ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निर्लिङ्गोक्ता वा
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ऊ॒र्ध्वं के॒तुं स॑वि॒ता दे॒वो अ॑श्रे॒ज्ज्योति॒र्विश्व॑स्मै॒ भुव॑नाय कृ॒ण्वन्। आप्रा॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षं॒ वि सूर्यो॑ र॒श्मिभि॒श्चेकि॑तानः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्ध्वम् । के॒तुम् । स॒वि॒ता । दे॒वः । अ॒श्रे॒त् । ज्योतिः॑ । विश्व॑स्मै । भुव॑नाय । कृ॒ण्वन् । आ । अ॒प्राः॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् । वि । सूर्यः॑ । र॒श्मिऽभिः॑ । चेकि॑तानः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ध्वं केतुं सविता देवो अश्रेज्ज्योतिर्विश्वस्मै भुवनाय कृण्वन्। आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं वि सूर्यो रश्मिभिश्चेकितानः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठऊर्ध्वम्। केतुम्। सविता। देवः। अश्रेत्। ज्योतिः। विश्वस्मै। भुवनाय। कृण्वन्। आ। अप्राः। द्यावापृथिवी इति। अन्तरिक्षम्। वि। सूर्यः। रश्मिऽभिः। चेकितानः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्गुणानाह ॥
अन्वयः
यो देवो विद्वान् यथा सविता रश्मिभिश्चेकितानः सूर्य्यो विश्वस्मै भुवनाय ज्योतिः कृण्वन् द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं व्याप्रास्तथोर्ध्वं केतुमश्रेत् स एवालं सुखी जायते ॥२॥
पदार्थः
(ऊर्ध्वम्) उत्कृष्टम् (केतुम्) प्रज्ञाम् (सविता) सूर्य्य इव (देवः) विद्वान् (अश्रेत्) (ज्योतिः) प्रकाशम् (विश्वस्मै) सर्वस्मै (भुवनाय) संसाराय (कृण्वन्) कुर्वन् (आ) (अप्राः) व्याप्नोति (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (वि) (सूर्य्यः) प्रकाशमयः (रश्मिभिः) (चेकितानः) प्रज्ञापयन् ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वांसोऽखिला विद्या अधीत्य ब्रह्मचर्य्य-योगाभ्यासाभ्यां प्रमां प्राप्य रश्मिभिस्सूर्य्य इव जनान्तःकरणाण्युपदेशेनोज्ज्वलयन्ति त एव सर्वेषां पूज्या भवन्ति ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वान् के गुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (देवः) विद्वान् जैसे (सविता) सूर्य्य (रश्मिभिः) किरणों से (चेकितानः) जनाता हुआ (सूर्य्यः) प्रकाशमान (विश्वस्मै) सब (भुवनाय) संसार के लिये (ज्योतिः) प्रकाश को (कृण्वन्) करता हुआ (द्यावापृथिवी) प्रकाश-भूमि (अन्तरिक्षम्) आकाश को (वि, आ, अप्राः) व्याप्त होता है, वैसे (ऊर्ध्वम्) उत्तम (केतुम्) ) बुद्धि का (अश्रेत्) आश्रय करे, वही पूर्ण सुखवाला होवे ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् लोग सम्पूर्ण विद्याओं को पढ़कर, ब्रह्मचर्य और योगाभ्यास से ज्ञान को प्राप्त होकर, किरणों से सूर्य्य के सदृश जनों के अन्तःकरणों को उपदेश से उज्ज्वल करते हैं, वे ही सब को सत्कार करने योग्य होते हैं ॥२॥
विषय
ऊर्ध्व केतु
पदार्थ
[१] (सविता देव:) = वह प्रेरक प्रकाशमय प्रभु (ऊर्ध्वं केतुम्) = उत्कृष्ट ज्ञान का (अश्रेत्) = आश्रय करते हैं। उपासक को इस उत्कृष्ट ज्ञान को प्रभु प्राप्त कराते हैं। (विश्वस्मै भुवनाय) = सब लोकों के लिये (ज्योतिः कृण्वन्) = प्रकाश को वे प्रभु करते हैं। यह ठीक है कि सब कोई उस ज्योति का लाभ उठाते नहीं 'आश्चर्यवत् पश्यति कश्चिदेनम् = कोई विरल ही उस ज्योति को देखनेवाला होता है। [२] वे प्रभु द्यावापृथिवी, द्युलोक तथा पृथिवीलोक को और (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष को (आप्राः) = पूरण किये हुए हैं, त्रिलोकी में वे व्याप्त हो रहे हैं। और (सूर्य:) = 'ब्रह्म सूर्यसमं ज्योतिः सूर्यसम ज्योति वे प्रभु (रश्मिभिः) = ज्ञानरश्मियों से (विचेकितानः) = विशिष्टरूप से मार्ग का ज्ञान दे रहे हैं। प्रेरणा के रूप में दिये जानेवाले इस ज्ञान को हम सुनेंगे तो मार्ग पर चलते हुए इहलोक में सुख को प्राप्त कर परम मोक्ष को प्राप्त करनेवाले बनेंगे।