्थ

    इस संसार में जो लोग जिनके सेवक उन स्वामियों को चाहिये कि उन सेवकों का पोषण करें और सब लोग परस्पर प्रीति से सुख की उन्नति करें ॥२॥

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    विषय

    उत्तम इन्द्रियाश्व

    पदार्थ

    [१] प्रभु जीव से कहते हैं कि मैं (ते) = तेरे लिए इन (सपर्यू) = तेरी उत्तम सेवा करनेवाले इन इन्द्रियाश्वों को (जवसे) = वेग के लिए शीघ्रता से कार्यों को करने के लिए (आयुनज्मि) = शरीर-रथ में जोतता हूँ। (ययो:) = जिनकी (अनु) = अनुकूलता में (प्रदिवः) = प्रकृष्ट ज्ञानवाला होता हुआ तू (श्रुष्टिम्) = क्षित्रता व शीघ्रता को (आव:) = सुरक्षित करता है । इन्द्रियों के ठीक होने पर ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त होता है और कर्मेन्द्रियों से हम शीघ्रता से कार्य करनेवाले बनते हैं । [२] हे (सुशिप्त) = उत्तम हनू व नासिकाओंवाले, अर्थात् जबड़ों से सात्त्विक अन्न का ही सेवन करनेवाले तथा प्राणसाधना को करनेवाले जीव! (हरयः) = ये इन्द्रियाश्व (त्वा) = तुझे (इह) = यहां हमारे समीप (धेयुः) = स्थापित करनेवाले हों। हमारी प्राप्ति के उद्देश्य से ही (तु) = तो (अस्य) = इस (सुषुतस्य) = उत्तमता से सम्पादित (चारोः) = जीवन को सुन्दर बनानेवाले सोम का (पिबा) = पान कर। इसके पान से तेरा जीवन नीरोग, निर्मल व ज्ञानदीप्त बनेगा और तू हमें प्राप्त होनेवाला होगा।

    भावार्थ

    भावार्थ– प्रभु ने हमें इन्द्रियाश्व ज्ञानप्राप्ति व क्रियाशीलता के लिए दिये हैं। इनद्वारा हम प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनें । इसी दृष्टिकोण से हम सोम का भी रक्षण करें।

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    विषय

    अधीन सैन्यों का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे राजन् (सपर्यू जवसे) जिस प्रकार रथ को वेग से चलाने के लिये उसमें दो वेगवान् अश्वों को लगाया जाता है उसी प्रकार (जवसे) वेग से कार्य करने के लिये मैं विद्वान् पुरुष (ते) तेरे अधीन (सपर्यू) दो उत्तम सेवकों को या सभी स्त्री पुरुषों को सेवक रूप से (आ युनज्मि) सब प्रकार से नियुक्त करता हूं। (ययोः अनु) जिनके अनुकूल रहकर तू (प्रदिवः) उत्तम ज्ञान प्रकाशों, उत्तम कामनाओं, अभिलाषों तथा उत्तम लोकों को और (श्रुष्टिम्) रथ के समान शीघ्र गति को भी (आ अवः) प्राप्त कर। हे (सुशिप्र) उत्तम मुख युक्त सौम्य पुरुष ! (हरयः) उत्तम विद्वान् पुरुष और वीर अश्वसैन्य के बल ही (त्वा) तुझे (इह) इस उत्तम पद या राष्ट्र पर (धेयुः) स्थापित और पुष्ट करें। और (अस्य) (चारोः) सुन्दर उपभोग योग्य (सु-सुतस्य) उत्तम रीति से शासित, राष्ट्र का उत्तम सुसंस्कृत अन्न के समान (पिबतु) अवश्य पालन और उपभोग कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, २, ४ निचृत्त्रिष्टुप्। ३, ५ त्रिष्टुप्॥ धैवतः स्वरः॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या संसारात जे ज्यांचे सेवक असतील त्यांचे पोषण त्यांच्या स्वामीने करावे व सर्वांनी परस्पर प्रीतीने सुखाची वाढ करावी. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    For your fast movement in work and travel I employ the fastest vehicles and appoint the most dynamic people in your service by which you come fast and protect the light of the world for us. O warrior of the helmet, lord of beauty and grace, may the intelligent and industrious people help you on here where you may drink this delicious soma of our making with them.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Merits of loving behavior is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king of handsome appearance ! I appoint two attendants whose light (of knowledge) you seek for protection in order to serve your accomplishment speedily, along with those industrious men who uphold you to drink this well-effused agreeable Soma, prepared for you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    In this world, it is the duty of the masters to feed their servants well. All should extend happiness to one another by loving behavior.

    Foot Notes

    (सपर्म्यू) सेवाकौ । सपर - पूजायाम् (कण्डा० ) अत्र 'पूजाबुद्ध्या सेवनार्थं प्रयोग: Servants. (हरय:) पुरुषार्थिनो मनुष्याः । हरयः इति मनुष्य- नाम (NG 2, 3)= Industrious men. (चारो:) अत्युत्तमस्य । (चारो) दुसनि जनि चरि चरि रहिभ्यो त्रुण् ( उष्णा, 1, 3) इति चरं धातोः त्रुण प्रत्यय: । परित्व चक्षुरादिषु इति चारु शोभनम्। = Very good or agreeable.

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