ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 50/ मन्त्र 5
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
शु॒नं हु॑वेम म॒घवा॑न॒मिन्द्र॑म॒स्मिन्भरे॒ नृत॑मं॒ वाज॑सातौ। शृ॒ण्वन्त॑मु॒ग्रमू॒तये॑ स॒मत्सु॒ घ्नन्तं॑ वृ॒त्राणि॑ सं॒जितं॒ धना॑नाम्॥
स्वर सहित पद पाठशु॒नम् । हु॒वे॒म॒ । म॒घवा॑नम् । इन्द्र॑म् । अ॒स्मिन् । भरे॑ । नृऽत॑मम् । वाज॑ऽसातौ । शृ॒ण्वन्त॑म् । उ॒ग्रम् । ऊ॒तये॑ । स॒मत्ऽसु॑ । घ्नन्त॑म् । वृ॒त्राणि॑ । स॒म्ऽजित॑म् । धना॑नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ। शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि संजितं धनानाम्॥
स्वर रहित पद पाठशुनम्। हुवेम। मघवानम्। इन्द्रम्। अस्मिन्। भरे। नृऽतमम्। वाजऽसातौ। शृण्वन्तम्। उग्रम्। ऊतये। समत्ऽसु। घ्नन्तम्। वृत्राणि। सम्ऽजितम्। धनानाम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 50; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या वयमस्मिन् वाजसातौ भरे ऊतये मघवानं नृतमं वृत्राणि शृण्वन्तं समत्सु वर्त्तमानानि निमित्तानि घ्नन्तमुग्रं धनानां सञ्जितमिन्द्रं शुनमिव हुवेम तं यूयमपि सेवध्वम् ॥५॥
पदार्थः
(शुनम्) परस्परमेलजन्यं सुखम् (हुवेम) (मघवानम्) पूजितधनवन्तम् (इन्द्रम्) विरोधविदारकम् (अस्मिन्) (भरे) प्रेम्णा पालनीये व्यवहारे (नृतमम्) अतिशयेन प्रीतेर्नेतारं प्रापकम् (वाजसातौ) विज्ञानसेवने (शृण्वन्तम्) (उग्रम्) द्वेषविनाशकम् (ऊतये) ऐक्यभावप्रवेशाय (समत्सु) विरोधव्यवहारेषु (घ्नन्तम्) विनाशयन्तम् (वृत्राणि) प्रेमास्पदवस्तूनि (सञ्जितम्) सम्यग् जयशीलम् (धनानाम्) द्रव्याणाम् ॥५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। त एव धन्या मनुष्या ये विरोधं परिहाय सहाऽनुभूतिं जनयन्तीति ॥५॥ अत्र परस्परेषां प्रीतिवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चाशत्तमं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! हम लोग (अस्मिन्) इस (वाजसातौ) विज्ञान के सेवन करने और (भरे) प्रेम से पालन करने योग्य व्यवहार में (ऊतये) ऐक्यभाव में प्रवेश होने के लिये (मघवानम्) श्रेष्ठ धनवाले और (नृतमम्) अत्यन्त प्रीति के प्राप्त करानेवाले और (वृत्राणि) प्रेम के स्थानभूत वस्तुओं को (शृण्वन्तम्) सुननेवाले (समत्सु) विरोध के व्यवहारों में वर्त्तमान कारणों को (घ्नन्तम्) नाश करते हुए (उग्रम्) द्वेष के विनाशकर्त्ता (धनानाम्) द्रव्यों को (सञ्जितम्) उत्तम प्रकार जीतने और (इन्द्रम्) विरोध के नाश करनेवाले को (शुनम्) परस्पर मेल से उत्पन्न सुख को जैसे वैसे (हुवेम) ग्रहण करें, उसका आप लोग भी सेवन करें ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वे ही धन्य मनुष्य कि जो विरोध का त्याग करके एक साथ ऐश्वर्य उत्पन्न करते हैं ॥५॥ इस सूक्त में परस्पर की प्रीति वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह पचासवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
शृण्वन्तम्
पदार्थ
मन्त्र व्याख्या ३.३०.२२ पर द्रष्टव्य है । यह सूक्त त्यागवृत्ति द्वारा संयमी बनकर सोमरक्षण का प्रतिपादन करता है। अगले सूक्त सोमरक्षण के लिए प्रभुस्तवन का उपदेश है
विषय
विद्वानों द्वारा सर्वोच्च पद प्राप्ति।
भावार्थ
व्याख्या देखो सू० ३३। मं० २२॥ इति चतुर्दशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, २, ४ निचृत्त्रिष्टुप्। ३, ५ त्रिष्टुप्॥ धैवतः स्वरः॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. तीच माणसे धन्य आहेत जी विरोध सोडून सहानुभूती व ऐश्वर्य प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
In this battle of existence, for the sake of success and victory, we invoke, invite and call upon Indra, best and highest of humanity, auspicious creator and commander of power, prosperity, honour and excellence of life. Blazing glorious is he, intent listener to prayers of his people, a fierce fighter for protection and progress, a destroyer of the demons of darkness, evil and poverty, harbinger of the showers of prosperity and a victor of trophies and treasures of corporate life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The benefits of loving behavior are emphasized.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! accepting the knowledge (spiritual and scientific) for unification, lit ( entry into unity) the happiness by dint of unity in the dealings. We invoke to be supported by a loving king, who is possessor of admirable wealth and destroyer of animosity. Taking us towards love, annihilating hatred and listener of sweet and loving talks, you, dissolve causes of war and conquer wealth. You should also serve him.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Blessed are those persons who cast aside all animosity and generate sympathy for fellow-felling.
Foot Notes
(शुनम् ) परस्परमेलजन्यं सुखम् । शुनभिति सुखनाम | (NG 3, 6, ) = Happiness caused by unity. Taking into consideration the context, here it has been taken to mean happiness caused by love and unity. (उतये ) एक्यभावप्रवेशाय । = For entry into unity. (इन्द्रम् ) विरोधविदारकम् । = Destroyer of animosity.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal