ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 58/ मन्त्र 6
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - अश्विनौ
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
पु॒रा॒णमोकः॑ स॒ख्यं शि॒वं वां॑ यु॒वोर्न॑रा॒ द्रवि॑णं ज॒ह्नाव्या॑म्। पुनः॑ कृण्वा॒नाः स॒ख्या शि॒वानि॒ मध्वा॑ मदेम स॒ह नू स॑मा॒नाः॥
स्वर सहित पद पाठपु॒रा॒णम् । ओकः॑ । स॒ख्यम् । शि॒वम् । वा॒म् । यु॒वोः । न॒रा॒ । द्रवि॑णम् । ज॒ह्नाव्या॑म् । पुन॒रिति॑ । कृ॒ण्वा॒नाः । स॒ख्या । शि॒वानि॑ । मध्वा॑ । म॒दे॒म॒ । स॒ह । नु । स॒मा॒नाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुराणमोकः सख्यं शिवं वां युवोर्नरा द्रविणं जह्नाव्याम्। पुनः कृण्वानाः सख्या शिवानि मध्वा मदेम सह नू समानाः॥
स्वर रहित पद पाठपुराणम्। ओकः। सख्यम्। शिवम्। वाम्। युवोः। नरा। द्रविणम्। जह्नाव्याम्। पुनरिति। कृण्वानाः। सख्या। शिवानि। मध्वा। मदेम। सह। नु। समानाः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 58; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
यदि शिल्पिविद्वद्भिरन्ये परस्परं मैत्रीं कुर्य्युस्तर्हि किं प्राप्नुयुरित्याह।
अन्वयः
हे नरा नायकौ सभासेनेशौ वां पुराणमोक इव शिवं सख्यमाप्नोतु। जह्नाव्यां युवोर्द्रविणं मिलतु पुनः शिवानि सख्या कृण्वानाः समाना वयं मध्वा सह नु मदेम ॥६॥
पदार्थः
(पुराणम्) पुरातनम् (ओकः) सर्वर्त्तुसुखप्रदं स्थानमिव (सख्यम्) सख्युः कर्म मित्रत्वम् (शिवम्) कल्याणकरम् (वाम्) (युवोः) (नरा) नायकौ (द्रविणम्) धनम् (जह्नाव्याम्) जह्नोस्त्यक्तुरियं नीतिस्तस्याम्। अत्राकाराऽकारयोर्व्यत्ययः। (पुनः) (कृण्वानाः) कुर्वन्तः (सख्या) सुहृदः कर्माणि (शिवानि) सुखकराणि (मध्वा) मधुरभावेन (मदेम) आनन्देम (सह) (नु) सद्यः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (समानाः) तुल्योत्तमगुणकर्मस्वभावाः ॥६॥
भावार्थः
यदि विद्वांसोऽविद्वांसश्च परस्परं मैत्रीं कुर्युस्ते सनातनं शिवं ब्रह्मैश्वर्य्यं विज्ञानञ्च प्राप्य धार्मिकास्सन्तो दुष्टानि व्यसनानि विहाय सदैव सुखिनः स्युः ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
जो शिल्पी विद्वानों के साथ और लोग परस्पर मित्रता करें तो क्या पावें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (नरा) नायक सभा और सेना के ईशो ! (वाम्) आप दोनों (पुराणम्) प्राचीनकाल से सिद्ध (ओकः) सब ऋतुओं में सुख देनेवाले स्थान के तुल्य (शिवम्) कल्याण करनेवाले (सख्यम्) मित्र के कर्म को प्राप्त हूजिये और (जह्नाव्याम्) त्याग करनेवाले की नीति में (युवोः) तुम दोनों को (द्रविणम्) धन प्राप्त हो (पुनः) फिर (शिवानि) सुख करनेवाले (सख्या) मित्र के कर्मों को (कृण्वानाः) करते हुए (समानाः) तुल्य और उत्तम गुण कर्म स्वभाववाले हम लोग (मध्वा) मधुरभाव के (सह) साथ (नु) शीघ्र (मदेम) आनन्द करैं ॥६॥
भावार्थ
जो विद्वान् और अविद्वान् लोग परस्पर मैत्री करैं, वे अनादिसिद्ध कल्याणकारक ब्रह्म ऐश्वर्य और विज्ञान को प्राप्त होकर धार्मिक होते हुए दुष्ट व्यसनों का त्याग करके सदा ही सुखी होवें ॥६॥
विषय
प्राणापान के साथ मित्रता
पदार्थ
[१] हे (नरा) = हमें उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले प्राणापानो ! (वाम्) = आपकी (सख्यम्) = मित्रता (पुराणं ओकः) = सनातन गृह के समान है, शिवम् वह कल्याणकर है। जैसे घर में व्यक्ति सदा सुख का अनुभव करता है, उसी प्रकार प्राणापान की मित्रता में सुख ही सुख है। [२] (युवोः) = आपका (द्रविणम्) = धन (जह्नाव्याम्) = त्यागशील पुरुष में होता है, अर्थात् प्राणापान की शक्ति से प्राप्त धन का विनियोग सदा दान आदि उत्तम कर्मों में होता है। अनायास मिला धन सदा मनुष्य को विलासी बना देता है। अन्यायोपार्जित धन चोरी आदि में चला जाता है। [३] हे प्राणापानो! हम (नू) = निश्चय से (पुनः) = फिर प्राणापान की (शिवानि संख्या) = कल्याणकर मित्रताओं को (कृण्वाना:) = करते हुए (मध्वा सह) = प्राणसाधना द्वारा शरीर में ऊर्ध्व स्थितिवाले सोम के साथ (मदेम) = हर्ष का अनुभव करें और (समाना:) = [सम्यक् अन्- प्राणने] उत्तम प्राणशक्ति सम्पन्न बनें। प्राणापान के साथ मित्रता का भाव यही है कि प्राणसाधना में प्रवृत्त हों।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से प्राणापान को विकसित करने द्वारा हम कल्याण के भागी हों। प्राणशक्ति से प्राप्त धन का सात्त्विक कर्मों में विनियोग करें। प्राणायाम हमें ऊर्ध्वरेता बनाए, जिससे हम प्राणशक्ति सम्पन्न बनें ।
विषय
अश्वी, नासत्य, सोमपान आदि पदों की व्याख्या।
भावार्थ
हे (नरा) नायको ! दोनों उत्तम स्त्री पुरुषो ? (वां) तुम दोनों का परस्पर (सख्यम्) मित्रता (पुराणम् ओकः) अपने पुराने गृह के समान (शिवं) कल्याणकारक हो। (युवोः) तुम दोनों का (द्रविणम्) ऐश्वर्य ज्ञान भी (जह्नाव्याम्) त्यागी पुरुष की दान करने की शैली में व्यय होकर (शिवं) कल्याणकारी हो। हम लोग भी (सख्या) अपने मित्रता के भावों को (पुनः) बार २ (शिवानि) कल्याणयुक्त, सुखकर (कृण्वानाः) करते हुए (मध्वा) उत्तम अन्न जलसे (समाना) एक दूसरे के समान होते हुए (मदेम नु) सब आनन्द और हर्ष को प्राप्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ८, ९ त्रिष्टुप्। २, ३, ४, ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप्। ६ भुरिक् पंक्तिः॥ नवर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वान व अविद्वानांनी परस्पर मैत्री करावी. अनादि सिद्ध कल्याणकारी ब्रह्म, ऐश्वर्य व विज्ञान प्राप्त करून धार्मिक बनावे. दुष्ट व्यसनांचा त्याग करून सदैव सुखी रहावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, leaders of the human nation, old and constant is your friendship, blissful, restful and pleasing as a holiday home. Your wealth and power lies in the culture and philosophy of the self-sacrificing pioneers. Let us together, equal and alike, doing friendly and benevolent acts, again and again, join, sing and celebrate.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The achievement´s of others from friendship with engineers and technocrats are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O leaders ! President of the Assembly and the Commander of the army! your friendship is desirable and auspicious like a well-built old house which gives happiness in all seasons. May you get wealth while following the policy of renouncing the evils. Renewing that auspicious or beneficial friendship, may we your associates, possess good knowledge, actions and temperament, the way you sweetly enjoy bliss.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The highly learned and other ordinary persons establish friendship with one another, so that they can always enjoy happiness by acquiring the eternal and auspicious the scientific knowledge about God and wealth. They are righteous and renouncers of all evil habits.
Foot Notes
(ओक:) सर्वर्तुसुखप्रदं स्थानमिव । ओक इति निवास नामोच्यते (NKT 3, 1, 3 ) = Like a house which gives happiness in all seasons. (जहनाव्याम्) जहनोस्त्यतुरियं नीतिस्तस्याम् ! = In or following the policy of a good man who renounces all evil habits.
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