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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 50/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मं कामं॑ मन्दया॒ गोभि॒रश्वै॑श्च॒न्द्रव॑ता॒ राध॑सा प॒प्रथ॑श्च। स्व॒र्यवो॑ म॒तिभि॒स्तुभ्यं॒ विप्रा॒ इन्द्रा॑य॒ वाहः॑ कुशि॒कासो॑ अक्रन्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । काम॑म् । म॒न्द॒य॒ । गोभिः॑ । अश्वैः॑ । च॒न्द्रऽव॑ता । राध॑सा । प॒प्रथः॑ । च॒ । स्वः॒ऽयवः॑ । म॒तिऽभिः॑ । तुभ्य॑म् । विप्राः॑ । इन्द्रा॑य । वाहः॑ । कु॒शि॒कासः॑ । अ॒क्र॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं कामं मन्दया गोभिरश्वैश्चन्द्रवता राधसा पप्रथश्च। स्वर्यवो मतिभिस्तुभ्यं विप्रा इन्द्राय वाहः कुशिकासो अक्रन्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम्। कामम्। मन्दय। गोभिः। अश्वैः। चन्द्रऽवता। राधसा। पप्रथः। च। स्वःऽयवः। मतिऽभिः। तुभ्यम्। विप्राः। इन्द्राय। वाहः। कुशिकासः। अक्रन्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 50; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे राजन् ! ये स्वर्य्यवः कुशिकासो वाहो विप्रा मतिभिरिन्द्राय तुभ्यमिमं काममक्रँस्तेषामिमं कामं गोभिरश्वैश्चन्द्रवता राधसा त्वं पप्रथश्चैतान् मन्दय ॥४॥

    पदार्थः

    (इमम्) प्रत्यक्षम् (कामम्) (मन्दय) प्रापय। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (गोभिः) धेन्वादिभिः (अश्वैः) तुरङ्गादिभिः (चन्द्रवता) पुष्कलं चन्द्रं सुवर्णं विद्यते यस्मिँस्तेन। चन्द्र इति हिरण्यना०। निघं०१। २। (राधसा) धनेन (पप्रथः) प्रख्यातो भव (च) अन्यान् प्रख्यापय (स्वर्य्यवः) ये सुखं यावयन्ति मिश्रयन्ति ते (मतिभिः) मनुष्यैः (तुभ्यम्) (विप्राः) पूर्णविद्या मेधाविनः (इन्द्राय) परमैश्वर्य्याय (वाहः) प्रापकाः (कुशिकासः) सर्वशास्त्रसिद्धान्तवेत्तारः (अक्रन्) कुर्युः ॥४॥

    भावार्थः

    यदि सत्पुरुषैः सहाऽऽनुकूल्येन वर्त्तित्वा परस्पराऽनुभूत्या पशुधनादिभिरिच्छामलंकुर्य्युस्ते सदा सुखिनः स्युः ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे राजन् ! जो (स्वर्यवः) सुख को प्राप्त कराने (कुशिकासः) संपूर्ण शास्त्रों के सिद्धान्त जानने और (वाहः) प्राप्त करानेवाले (विप्राः) पूर्ण विद्या से युक्त बुद्धिमान् लोग (मतिभिः) मनुष्यों से (इन्द्राय) अत्यन्त धन से युक्त (तुभ्यम्) आपके लिये (इमम्) प्रत्यक्ष (कामम्) मनोरथ को (अक्रन्) करें उन लोगों के इस मनोरथ को (गोभिः) गौ आदि और (अश्वैः) घोड़े आदि और (चन्द्रवता) प्रसिद्ध बहुत सुवर्ण विद्यमान है जिसमें उस (राधसा) धन से आप (पप्रथः) प्रसिद्ध होइये (च) और इनको (मन्दय) पहुँचाइये ॥४॥

    भावार्थ

    जो श्रेष्ठ पुरुषों के साथ अनुकूलता से वर्त्तमान होकर परस्पर ऐश्वर्य्य से और पशु आदि धन आदिकों से इच्छा को पूर्ण करें, वे सदा सुखी होवें ॥४॥

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    विषय

    स्वर्यवः-वाहः-कुशिकासः

    पदार्थ

    मन्त्र व्याख्या ३.३०.२० पर द्रष्टव्य है ।

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    विषय

    विद्वानों द्वारा सर्वोच्च पद प्राप्ति।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (इमं कामं) अपने इस उत्तम अभिलाष को (गोभिः) उत्तम वाणियों, गवादि पशुओं, किरणवत् शासकों से, (अश्वः) अश्वों, अश्वसैन्यों से, (चन्द्रवता राधसा) सुवर्णादि धनः से समृद्ध ऐश्वर्य से (पप्रथः) अपने को और बढ़ा, ख्याति लाभ कर,और स्वयं तथा अन्यों को भी (मन्दय) प्रसन्न कर। (स्वर्यवः) सुख की कामना करने वाले (वाहः) कार्यभार के धारण करने वाले (कुशिकासः) कुशल (विप्राः) मेधावी, विद्वान् पुरुष (मतिभिः) उत्तम बुद्धियों से (तुभ्यं इमं कामम् अक्रन्) तेरी इस उत्तम अभिलाषा को सुसम्पादित करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, २, ४ निचृत्त्रिष्टुप्। ३, ५ त्रिष्टुप्॥ धैवतः स्वरः॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे श्रेष्ठ पुरुषांशी अनुकूलतेने वागून परस्पर ऐश्वर्य व पशू इत्यादीद्वारा इच्छा पूर्ण करतात ते सदैव सुखी असतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    This desire, prayer and programme, O lord of power and prosperity, fulfil to our heart’s desire over the earth and extend it to the heights of heaven, with abundance of cows, horses, golden prosperity and celebrated means of success and advancement. May there be glory to you and joy come to the earth. In search of light and joy, earnest sages and scholars of holy Shastras with their understanding, imagination and resolution, together with the will of the people, compose this prayer and exhortation for you, lord ruler of the world, and present it to you for the honour and excellence of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The qualities of loving and ideal behavior are recounted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! gratify our desire with cows, and with horses decorated with shining gold and make us renowned. We are the knowers of the fundamental principles of all Shastras and are wise. Desirous of attaining happiness, we offer praise to you with pious prayers along with other intelligent persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who treat good men agreeably and try to fulfill the desire for the cattle, wealth etc. with mutual co-operation. they always enjoy happiness.

    Foot Notes

    (कुशिकासः ) सर्वशास्त्रसिद्धान्तवेत्तारः । कुशिकः क्रोशतेः शब्दकर्मणः ऋशतेर्वा स्यात् प्रकाशयतिकर्मणः साधु विक्रोशयिता अर्थानाम् इति वा (NKT 2, 2, 27) कुशिमाषार्थो भाषार्थो वा । कुश -निष्कर्थे (क्रयादिः ) Here it is interpreted by Rishi Dayananda Sarasvati as on the basis of meaning कुश निष्कर्षं सिद्धान्तवेत्तारः = Knowers of the fundamental principles of all Shastras. (चन्द्रवता ) पुष्कल चन्द्र सुवर्ण विद्यते यस्मिंस्तेन | चंद्र इति हिरण्यनाम (NG 1, 2) = In matters of enormous gold and wealth etc.

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