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु सूर्य के समान सर्वत्र प्रकाश कर रहे हैं। हम उस प्रकाश को देखें। तदनुसार मार्ग पर चलते हुए कल्याण को प्राप्त करें ।
विषय
सूर्यवत् ज्ञानप्रकाशक विस्तार करना ।
भावार्थ
(सविता देवः) प्रकाशमान सूर्य जिस प्रकार (विश्वस्मै भुवनाय) समस्त उत्पन्न जगत् के लिये (ज्योतिः कृण्वन्) प्रकाश करता हुआ (ऊर्ध्वं) सबसे ऊपर (केतुं) प्रकाश को (अश्रेत्) धारण करता है, और (सूर्यः) सूर्य जिस प्रकार (रश्मिभिः) अपनी किरणों से (द्यावा पृथिवी अन्तरिक्षं) आकाश भूमि और अन्तरिक्ष को (आ अप्राः) सब ओर पूर्ण कर देता है । उसी प्रकार (सविता) समस्त राष्ट्र का प्रेरक, सञ्चालक (देवः) तेजस्वी, दानशील राजा वा विद्वान् (विश्वस्मै भुवनाय) समस्त उत्पन्न प्रजाजनों के हितार्थ (ज्योतिः कृण्वन्) ज्ञान-प्रकाश प्रदान करता हुआ (ऊर्ध्वं) सबके ऊपर श्रेष्ठ (केतुं) ज्ञान को (अश्रुत्) स्वयं धारण करे । और (वि चेकितानः) विशेष रूप से स्वयं सबको देखता और ज्ञान करता हुआ (रश्मिभिः) अधीन शासकों द्वारा (द्यावा पृथिवी) स्त्री पुरुषों विद्वान् और अविद्वान् और (अन्तरिक्षं) अपने भीतरी अन्तःकरण वा अन्तरंग जनों को (आ अप्राः) ज्ञान वा ऐश्वर्य से पूर्ण करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निलिंगोक्ता वा देवता ॥ छन्दः- १ भुरिक्पंक्तिः । ३ स्वराट् पंक्ति: । २, ४ निचृत्त्रिष्टुप । ५ विराट् त्रिष्टुप । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्वान संपूर्ण विद्या शिकून ब्रह्मचर्य व योगाभ्यासाने ज्ञान प्राप्त करून सूर्याच्या प्रकाशकिरणांप्रमाणे लोकांच्या अंतःकरणांना उज्ज्वल करतात, तेच सर्वांनी सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May Savita, brilliant and generous, giver of light and life’s energy, create light and radiate energy high up and give enlightenment to the whole world, as the refulgent sun, with its rays, illuminates the heaven and earth and the skies.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of scholars are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As the sun covering its area of operation with the rays, thus brightes the whole world earth and firmament with its light and glaze, same way a scholar behaves and acts and thus provides excellent intelligence and mind to the people. They ultimately achieve happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here is also a simile. The well-versed scholars acquire knowledge through continence (Brahmacharya) and practice of Yoga, and they disseminate it like the rays of the sun. They brighten the conscience of the people with their preachings. They are honored and respected everywhere.
Foot Notes
(ऊर्ध्वम् ) उत्कृष्टम् । = Excellent.(केतुम् ) प्रज्ञाम् | = Intelligence.(विश्वस्मै ) सर्वस्मै । = For all. (अप्राः) व्याप्नोति । =Pervades. (चेकितानः ) प्रज्ञापयन् । = Making others to know.
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